अब गिलानियों के लिए नहीं है जगह

कश्मीर को अलग करने का सपना देखने वाले सैयद अली शाह गिलानी को उन्ही की पार्टी के लोगों ने नकार दिया।

Update: 2020-07-04 13:30 GMT

लखनऊ। भारत का स्वर्ग अब सृजनात्मक युवाओं को अपना दुलार दे रहा है और सैयद अली शाह गिलानी जैसे नेताओं के लिए वहां कोई जगह नहीं है। कश्मीर अब अलगाववाद को भूलना चाहता है और भारत की मुख्य धारा के साथ चल रहा है। इसीलिए कश्मीर को अलग करने का सपना देखने वाले सैयद अली शाह गिलानी को उन्ही की पार्टी के लोगों ने नकार दिया। इतना ही नहीं अब वहां आतंकवादियों को भी पनाह नहीं मिल रही है। इसी वर्ष अर्थात् मात्र 6 महीने के अंदर सुरक्षा बलों ने 118 आतंकियों को ढेर कर दिया है और लश्कर, जैश, हिजबुल मुजाहिद्दीन के लगभग एक दर्जन आतंकी कभी भी ढेर हो सकते हैं क्योंकि वे सुरक्षा बलों के टारगेट पर हैं। कश्मीर के आईजी विजय कुमार ने गत 1 जुलाई को 12 आतंकवादियों की सूची जारी की है। जम्मू-कश्मीर में अब सुखद बदलाव महसूस किया जा रहा है। इसी का नतीजा रहा कि सैयद अली शाह गिलानी जैसे नेताओं को अपनी पार्टी से इस्तीफा देना पड़ रहा है क्योंकि उनके बहकावे में कश्मीर के लोग नहीं आ रहे हैं।

कश्मीर के आईजी विजय कुमार ने कहा कि अब हमारे पास 12 टाॅप आतंकियों की सूची है। इसमें जैश के लंबू उर्फ अदनान भाई, वालिद भाई, जागी रशिद (इसे हाल में पाकिस्तान से भेजा गया) है। वहीं, लश्कर के उस्मान भाई, सोपोरा का साजिद, शोपिया का इश्फाक, बडगाम का युसूफ और नासिर शामिल हैं। आईजी विजय कुमार ने कहा कि लिस्ट में हिज्बुल के चार आतंकी शामिल हैं, इनके नाम डाॅ. सैफुल्लाह चीफ, फरूक अली, अशरफ मौलवी और जुबैर वाणी हैं। विजय कुमार ने कहा कि कश्मीर में पिछले छह महीने में करीब 118 आतंकी मार गिराए हैं। 57 हिज्बुल मुजाहिद्दीन के थे। इस दौरान टाॅप कमांडर रियाज नाइकू भी मारा गया था। हमारा अब टारगेट जैश-ए-मोहम्मद है। उसके टाॅम आतंकी महारी लिस्ट में हैं। लश्कर-ए-तैयबा के भी कई आतंकी हमारे निशाने पर हैं। विजय कुमार ने कहा कि डाटा बताता है कि आतंकियों की भर्ती में 40 प्रतिशत की गिरावट आई है। पिछले छह महीने में जब्त करने वाले हथियारों में 45 प्रतिशत पिस्टल है। कुल 121 हथियार बरामद किए गए हैं। ये दर्शाता है कि उनका उद्देश्य भीड़ वाले इलाके में घुसकर आतंक फैलाना था।

कश्मीर में नया वातावरण सृजित करने के लिए ही उदारवादी राजनीति में माहिर भाजपा के नेता सत्य पाल मलिक को जो जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल बनाकर भेजा गया था, उस समय अनुच्छेद 370 प्रभावी था। राज्यपाल ने मीडिया को दिये साक्षात्कार में कहा था कि मैंने अब तक किताबों में जो पढ़ा और वहां के नेताओं के बयान सुने, कश्मीर उससे काफी अलग हटकर दिखा। सत्यपाल मलिक की बात में बहुत दम है क्योंकि कश्मीर को वहां के नेताओं ने भी ठीक से समझने का प्रयास नहीं किया। वहां की अलगाववादी पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस का लम्बे समय से नेतृत्व करने वाले सैयद अली शाह गिलानी ने भी हुर्रियत कांफ्रेंस से इस्तीफा दे दिया है। गिलानी इस पार्टी की स्थापना करने वालों में शामिल थे। अपनी स्थापना के समय से ही हुर्रियत कांफ्रेंस कश्मीर की आजादी के लिए काम करती रही है। अब तो वहां के हालात काफी बदल गये हैं। जम्मू-कश्मीर को केन्द्रशासित राज्य बना दिया गया है जहां की दिल्ली की तरह विधान सभा होगी। यहां का उपराज्यपाल केन्द्र सरकार के गृहमंत्रालय के अधीन काम करेगा। इसके साथ ही लद्दाख क्षेत्र को जम्मू-कश्मीर से बिल्कुल अलग करके उसे भी केन्द्र शासित राज्य बना दिया गया हे। इस राज्य की अपनी विधान सभा नहीं होगी अर्थात इसका स्वरूप केन्द्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ जैसा होगा। जम्मू-कश्मीर की विधान सभा के चुनाव कब होंगे, अभी तय नहीं है लेकिन हुर्रियत कांफ्रेस से सैयद अली शाह गिलानी के इस्तीफे को वहां की राजनीति में एक बड़े बदलाव के रूप में देखा जा रहा है।

कश्मीर से जुड़े कई अलग-अलग सामाजिक व धार्मिक संगठनों ने हुर्रियत कांफ्रेंस की स्थापना 9 मार्च 1993 को की थी लेकिन राजनीति का वायरस इतनी तेजी से फैलता है कि हुर्रियत कांफ्रेंस भी सियासत के दलदल में फंस गयी। समाज को राह दिखाने की जगह उन्हें आजादी के सपने में भटकाने लगी। पूर्व राज्यपाल सत्य पाल मलिक ने बिल्कुल सही कहा था कि वहां के नेताओं ने युवाओं को गुमराह किया है। युवाओं में बहुत ऊर्जा है, वे प्रदेश के विकास में महत्वपूर्ण भुमिका निभा सकते हैं लेकिन कश्मीर के नेताओं ने युवाओं को भटकाव का रास्ता दिखा दिया। आल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस की स्थापना में सैयद अली शाह गिलानी की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। गिलानी के साथ ही मीरवाइज उमर फारूक अब्दुल गनी लोन, मौलवी अब्वास अंसारी और अब्दुल गनी भट्ट ने भी इस संगठन को बनाने में योगदान किया था। कांफ्रेंस के पहले चेयरमैंन वरिष्ठता के क्रम में मीर वाइज उमर फारूक को बनाया गया था। वे 1997 में इस पद पर सैय्यद अली शाह गिलानी विराजमान हुए जिन्होंने 23 साल बाद हुर्रियत कांफ्रेंस से इस्तीफा दिया है।

हमने जैसा पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक के माध्यम से बताया कि कश्मीर में वहां के नेताओं ने युवाओं को सृजनात्मक कार्य की जगह विध्वंस के कार्य सिखाए और आजाद कश्मीर का ख्वाब दिखाया जबकि वे स्वयं जानते थे कि ऐसा संभव नहीं है। इसके लिए कश्मीर के अलगाव वादी नेताओं ने पाकिस्तान का सहारा लिया। पाकिस्तान के नेताओं ने साफ-साफ कह दिया कि कश्मीर पाकिस्तान का एक हिस्सा बन कर रहेगा। इसके बाद ही वहां के युवाओं को भी समझ में आने लगा कि अलगाववादियों के साथ रहना ठीक नहीं है। हुर्रियत के प्रति भी कश्मीरी जनता की भावना बदली और इसी के चलते हुर्रियत में भी धीरे-धीरे टकराव होने लगा। हुर्रियत कांफ्रेंस दो हिस्सों में बॅट गयी। मीरवाइज उमर फारूक अलग हो गये जबकि मिलानी के गुट ने अलग रास्ता पकड़ लिया। मीरवाइज के गुट को माॅडरेट हुर्रियत कांफ्रेंस कहा जाने लगा जबकि दूसरी तरफ सैयद अली शाह गिलानी ने अपने संगठन तहरीर ए-हुर्रियत को कांफ्रेंस का नाम दिया। सैयद अली शाह गिलानी जिस हुर्रियत कांफ्रेंस के चेयर मैन पद पर विराजमान थे। वास्तव में, उसकी स्थापना 7 अगस्त 2004 को हुई थी। इस संगठन से काफी लोग जुड़े थे। बताया जाता है कि तहरीक-ए-हुर्रियत जम्मू-कश्मीर के 7 अगस्त 2005 को पहले स्थापना दिवस पर श्रीनगर के हैदरपुरा में एक लाख से ज्यादा लोग इकट्ठा हुए थे। इस प्रकार युवाओं की यह पसंदीदा पार्टी बन गयी थी।

हुर्रियत कांफ्रेस में कई संगठनों के लोग शामिल थे। इसमें मुस्लिमलीग के मशर्रत आलम भट्ट थे तो मुस्लिम कांफ्रेंस के नेता गुलाम नबी सिमजे शामिल थे। इसी तरह तहरीक-ए-वहादत के मुहम्मद साजिद, खवातीन मरकज की जमसडा हबीब, डेमोक्रेटिक पाॅलिटिकल मूवमेंट के मुहम्मद शफी रजी, जम्मू एवं कश्मीर फ्रीडम लीड के मुहम्मद रफीक गनी, जम्मू एवं कश्मीर इम्प्लाई फ्रंट के मुहम्मद शफी लोन, जम्मू एवं कश्मीर पीपुलस लीग के गुलाम मुहम्मद खान, तहरीक ए हुर्रियत जम्मू-कश्मीर के अल्ताफ अहमद शाह और जम्मू एवं कश्मीर कास मूवमेंट के फरीद बहनजी कार्यकारी सदस्य थे। इन 10 सदस्यों में अलावा सैयद अली शाह गिलानी चेयर मैन थे जिनकी अपनी तहरीक ए हुर्रियत के नाम से जमात थी। गिलानी हमेशा आरोपों में घिरे रहे और दिल्ली सरकार की मलाई खाते-खाते वे जनता की भावनाओं को भूल गये थे। इसाीलिए उनके इस्तीफा देने पर उनके समर्थन मंे कोई नहीं खड़ा हुआ। हुर्रियत कांफ्रेंस में भी उनकी कोई बात नहीं मानता था। कश्मीर के युवा अब सच्चाई को समझ गये। अगस्त 1962 में, जब उनकी उम्र 30 साल रही होगी, तब अलगाववाद की आग भड़काने के आरोप में गिलानी को जेल भेज दिया था। जेल में रहने के दौरान ही उनके पिता का निधन हो गया था। पाकिस्तान से खुफिया रिश्तों के लिए भी गिलानी को जेल भेजा गया था। गिलानी ही नहीं, बल्कि जम्मू-कश्मीर मंे जनता ने अलगाववादी और आतंकवादियों को समर्थन देना बंद कर दिया है। यही कारण रहा कि सौ से अधिक दहशतगर्द मारे गये हैं। 

(अशोक त्रिपाठी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

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