शाहीन बाग धरने से सबक

शाहीन बाग का धरना जो नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के विरोध में आज से लगभग 9 महीने पहले शुरू हुआ था और देश के कई राज्यों में फैल गया

Update: 2020-10-08 02:56 GMT

नई दिल्ली। मोदी की सरकार में कई ऐतिहासिक फैसले हुए जैसे राम मंदिर का फैसला, कश्मीर से अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने का निर्णय और नोटबंदी, जीएसटी जैसे फैसले। इसी तरह कुछ ऐतिहासिक आंदोलन भी हुए हैं। इनमें  एक है दिल्ली के शाहीन बाग का धरना जो नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के विरोध में आज से लगभग 9 महीने पहले शुरू हुआ था और देश के कई राज्यों में फैल गया था। कोरोना वायरस ने इस धरने को समाप्त करने में बड़ी भूमिका निभाई, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने शांतिदूत धरनाकारियों को वहां से हटाने के लिए भेजे थे। अभी दो महीने पहले ही जुलाई में वहां फिर से धरना शुरू करने की बात उठी थी लेकिन प्रशासन इस बार सतर्क था। धरना-प्रदर्शन के बाद ही दिल्ली में दंगा हो गया था जिसमें आप के निष्कासित पार्षद ताहिर हुसैन और फारुख फैजल को मास्टर माइंड बताया गया है। इस पूरे मामले पर देश की सबसे बड़ी अदालत ने 7 अक्टूबर को महत्वपूर्ण फैसला सुनाया और कहा कि सार्वजनिक जगहों और सड़कों पर अनिश्चितकालीन धरना नहीं हो सकता। सुप्रीम कोर्ट ने विरोध करने के इस संवैधानिक अधिकार को बरकरार रखा है लेकिन आम जनता के हित को सर्वोपरि रखा है। राजनीतिक दलों से लेकर सरकारी-गैर सरकारी कर्मचारी, सामाजिक संस्थाएं विरोध स्वरूप धरना देती हैं। इनको भी देश की सबसे बड़ी अदालत की भावना को समझना चाहिए। राज्य सरकारें भी धरना-प्रदर्शन के लिए स्थान तय कर दें ताकि आम जनता को इसके चलते कोई परेशानी न होने पाए। शाहीनबाग धरने के कई सबक हैं, जिन पर धरना देने वालों को भी विचार करना होगा।

नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ दिल्ली के शाहीन बाग में हुए प्रदर्शन को लेकर 7 अक्टूबर सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा फैसला दिया है। कोर्ट ने कहा है कि सार्वजनिक जगहों पर अनिश्चितकाल तक प्रदर्शन नहीं हो सकता है चाहे वो शाहीन बाग हो या कोई और जगह। कोर्ट ने कहा कि निर्धारित जगहों पर ही प्रदर्शन किया जाना चाहिए। आने-जाने के अधिकार को रोका नहीं जा सकता है। विरोध और आने-जाने के अधिकार में संतुलन जरूरी है। गौरतलब है कि दिसंबर 2019 में केंद्र सरकार ने संसद से नागरिकता संशोधन कानून पास किया था जिसके तहत पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले धार्मिक अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने का प्रावधान किया गया। इस कानून को धर्म के आधार पर बांटने वाला बताकर दिल्ली के शाहीन बाग से लेकर देश के कई हिस्सों में प्रदर्शन किए गए। शाहीन बाग में दिसंबर से मार्च तक कोरोना लॉकडाउन लगने तक सड़कों पर प्रदर्शन चला था। इसी मसले पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सार्वजनिक स्थानों और सड़कों पर अनिश्चितकाल तक कब्जा नहीं किया जा सकता है। केवल तय स्थानों पर ही प्रदर्शन होना चाहिए। कोर्ट ने ये भी कहा कि आवागमन का अधिकार अनिश्चितकाल तक रोका नहीं जा सकता। कोर्ट ने कहा कि सार्वजनिक बैठकों पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है लेकिन उन्हें निर्धारित क्षेत्रों में होना चाहिए। संविधान विरोध करने का अधिकार देता है लेकिन इसे समान कर्तव्यों के साथ जोड़ा जाना चाहिए। विरोध के अधिकार को आवागमन के अधिकार के साथ संतुलित करना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में ये भी कहा कि प्रसाशन को रास्ता जाम कर प्रदर्शन कर रहे लोगों को हटाना चाहिए। कोर्ट के आदेश का इंतजार नहीं करना चाहिए।

बात लगभग नौ महीना पुरानी है। जामिया के छात्र नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में सड़कों पर उतर आए थे। छात्रों ने सड़कों पर खूब उत्पात मचाया। स्थिति नियंत्रित करने के लिए पुलिस आई और लाठीचार्ज किया। दिल्ली पुलिस द्वारा जिस तरह छात्रों को मारा गया उसकी खूब आलोचना हुई। कुछ लोगों ने जामिया के छात्रों की सॉलिडेरिटी में धरने पर बैठकर एक अहिंसक आंदोलन की शुरुआत की। धरना जारी रखा जिसका नतीजा ये निकला कि दिल्ली, नोएडा, फरीदाबाद के लोगों को दिक्कत हुई। लोग विरोध में सड़कों पर आए और इसी खोखले विरोध प्रदर्शन को लेकर उत्तर पूर्वी दिल्ली में स्थिति बद से बदतर हुई। दंगे की नौबत आई। लोगों को अपनी जान और माल से हाथ धोना पड़ा। कोरोना वायरस के मामले जैसे एक के बाद एक देश के सामने आए, तो वो लोग जो इस धरने का समर्थन कर रहे थे उन्हें लगा कि अब शायद धरना खत्म कर लोग अपने घरों में लौट जाएंगे लेकिन पुरुष और महिलाएं वहीं उसी टेंट के नीचे सरकार विरोधी नारे लगाते रहे।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह तो बार-बार यह कह ही रहे थे कि भारत के नागरिकों पर (सीएए) या एनआरए का कोई असर ही नहीं होगा। इसके बावजूद शाहीन बाग की दादियाँ टस से मस होने के लिए तैयार नहीं थीं। इनकी जिद तब तो सारी सीमाओं को पार गई जब ये जनता कफ्र्यू (22 मार्च) के आह्वान के समय भी धरना स्थल पर मौजूद थीं। भले ही मात्र दो-चार ही बची थीं प्रधानमंत्री ने कोरोना से लड़ने के लिए जनता कर्फ्यू का आहवान किया था। इन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि दुनिया की करीब दो अरब आबादी पूरी तरह लॉकडाउन में है।

वह अपने घरों के अंदर कैद हैं कोरोना वायरस के बढ़ते खतरे के कारण। पर इन्हें तो इतनी विषय परिस्थिति से भी मानो कोई सरोकार ही नहीं था। यह अच्छा ही हुआ कि प्रधानमंत्री मोदी के पूरे भारत में लॉकडाउन लागू करने की घोषणा से पहले ही शाहीन बाग के धरने को हटा दिया गया। यदि शाहीन बाग में धरने को तमाम अपीलों के समय ही खत्म करने के बारे में फैसला हो जाता तो आंदोलनकारियों की भी इज्जत बच जाती। पर उन्हें अपने मान-सम्मान की कोई परवाह ही नहीं थी। आखिर जब ये नहीं हट रही थीं तो दिल्ली पुलिस ने इस गैर कानूनी धरने को जबरदस्ती हटा दिया। इनके टैंट आदि को पूरी तरह जेसीबी ने उखाड़ दिया और ट्रकों में लादकर ले गये। इस तरह 15 दिसंबर से चले आ रहे धरने का अंत हो गया।

गौर करने वाली बात यह है कि जब धरने को हटाया जा रहा था तब बहुत से स्थानीय लोग पुलिस को उपहार स्वरूप फूल दे रहे थे। वे धरने को खत्म करने का तहेदिल से समर्थन कर रहे थे। याद रखें कि पुलिस को फूल देने वाले ज्यादातर मुस्लिम समाज के ही लोग थे। इन्हें भी अब समझ में आने लगा था कि शाहीन बाग के धरने ने अपनी उपयोगिता खो दी है। यही बात सुप्रीम कोर्ट ने अब कही है।

पुलिस कारवाई को समाज के विभिन्न वर्गों का समर्थन मिला। पर इन आंदोलनकारियों के जिद्दी रवैया के कारण इनसे सब दूर होने लगे थे। माफ करें, पर यह सच है कि शाहीन बाग का मंच तो मुख्य रूप से देश विरोधी शक्तियों को मिलने लगा था। शाहीन बाग के मंच से प्रदर्शनकारियों को जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी छात्र संघ की अध्यक्ष आइशी घोष ने कहा था कि नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ जो लड़ाई चल रही है उसमें हम कश्मीर को पीछे नहीं छोड़ सकते। कश्मीर से ही संविधान में छेड़छाड़ शुरू हुई है। आइशी घोष ने ये बातें कश्मीर के संदर्भ में कही थीं। अब बताइये कि सीएए का कश्मीर से क्या सम्बन्ध है? उनका इशारा जम्मू और कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35 हटाने की ओर था। घोष जब भाषण दे रही थी तब तबीयत से तालियां भी पीटी जा रही थी। उन्हें किसी ने रोका भी नहीं था। क्यों? इसी शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों को संबोधित करते हुए कथित मानवाधिकारवादी हर्ष मंदर ने भी कहा था हमें सुप्रीम कोर्ट या संसद से अब कोई उम्मीद नहीं रह गई है। चंद लोगों को सुप्रीम कोर्ट से भले की कोई उम्मीद न हो लेकिन करोड़ों लोगों को सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा है। (हिफी)

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