एकला चलो की राह पर बसपा सुप्रीमो

राजनीति को भी व्यापार बना दिया गया है। चुनाव के समय गठबंधन इसी नजरिए से किये जा रहे हैं

Update: 2021-01-17 07:39 GMT

लखनऊ। राजनीति को भी व्यापार बना दिया गया है। चुनाव के समय गठबंधन इसी नजरिए से किये जा रहे हैं लेकिन जिस तरह व्यापार में साख होती है, उसी तरह राजनीति में भी राजनीतिक दलों के नेताओं की साख होती है। कई नेताओं ने अपनी साख इतनी गिरा दी है कि आज उनकी कद्र ही नहीं कर रहा है। उत्तर प्रदेश में दलितों की राजनीति करने वाली बसपा ने अब इसीलिए एकला चलो की रणनीति अपनायी है।

उन्होंने सपा के साथ समझौता करके एक बार सरकार बनायी और दूसरी बार उपचुनाव में भाजपा को जबर्दस्त पराजय दी लेकिन अब उन्हें लग रहा है कि अकेले दम पर चुनाव लड़ने में ही भलाई है। उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में मायावती ने अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है। इस बार वह सधे हुए कदम रख रही हैं। संयोग से जिस दिन उनका 65वां जन्मदिन मनाया जा रहा था, उसी के दूसरे दिन कोरोना का वैक्सीन लगने की शुरुआत थी। विपक्षी दल सपा और कांग्रेस वैक्सीन की आलोचना कर रहे हैं, जबकि मायावती ने टीकाकरण अभियान शुरू करने के सरकार के फैसले का स्वागत किया। उन्होंने केन्द्र सरकार और राज्य सरकार से देश भर में सभी को मुफ्त में वैक्सीन लगवाने का अनुरोध भी किया है। इस प्रकार उनका पूरा ध्यान अपनी पार्टी को मजबूत करने पर लगा है।

पूर्व मुख्यमंत्री और बसपा अध्यक्ष मायावती का 15 जनवरी को 65वां जन्मदिन मनाया गया। कोरोना काल के चलते मायावती ने अपने जन्मदिन को कार्यकर्ताओं से सादगी और जनकल्याणकारी दिवस के रूप में मनाने की अपील की थी। बसपा संस्थापक कांशीराम के सानिध्य में रहकर मायावती ने सियासत की एबीसीडी सीखी और देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री बनीं। मायावती 1977 में कांशीराम के कहने पर राजनीति में आई थीं और 1995 में यूपी की मुख्यमंत्री बनीं फिर 15 दिसंबर, 2001 को कांशीराम ने उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित किया था और 2007 में पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने में मायावती कामयाब रहीं।


मायावती ने अपने पांच दशक के लंबे सियासी सफर में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। सूबे की सत्ता से कई बार बेदखल हुईं तो कई बार विराजमान भी हुई हैं, लेकिन मौजूदा समय में एक के बाद एक चार चुनाव हारने और पार्टी नेताओं की बगावत ने उनकी राजनीति पर प्रश्न चिह्न लगा दिए हैं और मायावती अपने कई दिग्गज नेताओं को खो चुकी हैं। सन् 2012 के बाद से मायावती को कोई जीत हासिल नहीं हुई है और उनके पास सबसे बड़ी चुनौती बहुजन समाज मूवमेंट को संभालकर रखने की है। इसके चलते मायावती के राजनीतिक वारिस को लेकर कयास लगाए जा रहे हैं, जो उनके बहुजन मूवमेंट को आगे लेकर जा सकें। मायावती के भाई आनंद को एक समय में उनके राजनीतिक वारिस के तौर पर देखा जा रहा था, क्योंकि 2018 में अंबेडकर जयंती के मौके पर बाबा साहब को श्रद्धांजलि देते हुए मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार को बीएसपी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाने का ऐलान किया था। मायावती ने कहा था, मैंने अपने भाई आनंद कुमार को इस शर्त पर बीएसपी में लेने का फैसला किया है कि वह कभी एमएलसी, विधायक, मंत्री या मुख्यमंत्री नहीं बनेगा। इसी वजह से मैं आनंद को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना रही हूं।

हालांकि, छह महीने के भीतर मायावती ने अपने भाई आनंद को बसपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद से हटाते हुए कहा था कि राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर रहते हुए अब कोई अपने नाते-रिश्तेदार को पार्टी में पद नहीं देंगी। ऐसे में अब आनंद मायावती के राजनीतिक वारिस की फेहरिस्त से बाहर हो गए हैं। दरअसल, इसके पीछे एक वजह यह मानी गई कि आनंद एक समय नोएडा में क्लर्क हुआ करते थे, पर मायावती जब यूपी की सियासत में चमकीं तो आनंद की किस्मत भी खुल गई। इसी के साथ केंद्रीय जांच एजेंसियों के निशाने पर आनंद के साथ-साथ मायावती भी आ गई हैं। मायावती को क्लीन चिट मिल गई, लेकिन आनंद जांच के घेरे में हैं।

इसके बाद मायावती के राजनीतिक वारिस के तौर पर फिलहाल उनके भतीजे आकाश को देखा जा रहा है। आकाश मायावती के भाई आनंद के बड़े बेटे हैं। साल 2018 से लगातार आकाश भी मायावती साथ साए की तरह रहते हैं। बसपा की रैलियों से लेकर पार्टी नेताओं की बैठक में मायावती के साथ आकाश भी शामिल होते हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में आगरा की रैली में उन्होंने पहली बार सार्वजनिक रूप से भाषण भी दिया था, लेकिन पहली बार 18 सितंबर 2017 में मेरठ की रैली में मायावती के साथ मंच पर दिखे थे। आकाश लंदन की एक यूनिवर्सिटी से मैनेजमेंट में पोस्टग्रेजुएट हैं और बसपा में नई जिम्मेदारी संभालने के लिए मायावती के संग राजनीति के दांव पेंच सीख रहे हैं। माना जा रहा है कि मायावती के राजनीतिक उत्तराधिकारी अब कोई और नहीं बल्कि आकाश ही होंगे। आकाश के नाम पर मायावती ने आश्वस्ति महसूस की तो इसके कारण समझे जा सकते हैं। पहला तो यह है कि मायावती लगभग 64 साल की हैं, जिसे राजनीति में बहुत ज्यादा उम्र वो नहीं मानती होंगी।

उन्हें लगता होगा कि अभी 5 से 10 साल और वो राजनीति की पारी खेल सकती हैं। इसलिए मायावती अपने भतीजे आकाश को सानिध्य में रखकर सियासत के हुनर सिखा रही हैं। बसपा प्रमुख मायावती ने एक समय अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी की चर्चा की थी तो यह कहा था कि वह दलित बिरादरी में से ही कोई होगा, उसकी उम्र अभी 18-19 साल है लेकिन साथ-साथ यह भी कहा था कि उनका उत्तराधिकारी जो तय हो चुका है, लेकिन उनके परिवार में से कोई नहीं है। बसपा में उस समय मायावती के उत्तराधिकारी के बतौर तत्कालीन राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राजाराम पर नजर जाकर टिक गई थी, जो आजमगढ़ के रहने वाले थे। वो काफी तेज तर्रार बहुजन समाज के मूवमेंट को आगे लेकर जाने वाले माने जाते थे। हालांकि, मायावती ने एक झटके में बिना किसी कारण के राजाराम को पदच्युत कर पैदल कर दिया। मायावती के गुरु और बसपा संस्थापक कांशीराम की सोच पारिवारिक मोह से परे थी। उनकी धारणा थी कि अगर मिशन को सफल बनाना है तो परिवार के प्रति लगाव-जुड़ाव को खत्म करना होगा। कांशीराम ने वंचित समाज के लिए अपना पूरा जीवन समर्पण कर दिया था। उन्होंने अपने परिवार के लोगों को बसपा से दूर रखा और परिवार के किसी सदस्य को पार्टी में जगह नहीं दी। मायावती को उन्होंने अपना उताराधिकारी इसलिए घोषित किया, क्योंकि उन्होंने बहुजन मिशन को पहुंचाने के लिए संघर्ष किया था। अब मायावती को दो मुद्दों पर काम करना है। पहली यह कि पार्टी के अपने दम पर सक्षम बनाएं और दूसरा नेतृत्व को सामने लाएं। (हिफी)

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