किसान आज भी वहीं खडा है जहां मुंशी प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में छोड़ा था

किसान आन्दोलन से जोड़कर देखा जा रहा है, क्योंकि किसान आज भी वहीं है जहां उन्होंने अपनी कहानियों में उसे छोडा था।

Update: 2021-07-29 04:59 GMT

गोरखपर। प्रख्यात साहित्यकार एवं कथाकार मुंशी प्रेमचंद की जयंती पर उन्हें विशेष रूप से याद करते हुए फिर से किसान आन्दोलन से जोड़कर देखा जा रहा है, क्योंकि किसान आज भी वहीं है जहां उन्होंने अपनी कहानियों में उसे छोडा था।

भारतीय किसानों को साहित्य के प्रतिविम्ब पर खड़ा करने वाले मुंशी प्रेमचंद की प्रासंगिकता मौजूदा समय में और बढ़ गयी है। आज की परिस्थिति में किसान वहीं खडा हुआ है जहां मुंशी प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में छोड़ा था।

समाज की बारिकियों को अपनी कलाजयी कृतियों में बेहद खूबसूरती से पिरोने वाले कथाकार-उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद के विचारों की प्रासंगिकता से शायद ही कोई इंकार कर सकता है। दुखद पहलू यह है कि प्रासंगिकता होने के बावजूद भी कृतियां नयी पीढ़ी तक नहीं पहुंच पा रही हैं। अध्ययन के दायरे में आने वाले कहानियों और उपन्यासों को तो नयी पीढ़ी जरूरत समझकर पढ़ ले रही है लेकिन उनकी अन्य मशहूर कृतियों को पढ़नेकी जदोजहद इन युवाओं में नहीं दिख रही है।

मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 जन्म वाराणसी से चार मील दूर लमही गांव में हुआ था। उनका असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। उनकी शिक्षा का आरंभ उर्दू, फ़ारसी पढ़ने से हुआ। उन्होंने 1898 में मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद वह एक स्थानिक पाठशाला में अध्यापक नियुक्त हो गए। वर्ष 1910 में वह इंटर और 1919 में बी.ए. पास करने के बाद स्कूलों के डिप्टी सब-इंस्पेक्टर नियुक्त हुए। प्रख्यात साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद का बचपन और आधा रचना संसार पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर की धरती से जुड़ी है।

प्रेमचंद अपने बाल्यजीवन में अपने पिता के साथ गोरखपुर और बस्ती में रहे तथा फिर अपने कहानी के लेखन की शुरूआत भी यहीं से किया। उन्होंने कहानियों में रूढीवादिता को समाप्त कर उसे बागी तेवर दिया। वह अपनी अंतिम कहानी कसन को जहां छोडा था, वहीं से फिर प्रगतिशील आन्दोलन का आरम्भ होता है। उन्होंने बहुत से उपन्यास रंगभूमि, सेवा सदन और प्रेम आश्रय आदि कहानियां गोरखपुर में लिखी इसीलिए उनका इस क्षेत्र से विशेष जुडाव था।

प्रेमचंद जहां निवास करते थे वह स्थान अब यहां प्रेम चन्द पार्क बन गया है ,जहां पर उनके पुण्य तिथि और जन्मदिन पर साहित्यकारों द्वारा विभिन्न तरह के आयोजन करके उन्हें याद किया जाता है।

मुंशी प्रेमचंद को गोरखपुर छोडे एक सदी बीत गयी, लेकिन उनके उपन्यास और कहानियों में जिस गोरखपुर की झलक मिलती है वह आज भी कहीं न कहीं इस क्षेत्र में मौजूद है, क्योंकि इस क्षेत्र का जितना औद्योगिक विकास तेजी से होना चाहिए था शायद नहीं हो सका।

प्रेमचंद जमीन से जुड़े थे और अपने लेखन कार्य के दूसरे पडाव की अधिकतर कहानियां गोरखपुर में लिखी और यहीं से उनका आदर्शवाद यथार्थवाद में बदल गया इसीलिए इस क्षेत्र से उनका जुडाव महत्वपूर्ण माना जाता है।

आठ अक्तूबर 1936 को उनके निधन के बाद इस अंचल में मौजूद गरीबी, पिछडापन और किसानों एवं नौजवानों की समस्याओं को साहित्य में मुखर करने वाला उनके जैसा साहित्याकार कोई दूसरा अभी तक पैदा नहीं हुआ।

प्रेमचंद के उपन्यासों में वरदान प्रतिज्ञा, सेवा सदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रगभूमि कर्मभूमि, गोदान, मनोरमा और कहानियों में उनके कुल 21 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए जिसमें 300 से अधिक कहानियां समाहित रही। प्रमुख कहानी संग्रहों में नमक का दरोग़ा, प्रेम पचीसी, सोज़े वतन, प्रेत प्रतिमा,प्रेम तीर्थ, प्रेम तिथि, प्रेम चतुर्थी, सप्त सुमन, प्रेम प्रतिज्ञा, प्रेम पंचती, प्रेरणा, समर यात्रा और नवजीवनपाँच फूल, सप्त सुमन ; बालसाहित्य: कुत्ते की कहानी, जंगल की कहानियां आदि शामिल हैं। इसके अलावा नाटक में संग्राम, कर्थला, प्रेम की वेदी तथा जीवनियों में महात्मा शेख सादी, दुर्गादास, कलम,तलवार और त्याग शामिल है।

गोरखपुर के जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान का अतीत हिन्दी एवं उर्दू के महान्तम साहित्यकारों में शामिल मुंशी प्रेमचंद की यादों से गहरायी से जुडा है। उनकी यादों को संजोने के लिए यहां उनके नाम से संग्रहालय भी स्थापित किया गया था लेकिन आम नागरिक और साहित्य प्रेमी के अभाव के कारण आज अच्छी स्थिति में नहीं है। हालांकि प्रेमचंद साहित्य संस्थान द्वारा इसे सहेजने का पूरा प्रयास किया जा रहा है,लेकिन आर्थिक विपन्नताओं के कारण स्थिति जस की तस है। इस सम्बंध में बहुत सारे सांस्कृतिक कर्मी, साहित्यार और नाटयकर्मी विशेष तौर से पूर्वी उत्तर प्रदेश में उनकी जयंती के क्रम में पुन: स्मरण कर रहे हैं।


वार्ता

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