चिंतन का मूल है लोकतंत्र: हृदयनारायण दीक्षित
लखनऊ। भारतीय चिन्तन की मूल भूमि लोकतंत्र है। अनेक विचार हैं। आठ प्रतिष्ठित दर्शन है। विचार भिन्नता है। सब मिलकर लोकतंत्र की भावभूमि बनाते हैं। लोक और जन वैदिक पूर्वजों के प्रियतम विचार रहे हैं। लोक बड़ा है। आयतन में असीम लेकिन विश्वास में हृदयग्राही। लोक प्रकाशवाची है। भारतीय चिन्तन में लोक एक नहीं अनेक हैं। यजुर्वेद के अंतिम अध्याय में कई लोकों का उल्लेख है, "असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः - असुरों के अनेक लोक हैं। वे अंधकार से आच्छादित हैं। आत्मविरोधी इन्हीं में बारंबार जाते हैं।" यहां अज्ञान अंधकार आच्छादित लोक का वर्णन है। इसके पहले ऋग्वेद के पुरूष सूक्त में भी कई लोकों का उल्लेख है। यहां 'पुरूष' संपूर्णता का पर्याय है। कहते हैं, "यह विश्व उस पुरूष की महिमा है। झलक मात्र है। पुरूष इससे बड़ा है। विश्व उसका एक भाग (पाद) है। तीन भाग अमृत लोक में हैं।" जान पड़ता है कि अमृतलोक का आयतन इस विश्व से तीन गुणा बड़ा है। जो भी हो 'लोकों' की धारणा प्राचीन है। मृत्यु की सूचना से शोकग्रस्त लोग मृत्युलोक, पितरलोक, स्वर्गलोक आदि की चर्चा करते हैं।
भारत की सामान्य चर्चा में भी 'लोक' आ जाता है। यह 'लोक' शास्त्र को ग्रहण करता है। अतिक्रमण भी करता है। कर्मकाण्ड की विधियों में शास्त्रीय रीति की विकल्प नई रीति को लोकरीति कहते हैं। इस अर्थ में लोक का अर्थ सामान्यजन होता है। शास्त्रीय गीत-संगीत की जगह लोकगीत या लोकसंगीत ऐसी ही प्रिय धारणाएं हैं। लोक का अर्थ केवल मनुष्य नहीं। जन का अर्थ केवल एक मनुष्य नहीं। जन-समूह ही है। वैदिक साहित्य में लोक का अर्थ जन से बड़ा है। जन की महत्ता भी कम नहीं। ऋग्वेद के अदिति देव का विस्तार बताते हुए ऋषि ने "अदिति पंचजनाः- अदिति 5 जन" का शब्द प्रयोग किया है। विश्व शब्द से सम्पूर्णता प्रकट नहीं होती। लगता है कि कुछ भाग छूट गया है। इसीलिए उपनिषदों में परिपूर्ण सम्पूर्णता के लिए ब्रह्म शब्द आया है। ज्ञान में सुविधा के लिए तीन श्रेणियां हैं।
पहली ज्ञात श्रेणी है- जो जाना हुआ है, वह ज्ञात है। दूसरी अज्ञात है, इसके सम्बंध में इतना ही ज्ञात है कि वह अज्ञात है। तीसरी अज्ञेय है, जो जानकारी में नहीं आ सकता। ज्ञान विज्ञान गतिशील हैं। अज्ञात की परतें खुल रही हैं। अज्ञात ज्ञात में बदल रहा है। अज्ञेय तो भी पकड़ से बाहर है। मनुष्य व्यक्तित्व का एक भाग जान लिया गया है। एक भाग जाना नहीं गया, लेकिन उसे जाना जा सकता है। एक भाग तो भी बचेगा, जो अज्ञेय है। मनुष्य में ज्ञेय और अज्ञेय दोनों हैं। अनुभूति में अज्ञेय की दीप्ति उगती है। लोकतंत्र बाहर की गतिशीलता ही नहीं है, अन्तर्यात्रा भी है। बाहर से भीतर की ओर। लोकतंत्र समग्र संवेदन की यात्रा है। केन्द्र से परिधि पर आकर वर्तुलाकर घूमना राजनीति है। यह यात्रा अन्तहीन होती है। इसमें लगातार विषाद हैं। लेकिन लोकतंत्री भावभूमि की अन्तर्यात्रा स्वयं से स्वयं को और स्वयं को लोक से भी जोड़ती है।
लोकतंत्र में सूर्य चन्द्र नदी, पर्वत, कीट, पतिंग, वनस्पति, पशु और मनुष्य भी सम्मिलित हैं। क्या हम तमाम लोकों का अस्तित्व स्वीकार कर सकते हैं? चिन्तन की अल्प अवधि के लिए ऐसा सोचना बुरा नहीं। तब प्रश्न उठता है कि लोक अनेक हैं तो क्या सभी लोक स्वतंत्र इकाई हैं। लेकिन ऐसा असंभव है। प्रकृति एक अखण्ड सत्ता है। लोक इसी प्रकृति का ही भाग हैं। हम लोक में हैं। यह लोक सबके भीतर है, सबको आच्छादित करता है। दिक् के साथ काल को भी। सारे लोक भी परस्पर जुड़े हुए हैं। पृथ्वी को लोक जानें तो यह जल के नीचे पाताल लोक से जुड़ी हुई है।
भारत में परिवार के बाद सबसे छोटी इकाई बनी गण। गण वस्तुतः अंतः संगठित समूह थे। गण के नेता गणपति, गण अध्यक्ष आदि कहे गये और आस्था में गणेश भी। गणेश संभवतः इसीलिए सभी पूजनीयों में प्रथम हैं और सभी देवों में अग्रगण्य भी। गण समूह सांस्कृतिक आर्थिक और अन्य कारणों से आपस में मिलते गये। गणों से मिलकर बड़ी इकाई बनी 'जन'। सांस्कृतिक कारणों से जन भी आपस में मिले और एक संस्कृति से भारत एक राष्ट्र बना। भारतीय राष्ट्रगान में जन के साथ गण भी हैं और जनगण का सामूहिक मन ही जनगणमन है। जनगणमन की सामूहिकता ही जनतंत्र है। जनतंत्र जीवनशैली है। असहमति का आदर इस जीवनशैली का प्राण है। जनतंत्र में विपरीत विचार वाले शत्रु नहीं होते। कोई भी समाज एक विचार वाला नहीं हो सकता। विचार भिन्नता ही समाज को गतिशील बनाती है।
प्राचीन साहित्य में राजनीति शास्त्र के कई नाम थे। इसे दण्डनीति, अर्थशास्त्र, राजधर्म, राजशास्त्र आदि नामों से जाना जाता था लेकिन सबसे ज्यादा लोक प्रिय नाम था "नीतिशास्त्र"। संस्कृत विद्वानों के अनुसार नीति का अर्थ मार्गदर्शन होता है। शुक्रनीति आदि ग्रन्थों में राजनीति पर व्यापक सामग्री है। यहां शासकीय नियुक्तियों में वंश, वर्ण आदि न देखने और कार्यक्षमता के आधार पर ही पद देने के निर्देश हैं। नीति स्वाभाविक रूप में वास्तविक राजनीति थी। ऋग्वेद प्राचीनतम इतिहास साक्ष्य है। यहां स्वराज्य (1.80 व 8.93), राजधर्म (5.37 व 1.174) राजकर्म (1.25 व 4.42) सहित राजा इन्द्र वरूण आदि की स्तुतियों में राजनीति विषयक अनेक सूक्त हैं। अग्नि को भी राजा की तरह नमस्कार किया गया। वैदिक साहित्य लोकतंत्र का सागर है।
ऋग्वेद की सभा और समितियां लोकतंत्र का प्राण है। (10.34.6 व 6.28.6 आदि) यजुर्वेद में भी सभा समितियां हैं। सभाध्यक्ष भी है। अथर्ववेद में सभा और समिति प्रजापति की दो पुत्रियां हैं। (अथर्व. 7.12.1) इनकी उत्पत्ति विराट पुरूष से हुई है। उत्तरवैदिक काल के प्रमुख ग्रन्थ तैत्तिरीय संहिता में भी सभा है। सभा के योग्य लोग सभ्य थे। परस्पर विचार विमर्श से ही निर्णय होते थे। इसी सभ्यता से भारत का राष्ट्रजीवन भी जनतंत्री बना।
लोकतंत्र स्वाभाविकता है। हम प्रकृति के अंग हैं, पृथ्वी के अंग हैं, जल, अग्नि, वायु और आकाश के अंग हैं। परिवार के अंग हैं और समाज के भी अंग हैं। किसी राजनैतिक दल के सदस्य होने के कारण दल के भी अंग हैं। समिति या अन्य संस्थाओं के भी अंग होते हैं। मनुष्य सोचता है। हम सब चिन्तनशील प्राणी हैं। पशु और वनस्पतियां भी प्राण ऊर्जा से भरी पूरी हैं। वे भी चिन्तनशील हैं। जनतंत्र की सफलता के लिए सबके प्रति अपने दायित्व का चिंतन जरूरी है। जनतंत्र मानव समाज की आंतरिक एकता है। यह आंतरिक एकता अर्जित करनी होती है। पश्चिम के जनतंत्र और भारतीय जनतंत्र में यही मौलिक अंतर है। वे केवल मनुष्य के बारे में सोचते हैं। भारत में सृष्टि के सभी अवयवों पर समग्र विचार की परंपरा है। यहां जन के साथ लोक का भी विचार चलता है। पश्चिम का जनतंत्र राजतंत्र की प्रतिक्रिया है। भारतीय जनतंत्र हमारे रस, रक्त प्रवाह का हिस्सा है। यहां का जन लोक से रस लेता है। लोक को सींचता है, स्वयं भी रससिक्त है। लोक प्रीतिकर है। (हिफी)