हमारे दृष्टिकोण में बदलाव की जरूरत

हम बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं लेकिन जब उन पर अमल की जरूरत आती है, तब बगलें झांकने लगते हैं।

Update: 2020-11-09 02:41 GMT

नई दिल्ली। हम बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं लेकिन जब उन पर अमल की जरूरत आती है, तब बगलें झांकने लगते हैं। इस प्रकार कथनी और करनी, सिद्धांत और व्यवहार में अंतर रहता है। सुविधा के अनुसार अपना बचाव भी कर लेते हैं। हमारे परिचितों में एक डाक्टर साहब हैं। संघ से जुड़े हुए हैं। संघ को मैं एक अच्छा सामाजिक संगठन मानता हूं। लोगों को अच्छा आचरण सिखाता है। जाति और ऊंच- नीच के भेदभाव को नहीं माना जाता। मोटे रूप से संघ के बारे में मेरी यह जानकारी है। डाक्टर साहब ने एक दिन बातों ही बातों में कहा, मैं ठाकुर हूं और अपनी बेटी की शादी ठाकुरों में ही करूंगा। उनकी बात सुनकर मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। दरअसल, हमारे व्यावहारिक जीवन की यही सच्चाई है। बेटे और बेटी में समानता की बात सभी करते हैं लेकिन हर युवती की शादी के बाद चाहत यही रहती है कि वो बेटे की मां बने। इसके बाद भले ही बेटी को दूसरा स्थान दे दे। इसी तरह जाति और धर्म का मामला है। एक हिन्दू होने के नाते मेरा यह निजी अनुभव है कि इस धर्म को मानने वाले अधिसंख्य उदार भाव के हैं। उनके धर्म की कोई आलोचना करे तब भी फर्क नहीं पड़ता। फ्रांस में यदि शिक्षक ने मोहम्मद साहब के कार्टून की जगह हिन्दुओं के भगवान का कार्टून बनाया होता तो जरा भी हलचल न होती। हालांकि ऐसी उदासीनता भी ठीक नहीं है। हमारे दृष्टिकोण में व्यावहारिकता होनी चाहिए। गलत और सही बात को हम निर्भीक होकर कह सकें। हाल ही में दो तीन घटनाएं ऐसी हुई हैं, जहां दृष्टिकोण सैद्धांतिक दिखाई पड़ता है।

उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद की एक घटना है। सफाई कर्मचारी के बाल काटने से इनकार करने पर वाल्मीकि समाज में आक्रोश पैदा हो गया।मीडिया ने भी इसे छुआ छूत की बीमारी बता दिया जबकि मामला स्वच्छता से जुडा था। अलग- अलग धर्मो से जुड़े लोगों के बीच विवाद हुआ, इसलिए कड़ी कार्रवाई की मांग भी कर दी गयी। एक तरफ जहां वाल्मीकि समाज इस बात से नाराज है कि सैलून ने दुकान में आकर बाल काटने से सख्त इनकार कर दिया है तो दूसरी तरफ सैलून का कहना है कि नाले की सफाई के चलते नहा कर आने को बोला था फिर बाल काट देते। सही कोई भी पक्ष हो, लेकिन लोगों की सोच में इस बीमारी ने अभी तक घर बनाया हुआ है। हम समाज में अगर सद्भाव बनाकर रहते हैं। हमारा जीवन आस-पास के लोगों पर और उनका हमपर निर्भर करता है। हर व्यक्ति यहां एक अहम किरदार निभाता है। मतलब जितनी जरूरत हमें डॉक्टर और पुलिस की है, उतनी ही सफाई कर्मचारियों की भी। उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में पाकबड़ा थाना इलाके में वाल्मीकि समाज ने सैलून के एक बार्बर पर एक सफाई कर्मचारी के बाल काटने से इनकार कर देने का आरोप लगाया है। इस बात से आक्रोशित वाल्मीकि समाज के लोग थाने पहुंच गए और उन्होंने बार्बर के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने की मांग की। वहीं ,बार्बर मोहम्मद शानू और भाई सज्जाद का कहना है कि ऊंच-नीच की कोई बात नहीं है, बल्कि सफाई कर्मचारी नाले की सफाई करने के बाद सीधे बाल कटवाने आ गया था। इसलिए उससे यह कहा गया कि साफ होकर आ जाओ तो बाल काट देंगे। सैलून पहले भी उनको ग्राहकसेवा देता था और आगे भी देगा लेकिन सफाई कर्मचारी का साफ कहना है कि उसे यह कह कर मना कर दिया गया कि बाकी ग्राहकों को यह पसंद नहीं है। आस-पास के समाज के लोग मना करते हैं कि यहां वाल्मीकि समाज के लोगों के बाल न काटे जाएं। इस पर दलित समाज का कहना है कि उनका अपमान किया गया है और वह बार्बर के खिलाफ कार्रवाई चाहते हैं, जिसके लिए उन्होंने लिखित शिकायत दी है।

मुरादाबाद के एसएसपी का दृष्टिकोण उचित प्रतीत होता है। वह इसे सामान्य प्रकृति का मामला बताते हुए सलाह दे रहे हैं कि अगर कोई एक सैलून बाल नहीं काट रहा, तो किसी दूसरे सैलून पर बाल कटवाए जा सकते हैं।

रोहित वाल्मीकि, वाल्मीकि समाज अध्यक्ष मुरादाबाद का कहना है कि कोरोना जैसी महामारी में भी डॉक्टरों और पुलिस के साथ सफाई कर्मचारी देश को बचाने के लिए लगातार मेहनत कर रहे थे, मगर आज इन्हीं को अपमानित किया जा रहा है। यह वाल्मीकि समाज बर्दाश्त नहीं करेगा। इससे ऐसा लगता है कि बाल्मीकि समाज सिद्धांत की जिद कर रहा है। इसीलिए समस्या बढ गयी । एसएसपी ने कोई अनुचित सुझाव तो नहीं दिया और सैलून वाले ने अगर नाले की सफाई के बाद नहाकर आने को कहा तो इसे भी अनुचित नहीं कहा जा सकता। मामला इसलिए भी उलझ गया क्योंकि समाधान से पहले हिन्दू और मुसलमान आ गये।

इसी तरह मंदिर में नमाज और मस्जिद में हनुमान चालीसा पढ़ने का मामला है। मथुरा के नंदगाँव में नंदबाबा मंदिर परिसर में नमाज पढ़ने की तसवीर से हंगामा बरपा। दो मुसलिम और दो हिन्दू देश में भाईचारगी का संदेश देने के लिए निकले थे। मगर, ऐसी बहस को जन्म दे बैठे जो भाईचारगी को नुकसान पहुँचाती है। इरादे और मंशा पर चर्चा बाद में, मगर सबसे पहले सबसे ज्वलंत सवाल को लें- क्या किसी मस्जिद में आरती, पूजा, सूर्य नमस्कार, वंदना, प्रार्थना, जैसे आयोजनों की अनुमति दी जा सकती है? व्यावहारिक रूप से कहें तो विल्कुल नहीं । इसी प्रकार मंदिर में नमाज पढ़ने को भी उचित नहीं कहा जा सकता। कुछ लोग कह सकते हैं कि इस प्रश्न का उत्तर अतीत में सहिष्णुता की जो गहराई थी, उसमें ढूंढ़ें। कबीरदास ने कहा था- कंकर-पत्थर जोरि के मस्जिद लई बनाय, ता चढ़ि मुल्ला बांग दे का बहरा भया खुदाय? कबीरदास ने तो मूर्ति पूजा का भी जबरदस्त विरोध किया था- पाथर पूजें हरि मिलें तो मैं पूजूं पहाड़। इससे तो चक्की भली, पीस खाए संसार।

कबीरदास ने न इस्लाम को बख्शा और न हिन्दू धर्म को। लेकिन उनकी गर्दन बची रही। ऐसी सहिष्णुता रही है हिन्दुस्तान में।

अब उन लोगों पर बात करते हैं जिस बारे में चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं।जिन लोगों ने नमाज पढ़ी, वे कौन हैं? उनका मकसद क्या है? क्या वे मंदिर को अशुद्ध कर रहे थे? क्या मंदिर में नमाज पढ़कर कोई मजहबी शौर्य दिखाना चाहते थे? वायरल हुई तसवीर में फैजल खान और मोहम्मद चांद नमाज पढ़ते दिख रहे हैं। उनके साथ दो हिन्दू भी मंदिर परिसर में थे- नीलेश गुप्ता और आलोक रत्न। सभी के खिलाफ नफरत फैलाने समेत कई अन्य धाराओं में केस दर्ज हुए हैं। फैजल की गिरफ्तारी हो चुकी है।

भारतीय भूमि पर बौद्ध, जैन और सिख धर्म का उद्भव हिन्दू धर्म की बुराइयों को खत्म करने की कोशिश में ही हुआ। गुरुनानक देव ने तो यहाँ तक कहा था कि ईश्वर तक हर इंसान पहुँच सकता है और ईश्वर और मनुष्य के बीच न कोई पुजारी आ सकता है न मौलवी। डॉ. भीम राव आम्बेडकर ताजा उदाहरण हैं जिन्होंने मनुस्मृति जलाने का आह्वान तक कर डाला था। फिर भी, धार्मिक सहिष्णुता कभी टूटी हो, इसके उदाहरण नहीं मिलते। किसी ने डॉक्टर आम्बेडकर से यह नहीं पूछा कि क्या वे किसी और धर्म के ग्रंथों को जलाने की बात कह सकते हैं? लेकिन इधर, दो मुसलमानों ने मंदिर में नमाज पढ़ी तो उधर, मेरठ के बागपत में विनयपुर गांव की मस्जिद में भाजपा नेता मनुपाल बंसल ने कथित तौर पर हनुमान चालीसा व गायत्री मंत्र का पाठ किया। क्या इस प्रकार के कार्य कलापों में व्यावहारिक दृष्टिकोण दिखता है ? (हिफी)

Tags:    

Similar News