डाॅ कोटणीस से मिलती है प्रेरणा
पांच युवा चिकित्सकों में से थे जो 1938 के दूसरे चीन-जापान युद्ध के दौरान चीनवासियों की मदद के लिए उनके वतन गए थे।
जितने कष्ट कंटकों में है
जिनका जीवन सुमन खिला
गौरवग्रंथ उन्हे उतना ही
यत्र-तत्र सर्वत्र मिला
लखनऊ। ये पंक्तियां डॉक्टर कोटणीस के व्यक्तित्व पर सटीक लगती हैं। भारत-चीन मैत्री के ही प्रतीक नहीं बल्कि चिकित्सकों के लिए भी प्रेरणा के स्रोत माने जाने वाले डॉक्टर द्वारकानाथ शांताराम कोटणीस उन पांच युवा चिकित्सकों में से थे जो 1938 के दूसरे चीन-जापान युद्ध के दौरान चीनवासियों की मदद के लिए उनके वतन गए थे। यह साल डॉक्टर कोटणीस का जन्मशती वर्ष है और उनके निधन के करीब सात दशक बाद भी उनकी निस्वार्थ सेवा, साहस, समर्पण और बलिदान को आज भी चीनवासी श्रद्धा से याद करते हैं। कोटणीस को द्वितीय चीन-जापान युद्ध (1937-1945) के दौरान उनकी सेवाओं के लिए चीन में बहुत सम्मान के साथ याद किया जाता है। भारत और चीन की मैत्री का प्रतीक माने जाने वाले डॉ. कोटणीस उन पाँच युवा डॉक्टरों में से एक थे, जिन्हें 1938 में द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान चीन में राहत-कार्यों के लिए भेजा गया था। डाक्टर द्वारकानाथ शान्ताराम कोटणीस ने चीनी सैनिकों का इलाज करने के दौरान अपनी जान की भी परवाह नहीं की थी। अभी कुछ दिनों पहले ही कोरोनावायरस का जिक्र करते हुए चीन के वाणिज्य दूत ने डॉक्टर कोटनीस को विशेष रूप से याद किया। उन्होंने भारत की भी तारीफ करते हुए बताया कि चीन में डाक्टर कोटणीस की कांस्य प्रतिमा का सितम्बर में अनावरण किया जाएगा। चिकित्सक संवर्ग की भूमिका इस समय ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी है। कोरोना वायरस ने दुनिया भर में तबाही मचा रखी है। दरअसल, कोरोना वायरस वायरस का एक बड़ा परिवार है, जो पशुओं और इंसानों में बीमारियां फैलाता है। कई कोरोना वायरस इंसानों की श्वास प्रणाली में संक्रमण फैलाते हैं, जिससे कई तरह की बीमारियां हो सकती हैं। अभी जिस कोरोना वायरस (सार्स-कोव -2) का प्रकोप फैला हुआ है, उससे इंसान को बुखार से लेकर उसकी मौत तक हो सकती है। इसकी शुरुआत चीन के वुहान से ही हुई थी। वहां से निकलकर यह पूरी दुनिया में फैला और अधिकतर देशों को अपनी चपेट में ले लिया। अमेरिका इससे सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ है। वहीं भारत में भी तेजी से इसका संक्रमण फैल रहा है। अभी तक इसका कोई इलाज या वैक्सीन नहीं पाई गई है। दुनियाभर के वैज्ञानिक इनकी तलाश में लगे हैं। इसी संदर्भ को लेते हुए चीनी अधिकारी ने कहा था कि डॉ. कोटणीस को भविष्य में वर्तमान से भी ज्यादा सम्मान मिलेगा क्योंकि उन्होंने भविष्य को संवारा है।
डॉ. कोटणीस को चीन में बहुत ही सम्मान के साथ याद किया जाता है। उनके सम्मान में चीन में डाक टिकट जारी किए गए हैं। उनकी याद में वहां स्मारक भी बनाए गए हैं। इतना ही नहीं कुछ समय पहले डॉ. कोटणीस के गाँव में जब सुखा पड़ा तो चीनी सरकार ने मदद के लिए 30 लाख रूपये भी भिजवाए। साल 2017 में चीन ने वह सांत्वना पत्र भी उनके परिवार को ससम्मान दिया, जिसे उस समय चीन के लीडर माओ ने अपने हाथ से डॉ. कोटणीस की मृत्यु के बाद उनके लिए लिखा था।बताते हैं कि माओत्से तुंग ने भारत से डाक्टर भिजवाने के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरू से विशेष अनुरोध किया था।
भारत के इस महान डॉक्टर की कहानी को सिनेमा के परदे पर भी उतारा गया। फिल्मकार वी. शांताराम ने साल 1946 में उनके जीवन पर आधारित 'डॉ. कोटणीस की अमर कहानी' नामक फिल्म बनाई। डॉ. कोटणीस को द्वितीय चीन-जापान युद्ध (1937-1945) के दौरान उनकी सेवाओं के लिए चीन में बहुत सम्मान के साथ याद किया जाता है। भारत और चीन की मैत्री का प्रतीक माने जाने वाले डॉ. कोटणीस उन पाँच युवा डॉक्टरों में से एक थे, जिन्हें 1938 में द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान चीन में राहत-कार्यों के लिए भेजा गया था। उनकी मौत के सालों बाद भी चीन के लोग उनकी निःस्वार्थ सेवा और काम के प्रति समर्पण के लिए उन्हें आज भी याद करते हैं।
महाराष्ट्र के सोलापुर में 10 अक्टूबर 1910 को जन्में कोटणीस ने यूनिवर्सिटी ऑफ बॉम्बे के सेठ जी. एस. मेडिकल कॉलेज से मेडिसिन की पढ़ाई पूरी की। साल 1938 में जापान ने चीन पर हमला बोल दिया था। उस समय चीन के कम्युनिस्ट लीडर जनरल माओ ने जवाहर लाल नेहरू से मदद मांगी। उन्होंने भारत से कुछ डॉक्टर घायल सैनिकों और जन-साधारण के इलाज हेतु भेजने के लिए कहा। इसके लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भी लोगों से एक पब्लिक प्रेस कांफ्रेंस के जरिये अपील की थी।
उन्होंने डॉक्टरों की एक टीम, एम्बुलेंस और साथ ही कुछ आर्थिक मदद भी भारत से चीन भिजवाई। इस टीम में पाँच डॉक्टर थे. जिनमें से एक डॉ. कोटणीस भी थे। सितम्बर, 1938 में यह टीम चीन पहुंची, जहाँ चीन के सभी बड़े नेताओं ने उनका स्वागत किया। यह टीम उस समय चीन के लिए किसी भी दुसरे एशियाई देश से आने वाली पहली मदद थी। इसके बाद डॉ. कोटणीस ने लगभग पाँच सालों तक चीन के लोगों की बिना किसी स्वार्थ के सेवा की।
डॉ कोटणीस की बहन ने बताया था कि उनका भाई नियमित रुप से परिवार को पत्र लिखता था। हमेशा ही उनके पत्रों से खुशी झलकती थी। उन्होंने कभी भयानक युद्ध की स्थितियों या फिर अपनी परेशानियों के बारे में नहीं लिखा। दूसरों की सेवा और अपना धर्म निभाते हुए वे बहुत खुश थे। साल 1941 में चीन में ही गुओ और डॉ. कोटणीस ने शादी कर ली। उनका एक बेटा भी हुआ जिसका नाम यिनहुआ रखा गया। डॉ. कोटणीस बिना अपनी परवाह किये लोगों की सेवा करते रहे। उस समय चिकित्सा और उपचार के सीमित साधन थे । राहत शिविरों में प्रकाश तथा साधनों के अभाव में लैम्पों की रोशनी में काम करना बेहद कठिन था, किन्तु उनका सेवा-भाव इतना अधिक प्रबल था कि वे घायल होने वाले अधिक-से-अधिक सैनिकों की प्राणरक्षा करना चाहते थे। एक भारतीय डॉक्टर को इस तरह काम करते देखकर चीनी भी उनकी प्रशंसा करते नहीं थकते थे। तनावपूर्ण माहौल में लगातार काम करते हुए उनकी तबीयत बिगड़ने लगी। नींद की कमी और अत्यधिक थकान के चलते उन्हें मिर्गी के दौरे पड़ने लगे। धीरे-धीरे यह बीमारी इतनी बढ़ गयी कि डॉ. कोटणीस को बचाना मुश्किल हो गया। साल 1942 में 9 दिसंबर को केवल 32 साल की उम्र में उनका देहांत हो गया।डॉ. कोटणीस ने देश, जाति व धर्म की सीमाओं से परे जाकर मानवता की सच्ची सेवा में अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। उनकी मृत्यु पर चीनी नेता माओत्से तुंग ने कहा था डाक्टर कोटणीस अमर रहेंगे। चीनी राजदूत सन वेडोंग ने भी गत दिनों कहा था कि इस मुश्किल समय में मैं भारतीय दोस्तों की दयालुता से अभिभूत हूं। ये मुझे उस समय की याद दिलाता है जब डॉ कोटणीस ने कई जानें बचाईं और चीनी लोगों की आजादी में महान योगदान दिया। कोटनिस के प्रति चीन की श्रद्धा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत दौरे पर आए कई चीनी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तमाम व्यस्तताओं के बावजूद मुंबई में कोटनिस के परिजनों से मिलना नहीं भूलते। मौजूदा चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और उनसे पहले राष्ट्रपति रहे हू जिंताओ भी मुंबई जाकर कोटनिस के परिजनों से मुलाकात कर चुके हैं।
भारत-चीन की साझा विरासत को प्रदर्शित करने के लिए चीनी नेता ऐसा करते हैं। डॉक्टर कोटणीस को वहीं की एक नर्स गुओ से प्यार हो गया था। दोनों ने दिसंबर, 1941 में शादी कर ली और अगले साल अगस्त में दोनों के एक बेटा हुआ। उन्होंने अपने बेटे का नाम यिनहुआ रखा जिसमें 'यिन' का शाब्दिक अर्थ भारत और 'हुआ' का अर्थ चीन बताया जाता है।
(अशोक त्रिपाठी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)