कोरोना व वैक्सीन में चीन की बदनीयती

2019 में ही इस बेहद खतरनाक बीमारी कोरोना का पता चल गया था लेकिन सिर्फ चीन को। चीन के व्यापारिक हित प्रभावित न हों

Update: 2020-12-19 00:00 GMT

नई दिल्ली। कोविड-19 जैसा कि इसके नाम से ही पता चलता है कि इसका कोई न कोई संबंध 19 से है। जी हां, 2019 में ही इस बेहद खतरनाक बीमारी कोरोना का पता चल गया था लेकिन सिर्फ चीन को। चीन के व्यापारिक हित प्रभावित न हों, इसलिए चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने उन चिकित्सकों का भी मुंह बंद कर दिया था जो इस बीमारी को लेकर गंभीर चेतावनी दे रहे थे। चीन की चिकित्सा प्रयोगशालाओं में काम करने वाले हैरान, परेशान और भयभीत भी थे कि यह कैसी बीमारी है और इससे कैसे बचा जाए। इसके संक्रमितों का जबतक पता चलता, तबतक कई गुना लोग संक्रमित हो जाते। चीन ने बीमारी को छिपाकर ऐसा गुनाह किया जिसकी सजा पूरी दुनिया को आज तक भुगतनी पड़ रही है।अब चीन इस बीमारी की वैक्सीन को लेकर उसी तरह का गुनाह करने जा रहा है। कोरोना की बीमारी जिस तरह से अबूझ पहेली रही है, उसी तरह इसकी वैक्सीन के बारे में भी पूरी सत्यता के साथ कुछ भी कहना मुश्किल है। अमेरिका, ब्रिटेन में वैक्सीन लगाने का कार्य प्रारंभ किया जा चुका है। वहां जो वैक्सीन लगाई जा रही हैं, उनके बारे में भौतिक नतीजे सार्वजनिक किये गये लेकिन चीन ने अपनी वैक्सीन के बारे में इस प्रकार की कोई जानकारी नहीं दी है। कोरोना वैक्सीन की उपलब्धता अभी कम है और चीन व्यापारिक फायदा उठाने के लिए ऐसे अवसर की तलाश में ही रहता है।    

पता चला है कि चीन अपनी विवादित वैक्सीन के साथ वैश्विक ताकत दिखाने के प्रयास कर रहा है। चीनी स्टेट मीडिया के मुताबिक अब तक 100 से ज्यादा देश उसकी वैक्सीन मंगाने की इच्छा जाहिर कर चुके हैं। इन देशों में तुर्की भी हाल ही में शामिल हुआ है लेकिन चीन की वैक्सीन को लेकर गंभीर चिंताएं जाहिर की गईं। कारण ये है कि चीन ने अब तक वैक्सीन के ट्रायल को लेकर डेटा सार्वजनिक नहीं किया। एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन ने विवादित रूप से अपनी वैक्सीन के इमरजेंसी यूज की अनुमति जुलाई महीने में ही दे दी थी। मोटे तौर पर यह इमरजेंसी यूज फ्रंटलाइन वर्कर्स और विदेश यात्रा करने वालों पर किया जाना था। अब करीब चार महीने बाद चीन की सरकारी दवा कंपनी सिनोफार्म ने दावा किया है कि लाखों लोगों पर वैक्सीन का प्रयोग किया जा चुका है। कंपनी का कहना है कि वैक्सीन का प्रयोग सफल रहा है लेकिन कोई भी डेटा सार्वजनिक नहीं किया गया।

इस वैक्सीन के डेटा के संबंध में पहली जानकारी यूनाइटेड अरब अमीरात की तरफ से आई थी। देश के स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा बीते 9 दिसंबर को बताया गया था कि सिनोफार्म वैक्सीन के तीसरे फेज के ट्रायल के नतीजे 86 प्रतिशत तक सटीक आए हैं जबकि अमेरिकी वैक्सीन मॉडर्ना के नतीजे 94 प्रतिशत तो फाइजर के 95 प्रतिशत तक सटीक थे। हालांकि इस संबंध में यूएई की घोषणा को लेकर आश्चर्य भी प्रकट किया गया क्योंकि सामान्य तौर पर अपने क्लीनिकल ट्रायल के डेटा वो ही कंपनी सार्वजनिक करती है जिसने यह ट्रायल किया होता है।इसका एक मतलब यह भी निकलता है कि चीन ने सिनोफार्म का क्लीनिकल ट्रायल किया ही नहीं। इसे लेकर एक्सपर्ट्स ने चिंता जाहिर की है।

यूनाइटेड अरब अमीरात के बाद बहरीन की तरफ से डेटा सार्वजनिक किए गए। अब एक्सपर्ट्स का कहना है कि दरअसल चीन अपनी विवादित वैक्सीन को अंतरराष्ट्रीय प्रभाव बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करना चाहता है। इसका कारण ये है कि दुनियाभर में चीन कोरोना वायरस के उद्गम स्थल के तौर पर आलोचनाएं झेलता रहा है। अब वो वैक्सीन पहुंचाकर अपनी छवि बदलने की फिराक में है लेकिन वैक्सीन के डेटा को लेकर जाहिर किए जा रहे गंभीर संदेह बताते हैं कि ये वैक्सीन करोड़ों लोगों की जिंदगी खतरे में भी डाल सकती है।

अब तक सबसे सुरक्षित अमेरिकी वैक्सीन फाइजर मानी जा रही है। अमेरिका में सबसे पहला टीका सांद्रा लिंडसी को लगाया गया जो न्यूयॉर्क के एक अस्पताल में नर्स हैं।अमेरिका में कोरोना वैक्सीन लगनी शुरू हो गई है। वहां 14 दिसम्बर को कोविड-19 का पहला टीका लगाया गया। इस पहले टीके के साथ ही देश अपने सबसे बड़े टीकाकरण अभियान के लिए तैयार हो गया। बताया गया कि लाखों की संख्या में फाइजर/बायोएनटेक वैक्सीन बांटी जाएगी। करीब 150 अस्पतालों को यह वैक्सीन दी गयी है। अमेरिकी टीकाकरण अभियान के तहत अगले साल अप्रैल महीने तक करीब 10 करोड़ लोगों तक वैक्सीन पहुँचाने का लक्ष्य है। इसी के साथ दुनिया भर में इसकी तिजारत भी शुरू हो गयी है।

कोरोना वायरस महामारी के टीके दिए जाने लगे हैं और इन टीकों को ईजाद करने में जो कंपनियां आगे हैं, उनमें से कई के पीछे घरेलू कंपनियां हैं। नतीजतन, निवेश विश्लेषकों का अनुमान है कि इनमें से कम से कम दो कंपनियां (अमेरिकी बायोटेक कंपनी मॉडर्ना और जर्मनी की बायो-एन-टेक) अपनी साझेदार कंपनी, अमेरिका की फाइजर के साथ मिलकर अगले साल अरबों डॉलर का व्यापार करेंगी। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि असल में वैक्सीन बनाने वाले इसके अलावा कितने रुपये का व्यापार करने वाले हैं।माना जा रहा है कि जिस तरह से इन टीकों को बनाने के लिए फंड किया गया है और जिस तरह से बड़ी संख्या में कंपनियां वैक्सीन निर्माण के लिए सामने आई हैं, उससे तो यही लगता है कि बड़ा मुनाफा बनाने का कोई भी अवसर लंबे समय तक नहीं रहेगा। पीपुल्स वैक्सीन अलायंस का कहना है कि कम आमदनी वाले करीब 70 देशों में हर 10 लोगों में से महज एक शख्स को ही यह वैक्सीन मिल पाएगी।ये हालात तब हैं जबकि ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका ने इस बात का वादा किया है कि उनकी वैक्सीन की 64 फीसद खुराक विकासशील देशों को दी जाएगी।

इस बात की कोशिश की जा रही है कि इस वैक्सीन को सारी दुनिया में बिना भेदभाव के बाँटा जाए। इसके लिए उनसे संकल्प लिया गया है कि कोवैक्स नाम की इस वैक्सीन को लेने के लिए करार करने वाले 92 देशों में वैक्सीन की 70 करोड़ डोज वितरित की जाएगी। एमनेस्टी इंटरनेशनल, ऑक्सफैम और ग्लोबल जस्टिस नाउ जैसे संगठनों का कहना है कि इस योजना को लागू कर भी दिया जाए तो भी यह पर्याप्त उपाय नहीं होगा।कुछ दिन पहले ही दवा कंपनी फाइजर ने अपनी वैक्सीन के 90 फीसदी लोगों पर कामयाब होने की जानकारी दी थी।अब उम्मीदें बंध रही हैं कि ये वैक्सीन महामारी का अंत करने में मददगार साबित होंगी।

महामारी के दौर में वैक्सीन की जरूरत को देखते हुए सरकार और फंड देने वालों ने वैक्सीन बनाने की योजना और परीक्षण के लिए अरबों पाउंड की राशि दी। गेट्स फाउंडेशन जैसे संगठनों ने खुले दिल से इन योजनाओं का समर्थन किया। इसके अलावा कई लोगों ने खुद भी आगे आकर इन योजनाओं का समर्थन किया। अलीबाबा के फाउंडर जैक मा और म्यूजिक स्टार डॉली पार्टन ने भी आगे आकर इन योजनाओं के लिए फंड दिया। साइंस डेटा एनालिटिक्स कंपनी एयरफिनिटी के अनुसार, कोविड का टीका बनाने और परीक्षण के लिए सरकारों की ओर से 6.5 बिलियन पाउंड दिये गए हैं। वहीं गैर-लाभार्थी संगठनों की ओर से 1.5 बिलियन पाउंड दिया गया। कंपनियों के अपने खुद के निवेश से सिर्फ 2.6 बिलियन पाउंड ही आए। इनमें से कई कंपनियां बाहरी फंडिंग पर बहुत अधिक निर्भर करती हैं।

ये एक बहुत बड़ा कारण रहा कि बड़ी कंपनियों ने वैक्सीन परियोजनाओं को फंड देने में बहुत जल्दबाजी नहीं दिखाई। जीका और सार्स जैसी बीमारियों के लिए टीके बनाने वाली कंपनियों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। वहीं दूसरी ओर फ्लू जैसी बीमारियों के लिए बनी वैक्सीन का बाजार अरबों का है। ऐसे में अगर कोविड-19 फ्लू की तरह ही बना रहा और इसके लिए सालाना तौर पर टीका लगाने की जरूरत पड़ती रही तो यह वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों के लिए लाभदायक हो सकता है (हिफी)

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