सरकार और सुप्रीम कोर्ट आमने-सामने
मंत्री किरण रिजिजू भी संभवतः यही कह रहे हैं कि हमें इस तरह के जज नहीं चाहिए। इस बार सरकार कुछ ज्यादा ही तल्ख दिख रही है
नई दिल्ली। हमारे संविधान ने न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका को तीन स्तम्भ मानकर देश की जिम्मेदारियों का विभाजन किया है। इनमें से कोई भी अगर मनमर्जी पर उतर आता है तो सम्पूर्ण देश की इमारत हिलने लगती है। न्यायपालिका की सबसे बड़ी इकाई सुप्रीम कोर्ट और विधायिका की शीर्ष संस्था केन्द्र सरकार आमने-सामने नजर आ रहे हैं। मामला कॉलेजियम से जजों की नियुक्ति का है। सुप्रीम कोर्ट से भेजी गयी फाइल केन्द्र सरकार ने वापस कर दी और कहा कुछ फाइलों पर फिर से विचार कर लेना चाहिए। इसी प्रकार कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयुक्त की नियुक्ति पर सवाल उठाते हुए सरकार से फाइल तलब की थी। सुप्रीम कोर्ट ने उस समय कहा था कि चुनाव आयोग को टीएन शेषन जैसे मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) की जरूरत है। अब केन्द्रीय विधि मंत्री किरण रिजिजू भी संभवतः यही कह रहे हैं कि हमें इस तरह के जज नहीं चाहिए। इस बार सरकार कुछ ज्यादा ही तल्ख दिख रही है। विधि मंत्री ने हा 'फिर फाइल सरकार को मत भेजिए, आप खुद को नियुक्त करते हैं और आप शो चलाते हैं। कार्यपालिका और न्यायपालिका को मिलकर काम करना चाहिए।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार के बीच तल्खी बढ़ती जा रही है। केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू कॉलेजियम को पहले ही एलियन बता चुके हैं। अब कानून मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्ति की सिफारिश के साथ भेजी गई फाइलों को लौटा दिया है। मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम से 10 फाइलों पर दोबारा विचार करने को कहा है। कोर्ट ने मंत्रालय को कुछ फाइलें भेजी थीं, जो जजों की नियुक्ति से संबंधित थीं। लौटाई गई फाइलों में वकील सौरभ किरपाल की भी फाइल है, जो खुद के समलैंगिक होने के बारे में बता चुके हैं। इस महीने की शुरुआत में ही एक इंटरव्यू में वकील सौरभ किरपाल ने कहा था कि उनका मानना है कि उनके समलैंगिक होने के कारण उनके प्रमोशन को तिरस्कार के साथ देखा गया। लगभग 50 वर्षीय किरपाल ने बताया, इसका कारण मेरी कामुकता है, मुझे नहीं लगता कि सरकार खुले तौर पर समलैंगिक व्यक्ति को बेंच में नियुक्त करना चाहती है। कम से कम 2017 से उनकी पदोन्नति रुकी हुई थी। सौरभ किरपाल देश के पूर्व प्रधान न्यायाधीश बीएन किरपाल के बेटे हैं।
उधर, नियुक्ति प्रक्रिया के जानकार सूत्रों ने कहा कि केंद्र सरकार ने सिफारिश किए गए नामों पर कड़ी आपत्ति जताई और बीते 25 नवंबर को फाइलें कॉलेजियम को वापस कर दीं। सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस एनवी रमणा की अगुवाई वाली कॉलेजियम ने वकील सौरभ किरपाल की दिल्ली हाई कोर्ट में जज के तौर पर नियुक्ति की सिफारिश की थी। सुप्रीम कोर्ट ने जजों की नियुक्ति की देरी पर नाराजगी जाहिर की। कोर्ट ने देरी पर कहा कि यह नियुक्ति के तरीके को प्रभावी रूप से विफल करता है। कोर्ट ने कहा कि जजों की बेंच ने जो समय-सीमा तय की थी उसका पालन करना होगा। जस्टिस एसके कौल और जस्टिस एएस ओका की बेंच ने यह भी कहा कि, "ऐसा लगता है कि केंद्र इस सच्चाई से नाखुश है कि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) अधिनियम को मंजूरी नहीं मिली। कोर्ट ने कहा, लेकिन यह देश के कानून के शासन को नहीं मानने की वजह नहीं हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने 2015 के अपने फैसले में एनजेएसी अधिनियम और संविधान (99वां संशोधन) अधिनियम, 2014 को रद्द कर दिया था, जिससे सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति करने वाली जजों की मौजूदा कॉलेजियम सिस्टम बहाल हो गई थी। जस्टिस कौल ने कहा कि कई बार कानून को मंजूरी मिल जाती है और कई बार नहीं मिलती। उन्होंने कहा, यह देश के कानून के शासन को नहीं मानने की वजह नहीं हो सकती।" बेंच ने कहा कि कुछ नाम डेढ़ साल से सरकार के पास लंबित हैं। कभी सिफारिशों में सिर्फ एक नाम चुना जाता है। कोर्ट ने कहा, आप नियुक्ति के तरीके को प्रभावी ढंग से विफल कर रहे हैं।
केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम को एलियन बताया था। उन्होंने कहा था कि सरकार कॉलिजियम सिस्टम का तबतक सम्मान करती है, जब तक किसी और सिस्टम से इसे रिप्लेस नहीं किया जाता। कानून मंत्री ने यह भी कहा था कि कॉलेजियम में खामियां हैं और यह ट्रांसपेरेंट नहीं है। उन्होंने कहा कि "फिर फाइल सरकार को मत भेजिए। आप खुद को नियुक्त करते हैं और आप शो चलाते हैं, सिस्टम काम नहीं करता है। कार्यपालिका और न्यायपालिका को मिलकर काम करना होगा।" कोर्ट ने कहा कि एक बार कॉलेजियम ने किसी नाम का सुझाव दिया तो बात वहीं खत्म हो जाती है। ऐसी कोई स्थिति नहीं बननी चाहिए जहां हम नाम सुझा रहे हैं और सरकार उन नामों पर कुंडली मारकर बैठ गई है। ऐसा करने से पूरा सिस्टम फ्रस्ट्रेट होता है।
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को आदेश दिया था कि वह 19 नवंबर को नियुक्त किए गए चुनाव आयुक्त अरुण गोयल की नियुक्ति की फाइल पेश करे। इसके लिए 24 नवंबर तक का समय दिया गया था। कोर्ट ने अटॉर्नी जनरल (एजी) वेंकटरमणी से कहा कि हम यह जानना चाहते हैं कि उनकी अपॉइंटमेंट में क्या प्रक्रिया अपनाई गई। कहीं कोई हंकी पैंकी (हेरफेर) तो नहीं की गई। अगर नियुक्ति नियमानुसार हुई है तो इसमें परेशान होने वाली कोई बात नहीं है। दरअसल, आईएएस अरुण गोयल ने हाल ही में वीआरएस लिया है। इसे लेकर सीनियर एडवोकेट प्रशांत भूषण ने एक याचिका दायर की थी। गोयल की नियुक्ति से संबंधित फाइल को देखने की कोर्ट की इच्छा पर अटार्नी जनरल आर वेंकटरमणि ने आपत्ति जताई, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आपत्ति खारिज कर दी। वेंकटरमणि ने कहा कि कोर्ट चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) की नियुक्ति के बड़े मुद्दे को सुन रहा है। ऐसे में वह प्रशांत भूषण द्वारा उठाए गए एक व्यक्तिगत मामले को नहीं देख सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने देश के मुख्य चुनाव आयुक्त, यानी सीईसी की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर सरकार को फटकार लगाई थी। कोर्ट ने कहा कि 1990 से 1996 के बीच सीईसी रहे टीएन शेषन के बाद किसी भी मुख्य चुनाव आयुक्त को अपने पूरे कार्यकाल का मौका नहीं मिला। क्या ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सरकार को सीईसी बनाए जाने वाले व्यक्ति के जन्म की तारीख पता होती है? वर्तमान सरकार के समय ही नहीं, यूपीए की सरकार के समय भी होता आया है। चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को लेकर दाखिल याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस केएम जोसेफ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की बेंच ने यह बात कही। कोर्ट ने कहा कि इस बारे में संवैधानिक चुप्पी का फायदा उठाया जा रहा है, जो सही नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि संविधान में चीफ इलेक्शन कमिश्नर (सीईसी) और दो इलेक्शन कमिश्नरों (ईसी) के कंधों पर महत्वपूर्ण शक्तियों का भार है। इन जिम्मेदार पदों पर नियुक्ति के समय चुनाव निष्पक्ष और पारदर्शी प्रक्रिया अपनाई जाना चाहिए, ताकि बेस्ट पर्सन ही इस पद पर पहुंचे। यह बहुत अहम हो जाता है कि आखिर बेस्ट अधिकारी का सिलेक्शन और उसकी नियुक्ति कैसे की जाती है। इस पर एजी ने कोर्ट से कहा कि इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती। केंद्र सरकार भी बेस्ट पर्सन की नियुक्ति का विरोध नहीं करती, लेकिन सवाल यह है कि ऐसा कैसे होगा? बेंच ने कहा कि संविधान में बताई प्रक्रिया के तहत इलेक्शन कमिश्नर की नियुक्ति नहीं होने का परिणाम अच्छा नहीं होता। इस प्रकार देश के संविधान के दो प्रमुख स्तम्भ आमने-सामने खड़े हो गये हैं। (हिफी)