कृषि कानून पर निस्वार्थ पहल
अदालत ने सरकार की नाकामियों को लेकर जिस तरह की लताड़ लगाई सरकार को उसकी उम्मीद नहीं रही होगी।
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने आखिरकार कृषि कानूनों पर रोक लगा दी। जब तक जांच कमेटी अपनी रिपोर्ट अदालत को नहीं सौंपती है, तब तक इस पर रोक जारी रहेगी। किसान आंदोलन पर सुप्रीमकोर्ट ने सरकार को खरी-खरी सुनाई है। अदालत की यह तल्खी और नाराजगी सरकार की सांसत बढ़ा रही है। निश्चित रूप से सरकार अड़ियल रुख अपना कर किसान आंदोलन को बेदम करना चाहती थी। सरकार खुले मन से इस पर विचार नहीं करना चाहती थी। केंद्रीय कृषिमंत्री नरेन्द्र तोमर और उनके सहयोगी मंत्री किसान संगठनों की बैठक में खुले मन से भाग लेते थे लेकिन वह कानून को खत्म करना चाहती थी जबकि किसान भी डेढ़ माह से जिद पर अड़े थे जिसकी वजह से बात नहीं बन पाई। सरकार और किसानों के बीच नौ चक्र की वार्ता के बाद भी बात नहीं बन पाई। इसके बाद सुप्रीमकोर्ट ने दाखिल कई याचिकाओं पर अपना फैसला सुनाते हुए नए कृषि कानूनों को होल्ड कर दिया है।
अदालत ने सरकार की नाकामियों को लेकर जिस तरह की लताड़ लगाई सरकार को उसकी उम्मीद नहीं रही होगी। अदालत ने साफ कर दिया है कि कृषि कानूनों को सरकार होल्ड करे या वह खुद ऐसा कर देगी। सुप्रीमकोर्ट सरकार को अब वक्त नहीं देना चाहती थी। कृषि कानूनों पर सरकार के अड़ियल रुख पर अदालत ने कड़ी फटकार लगाई है। अदालत का संदेश साफ था कि सरकार कृषि कानूनों पर रोक नहीं लगाती है तो कोर्ट खुद रोक लगा देगा। अदालत के इस नजरिये से मोदी सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती है। अभी जिस बिल को वह सियासी जय और विपक्ष की पराजय के रूप में देखती रहीं है, उसका यह गुब्बार धड़ाम हो जाएगा।
अदालत आंदोलन के दौरान किसानों की आत्महत्या और मौत को लेकर भी गम्भीर है। अदालत दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद सरकार और किसानों के मध्य आम सहमति का रास्ता चाहती है। इसीलिए वह कृषि बिल को होल्ड रखने के लिए सरकार से कह रहीं थी, जबकि सरकार के लिए यह करना मुमकिन नहीं था जिसकी वजह से अदालत को ही कानून पर रोक लगानी पड़ी। अदालत का कहना था कि जब तक समिति काम करेगी तब तक बिल को निलंबित रखा जाए जबकि सरकार किसानों की कुछ मांगों को छोड़ कर बिल को यथावत रखना चाहती है। सरकार किसान आंदोलन को नजरंदाज कर विपक्ष को यह संदेश देना चाहती है कि वह जो चाहेगी वहीं करेगी लेकिन सरकार की मुश्किल बढ़ती लगती है।
किसान आंदोलन को लेकर मीडिया की भूमिका बेहद आलोचनात्मक रहीं है। दिल्ली की गाजियाबाद सीमा में जिस तरह किसान डटे हैं उस पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। वहाँ उपलब्ध सुविधाओं पर भी तल्ख टिप्पणी हो रहीं है। कहा जा रहा है कि यह किसान नहीं हैं। नए कानून से मण्डियां खत्म होने आढ़ती आंदोलन कर रहे हैं। किसान इतना कहाँ से समृद्ध हो गया। टेंटसिटी बसाने के लिए फंडिंग कौन कर रहा है। वाशिंग मशीन, ठंड के कपड़े, कॉफी, पिज्जा और बर्गर समेत अत्याधुनिक ओडी कारें जैसी सुविधाएँ कहा से आ रहीं हैं। इसका क्या मतलब लोग किसान को गरीब ही बनाएं रखना चाहते हैं। किसान क्या समृद्ध नहीं हो सकता। अगर उसे यह सुविधाएं मुहैया कराई जा रहीं हैं तो क्या गुनाह है। आंदोलन को वामपंथ, काँग्रेस और आढ़तियों के साथ जोड़ कर प्रचारित किया जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट इस गतिरोध को दूर करना चाहता है। सुप्रीम कोर्ट कमेटी गठित कर सरकार और किसान संगठनों से बातचीत के आधार पर रिपोर्ट तैयार करना चाहता है। उसके बाद उसी आधार पर बिल की समीक्षा करना चाहता है। अदालत अब तक सरकार की तरफ से उठाए गए कदम से संतुष्ट नहीं है। उसने साफ कहा है कि वह न कानून को खत्म करना चाहती है और न प्रदर्शन को बंद करना चाहती है। महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों को आंदोलन स्थल से कड़ाके की ठंड देखते हुए हटाना चाहती है।
सुप्रीमकोर्ट के चीफ जस्टिस एसए बोबडे ने साफ कहा था कि हम सुनवाई बंद कर रहे हैं, अब आदेश पारित होगा। आखिरकार अदालत ने कानून पर रोक लगा दी। सरकार पर सख्त रुख दिखाते हुए कोर्ट ने कहा है कि सरकार इतने संवेदनशील मुद्दे को गम्भीरता से नहीं सम्भाल पाई। अदालत की तल्खी देखते हुए किसान संगठनों के वकील दुष्यंत दवे ने साफ कर दिया है कि किसान 26 जनवरी को ट्रैक्टर मार्च नहीं करेंगे। सीजेआई ने समय माँगने पर अटॉर्नी जनरल को भी खरी-खरी सुनाई।
अदालत की तरफ से सुनाए गए फैसले के बाद सवाल उठता है कि क्या किसान सरकार और अदालत की बातें मान जाएंगे। जबकि किसानों ने कहा है कि बैठक में प्रधानमंत्री को भी आना चाहिए लेकिन अदालत ने साफ कर दिया है कि हम प्रधानमंत्री को बैठक में आने के लिए नहीं कह सकते हैं। ऐसे हालात में बात कैसे बनेगी।
किसानों ने कहा है कि हम चार सदस्यीय कमेटी के सामने पेश नहीं होंगे। उस पर अदालत ने कहा कि जब आप सरकार और संगठनों के बीच हुई मीटिंग में शामिल हो सकते हैं तो कमेटी के सामने क्यों नहीं पेश हो सकते।
सुप्रीम कोर्ट ने निश्चित तौर पर उचित सवाल उठाया है। किसानों को मीटिंग में शामिल होना ही पड़ेगा। सवाल उठता है कि किसान और सरकार मामले को हल करना चाहते हैं या केवल इस पर सियासत करना चाहते हैं। सुप्रीमकोर्ट की तरफ से गठित चार सदस्यीय समिति सभी पक्षों को सुनने के बाद अपनी रिपोर्ट कोर्ट को देगी। अदालत ने पूरी पारदर्शिता अपनाते हुए न तो सरकार का न तो किसान संगठनों की तरफ से किसी प्रतिनिधि को समिति में रखा है। जिन सदस्यों को रखा गया है वह अपने-अपने क्षेत्र के विषय विशेषज्ञ है। इसलिए अदालत की निष्पक्षता और पवित्रता पर सवाल नहीं उठाए जा सकते हैं। कृषि कानूनों पर राजनीति करनी है तो यह बात दीगर है।
एक लोकतांत्रिक सरकार को हमेशा से विपक्ष के प्रस्ताव पर भी विचार करना चाहिए। सरकार इस बिल को वापस नहीं लेना चाहती है हालांकि अब मामला कोर्ट के पाले में चला गया है। अब देखना है कि कोर्ट इस पर क्या फैसला देता है। अदालत समिति की रिपोर्ट आने के बाद ही इस पर फैसला सुनाएगी। अब वक्त आ गया है जब कृषि कानूनों पर राजनीति बंद होनी चाहिए। खुले मन से सरकार और किसान संगठनों को अदालत के निर्णय का सम्मान करना चाहिए। सरकार को भी लोकतंत्र में विपक्ष नामक संस्था का सम्मान करना चाहिए। हालांकि आजकल विपक्ष की भूमिका भी पूरी तरह राजनीतिक हो गई है। सरकार विरोध सिर्फ उसने एजेंडा बना लिया है।अदालत ने साफ कर दिया है कि आप अड़चनें पैदा करना चाहते हैं या कृषि कानूनों में सुधार चाहते हैं। निश्चित रूप से अदालत की यह पहल एक गंभीर विषय है। सरकार और किसान संगठनों को मिलकर यह गतिरोध दूर करना चाहिए। (हिफी)