चुनौती के मुकाबले का था जज्बा- साँस्कृतिक राष्ट्रवाद की प्रेरणा
स्वतन्त्रता संग्राम में अनेक सेनानियों ने संस्कृतिक राष्ट्रवाद की अलख जगाई थी
नई दिल्ली। स्वतन्त्रता संग्राम में अनेक सेनानियों ने संस्कृतिक राष्ट्रवाद की अलख जगाई थी। इनका मानना था कि भारत कभी विश्वगुरु था। सांस्कृतिक रूप में बहुत समृद्ध था। किंतु राष्ट्रीय स्वाभिमान का विचार कमजोर पड़ने से देश कमजोर हुआ। इसका लाभ विदेशी आक्रांताओं ने उठाया। इसलिए स्वतन्त्रता के साथ ही सांस्कृतिक स्वाभिमान को जागृत करना भी अपरिहार्य है। महामना मदन मोहन मालवीय ने बनारस में विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। उसके नाम में हिन्दू शब्द को जोड़ा। यह साम्प्रदायिक विचार नहीं था। बल्कि इसके माध्यम से ब्रिटिश सभ्यता शिक्षा की चुनौती के मुकाबले का जज्बा था। भारत रत्न महामना मदन मोहन मालवीय का राष्ट्रीय चिंतन व्यापक था। वह देश की स्वतन्त्र कराने के साथ ही शक्तिशाली भारत का निर्माण चाहते थे। उनका जीवन इन्हीं विचारों के प्रति समर्पित रहा। वह उन महापुरुषों में शामिल थे जो भारत की परतंत्रता के मूल कारण पर गहन विचार करते थे। भारत कभी विश्वगुरु था। लोग यहां ज्ञान प्राप्त करने आते थे। लेकिन ऐसा भी समय आया जब विदेशी आक्रांताओं ने यहां अपना शासन स्थापित किया। राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना कमजोर पड़ने से देश कमजोर हुआ था। यह बात उन्हें उद्वेलित करती थी। वह कांग्रेस में रहकर देश को स्वतन्त्र करने के लिए संघर्ष चला रहे थे। काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के माध्यम से वह राष्ट्रीय चेतना का संचार करना चाहते थे। मालवीय जी व्यक्ति का समग्र विकास चाहते थे। इसीलिए वे शिक्षा के साथ साथ स्वास्थ्य को भी आवश्यक मानते थे। वे सभी विद्यार्थियों को इसके लिए प्रेरित करते थे। मालवीय जी का प्रताप था कि बीएचयू के चार लोगों को भारत रत्न मिला। नरेंद्र मोदी सरकार ने महामना को भारत रत्न दिया था। महामना होने के भाव उनके आचरण से परिलक्षित था। छोटे मन का व्यक्ति कभी आध्यात्मिक नहीं हो सकता। महामना ही उदार होता है।
महामना भारत में प्राचीन चिंतन और आधुनिक विज्ञान के बीच समन्वय चाहते थे। मालवीय जी ने बाई इंडियन का नारा दिया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उस भावना से प्रेरित होकर मेक इन इंडिया अभियान चला रहे हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के छठे दशक में महात्मा गांधी स्वामी विवेकानन्द और महामना मालवीय जी इन तीनों का प्रादुर्भाव हुआ। तीनों ने विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाई। भारत की आध्यात्मिक शक्ति को जगाया। महामना राजनीतिक विविधता के बावजूद सबके लिए सम्मानित थे। उनमें दूरदृष्टि लोक जागरण की ऊर्जा संपादक जैसे अनेक गुण थे। वे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। राजनीतिक विचार के बावजूद उनका आधार आध्यात्मिक था। सामाजिक समरसता के लिए वे समर्पित थे।
परतंत्रता के समय ही भारतीय जनमानस में गांधी जी को महात्मा, तिलक को लोकमान्य, मालवीय जी को महामना की उपाधि मिल चुकी थी। महामना को भारतरत्न देकर मोदी सरकार ने साबित किया कि वह रत्नों की पारखी है। मदन मोहन मालवीय का जन्म 25 दिसम्बर 1861 को प्रयागराज में हुआ था। इनके पिता पं ब्रजनाथ व माता का नाम मूनादेवी था। यह परिवार मूलतः मालवा के थे। वहां से वह प्रयागराज आकर बस गए थे। पं ब्रजनाथ श्रीमद्भागवत की कथा सुनाकर परिवार का भरण पोषण किया करते थे। वह आध्यात्मिक ग्रन्थों व संस्कृत के विद्वान थे। मदन मोहन मालवीय ने बचपन से परिवार में धार्मिक माहौल देखा। उनकी भी संस्कृत व धर्म ग्रन्थों में रुचि थी। इसको देखते हुए उनके पिता ने उन्हें पं. हरदेव जी की पाठशाला में प्रवेश दिला दिया। उनकी प्राइमरी परीक्षा यहीं पूरी हुई।
इसके बाद उन्होंने म्योर सेण्ट्रल कॉलेज से दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। वह होनहार थे। उन्हें छात्रवृत्ति मिलने लगी। इसके बाद उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक किया। लेकिन इसके बाद परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण वह संस्कृत में स्नातकोत्तर नहीं कर सके। कॉंग्रेस की स्थापना के बाद दूसरा अधिवेशन कलकत्ता में हुआ था। मदन मोहन मालवीय इसमें शामिल हुए। यहां से उनका सार्वजनिक प्रारंभ हुआ। उन्होंने विधि स्नातक किया। इलाहाबाद में वकालत प्रारंभ की। मदन मोहन मालवीय 1909 और 1918 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने। उन्होंने 1916 के लखनऊ समझौते के तहत मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मंडलों का विरोध किया। इसके पहले वह इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल के सदस्य बने थे। इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली के रूप में परिवर्तित किया गया था। मदन मोहन मालवीय 1926 तक इसके सदस्य बने रहे। असहयोग आंदोलन में उन्होंने सक्रिय योगदान दिया। किंतु कॉंग्रेस के खिलाफत आंदोलन का उन्होंने विरोध किया। साइमन कमीशन के विरोध में उन्होंने मोर्चा लिया। सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी उन्होंने सक्रिय भूमिका का निर्वाह किया। 1932 में सरोजनी नायडू के बाद वह दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष बने थे। इसके अगले वर्ष कलकत्ता अधिवेशन में वह पुनः कांग्रेस के अध्यक्ष बने। स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान चार बार कॉंग्रेस अध्यक्ष बनने वाले वह एकमात्र नेता थे। कम्युनल अवार्ड के विरोध में उन्होंने कॉंग्रेस से त्यागपत्र दे दिया था। उन्होंने कांग्रेस राष्ट्रवादी पार्टी बनाई थी। इस पार्टी ने केंद्रीय विधायिका के चुनाव में बारह सीटें मिली थीं।
महामना मदन मोहन मालवीय का जीवन साधारण था। लेकिन इस सहज समान्य तरीके से उन्होंने असाधारण कार्य किए। उन्होंने अपने आचरण से प्रमाणित किया कि समाज के लिए भिक्षावृत्ति आध्यात्मिक कार्य है। महामना समाज की शक्ति को समझते थे। आज उनके विचारों से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है। वह मजबूत समाज का निर्माण चाहते थे। इसके लिए आजीवन प्रयास करते रहे। आज भी वैचारिक संघर्ष को समझने की आवश्यकता हैं। महामना युग दृष्टा थे। उन्होंने परतंत्रता के समय इस तथ्य को समझा था। वही समाज को इसके अनुरूप प्रेरणा देते रहे। वह करीब आधी शताब्दी तक कांग्रेस में सक्रिय रहे। दो बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने। चार बार केंद्रीय विधान परिषद के सदस्य रहे। यहां रहकर वह ब्रिटिश शासन को कठघरे में खड़ा करते रहे। एक बार वह बिना कोई कागज लिए चार घण्टे तक बोलते रहे। वह निर्भय होकर विचार यात्रा पर चलते रहे। कांग्रेस में सक्रिय रहते हुए भी क्रान्तिकारियों को बचाने में लगे रहे। ब्रिटिश निरंकुश तंत्र का वह सदैव विरोध करते रहे। करीब डेढ़ सौ क्रान्तिकारियों को इलाहाबाद हाई कोर्ट से बरी कराया। वह मानते थे कि क्रांतिकारी देशभक्त हैं। भगत सिंह की सजा रोकने के लिए उन्होंने वायसराय को पत्र लिखा। वह कांग्रेस के अन्य नेताओं से अलग दिखाई देते थे। कांग्रेस के नेता क्रान्तिकारियों पर मौन रहते थे। महामना क्रान्तिकारियों की पैरवी करते थे। हिन्दू संस्कृति में उदारता है। इसको संस्था मे सीमित नहीं किया। यहां तक कि प्रभु श्री राम और श्रीकृष्ण ने भी कोई संस्था नहीं बनाई। यहां ज्ञान की कोई सीमा नहीं हैं। कोई दायरा या सीमा में विचारों को सीमित नहीं किया गया। महामना जैसे लोग ऐसी ही जीवन पद्धति में उभरते हैं। (हिफी)