उत्सवधर्मा है प्रकाश
मुंबई। भारतीय अनुभूति में अनेक देवता हैं। सभी देव शक्तियाँ दिव्य हैं और दिव्यता प्रकाश है। परम तत्व सर्वत्र ज्योतिर्मय प्रकाशरूपा है। वह एकमेव 'एकं' है। ऋग्वेद के ऋषि ने उस एक को एकं सद् कहा है। अष्टावक्र ने जनक की विद्वत सभा में उस एक परम को ''ज्योर्तिएकं'' बताया था। वह एक ज्योति है। सूर्य, चन्द्र तारे उसी एक से प्रकाशित हैं। भा का अर्थ प्रकाश है। आभा उसी एक की दीप्ति है और प्रभा भी। प्रतिभा इसी 'भा' प्रकाश का प्रसाद है। हमारे पूर्वज सहस्त्रों वर्ष से प्रकाश अभीप्सु हैं। वे प्रकाश की गहन प्यास में ही 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' के गीत गा रहे थे। अंधकार में देखना असंभव। दर्शन भी संभव नहीं। इसलिए प्रकाश की प्यास स्वाभाविक है। भारत का अर्थ भा-रत ही है। भारत प्रकाशरत राष्ट्रीयता है। जहां जहां प्रकाश, वहां वहां दिव्यता। जहां जहां दिव्यता वहां वहां देवता। अस्तित्व का मुख्य प्रसाद है प्रकाश। प्रकाशसम्पन्न अनुभवी लोगों का संगमन सभा है। सभा का मूल अर्थ है प्रकाश सहित। सभा स-भा है। यहां भी भा प्रकाश है। अंधकार अज्ञान है और ज्ञान प्रकाश है।
जीवन की प्रसन्नता प्रकाश का प्रसाद है। सत्य प्रकाश है। उदासी और अवसाद का कारण अंधकार है। धर्म का उद्भव भी प्रकाश की गहन प्यास से हुआ। भारत का धर्म पंथ मजहब की तरह किसी देवदूत की घोषणा नहीं है। यहां धर्म के पहले दर्शन है। दार्शनिक उपलब्धियों के आधार पर जीवन शैली का विकास हुआ। दर्शन मूल है और दर्शन का दर्शन भी प्रकाश के माध्यम से ही होता है। प्रकाश वरेण्य है। हमारे चारों ओर विस्तृत संसार का बोध भी प्रकाश के द्वारा ही संभव है और हमारे अंतस् के संसार का बोध भी। इसे आत्म प्रकाश कह सकते हैं। बुद्ध ने अपने दीप स्वयं बनोे। 'अप्प दीपोभवं' का संदेश दिया था।
प्रकाश प्रकृति का प्रसाद है। हम प्रकाश में आनंदित होते हैं। प्रकाश की सहायता से देखते हैं। प्रकाश के कारण दिखाई पड़ते हंै। हमारी आंख इन्द्रिय प्रकाश के अभाव में नहीं देख सकती। प्रकाश का दर्शन हमको आनंदित करता है। हम भारत के लोग पर्व और उत्सवों के अवसर पर सब तरफ प्रकाश प्राप्ति के उपकरण सजाते हैं। मांगलिक कार्यो में भी प्रकाश उपकरणों से घर सजाते हैं। सभी आनंदपूर्ण अवसरों पर अतिरिक्त प्रकाश की उपस्थिति हम सबको उल्लास से भरती है। गीता के अर्जुन ने श्रीकृष्ण में दिव्य चक्षु से विश्वरूप देखा। बोला, ''दिव्य सूर्य सहस्त्राणि-सहस्त्रों सूर्यों का प्रकाश देख रहा हूँ। परमतत्व प्रकाश रूपा है। सूर्य हम सबके अभिभावक संरक्षक हैं। वे प्रकाशदाता बुद्धि के प्रेरक हैं। ऋग्वेद में ऋषि कवि विश्वामित्र ने सूर्य प्रकाश से बुद्धि को तीव्र करने की स्तुति की है- तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। सूर्य प्रकाश दाता है। वे दिन भर प्रकाश देते हैं। उन्हीं के प्रसाद से चन्द्र भी प्रकाश देते हैं लेकिन अमावस्या में चन्द्र भी नहीं उगते। पूर्वजों ने प्रकाशपूर्ण रात्रि को पूर्णिमा कहा और अंधकारपूर्ण रात्रि को अमावस्या। प्रकाश स्वमेव उत्सव धर्मा है। सूर्य की अनुपस्थिति के कारण रात्रि अन्धकार लेकर आती है। यह अन्धकार अमावस्या की रात्रि सम्पूर्ण हो जाता है। इसी तरह रात्रि में उगने वाला चन्द्र प्रकाश पूर्णमासी की रात्रि पूर्ण होता है। हमारे पूर्वजों को शरद पूर्णिमा का पूर्ण चन्द्र बहुत आनंदित करता रहा है। इसीलिए उन्होंने शरद पूर्णिमा की पूजा, उपासना का पर्व रचा और शरद पूर्णिमा को अखिल भारतीय उत्सव बनाया। यही प्रकाश उत्सव है। दीप पर्व। दीपोल्लास। शरद पूर्णिमा शरदोत्सव है। इसी उत्सव की समाप्ति के बाद अमावस्या की रात्रि दीपोत्सव। तब अमावस्या के घोर अन्धकार में प्रकाश प्राप्ति की प्यास प्रकट करने का उत्सव सजाया गया।
शरद ऋतु हमारे पूर्वजों के मन का सम्मोहन जान पड़ती है। न शीत न ताप। वर्षा ऋतु अवकाश पर जा रही है प्रतीत होती है। गर्मी भी उसी के साथ उत्ताप लेकर बिदा होने को तैयार रहती है। शीत ऋतु अपने आने की सूचना देती है। पूर्वजों को सम्भवतः इसीलिए शरद से प्यार रहा है। वे दीर्घ जीवन के अभिलाषी थे। उन्होंने अपनी यह अभिलाषा 'जीवेम शरदः शतम'् गाकर प्रकट की। उन्होंने अपने जीवन की अभिलाषित अवधि 100 वर्ष नहीं बताई। 100 शरद बताई है। दीप प्रज्ज्वलन भारतीय संस्कृति का मंगल अनुष्ठान है। हम सब प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ में दीप जलाते हैं। दीप प्रकाश हमारे रचे देवता हैं। हम स्वयं दीप प्रज्ज्वलित करते हैं और स्वयं ही दीप देवता को नमस्कार भी करते हैं। बड़े निराले देवता हैं दीप। मिट्टी की काया। मिट्टी के दीप में स्नेह तेल और प्रेम । रूई की छोटी सी बाती । यह नन्हा दीप गहन अन्धकार से लड़ता है। पूरी रात्रि । अपने हृदय का स्नेह तैल जलाता रहता है। स्वयं को जलाकर हमको प्रकाश देता है। मनुष्य जाति में भी अनेक महान पूर्वज, अग्रज दीप की ही तरह जलते हुये स्वयं को अपने आचरण द्वारा प्रकाश भरतेे रहते हैं। दीप हमारा सृजन है। हमारे कर्म फल का प्रकाश परिणाम। दीप पर्व भारत का उल्लास है।
दीप पर्व की दीप्ति और समुल्लास मनुष्य का कर्म फल है। दुनिया के अन्य देशों में भी इसी प्रकार के प्रकाश पर्व हैं लेकिन भारत के दीप पर्व की बात ही दूसरी है। इसमें अन्धकार से संघर्ष की प्रेरणा है। ज्ञान प्रकाश की अभिलाषा है। प्रकाश और अन्धकार की लुका छिपी सदा से है। एक आता है, दूसरा जाता है। आकश में सूर्य अभिभावक के रूप में प्रतिदिन उगते हैं। मुझे लगता है कि वे हम सबको प्रकाशित करने के लिए ही करोड़ों वर्ष से उग रहे हैं। सूर्य देव स्वयं अस्त होने के बाद भी रात्रि में प्रकाश देने का काम चन्द्र को सौंप देते हैं। चन्द्र अमावस्या के बाद धीरे-धीरे अपना रूप आकार बढ़ाता रहता है और 15वें दिन पूर्णमासी हो जाती है। पूर्णमासी होने के बाद चन्द्र उसी क्रम में धीरे-धीरे घटता है और अमावस्या हो जाती है। जीवन भी ऐसा ही है। यह प्रकाश अंधकार का खेल है। इसी खेल का सतत् प्रवाह है। सो प्रकाश का सांस्कृतिक प्रतीक दीप उपास्य है। यह प्रकाश पुंज है, देवता है, नमस्कारों के योग्य है। नमस्कार पाता भी है। मन करता है कि ढेर सारा दीप प्रकाश एकत्रित कर लूं। मित्रों में वितरित करता रहूं। दीप पर्व में संपूर्ण विश्व को प्रकाश से जगमग कर देने का संस्कृति कर्म है।
भारत के दीपोत्सव में मिठाई की परम्परा भी है। मधु या मिठाई एक ही है। जीवन के प्रत्येक आयाम में मधु की महत्ता है। वैदिक पूर्वजों ने जीवन को मधुमय बनाने और मधुरस से आच्छादित करने की तमाम स्तुतियाॅं की हैं। अथर्वेद में कहा है कि हमारी वाणी भी मधुर होनी चाहिए। अभिलाषा है कि हमारा घर से निकलना मधुर हो। हमारा आचरण मधुर हो। हमारा मिलना मधुर हो। हमारी प्रीति की रीति मधुर हो। हमारी अनुभूति मधुर हो। वायु मधुर हो। जल भी मधुर हो। हमारा आचार, विचार, व्यवहार मधुर हो। माधुर्य की मधु अभिलाषा ही मिठाई की इच्छा है। दीपावली के पर्व की मिठाई पदार्थ है लेकिन जीवन का वास्तविक मधु हमारे कर्म और कर्तव्य में विस्तृत है। हमारी प्रार्थना है कि मुद, मोद, प्रमोद, हर्ष और उल्लास से भरपूर यह प्रकाश पर्व आप सबके अंतरंग बहिरंग को दिव्य प्रकाश से आपूरित करे। अस्तित्व में व्याप्त उस ज्योर्तिएक के प्रसाद प्रतिनिधि दीपों को नमस्कार। प्रकाश पर्व सबके जीवन को मधु प्रकाश से भर दे। यही शुभकामना है।