नवरात्र में प्रकृति से दिव्यशक्ति: हृदयनारायण दीक्षित
लखनऊ। प्रकृति दिव्यता है, सदा से है। देवी है। मनुष्य की सारी क्षमताएँ प्रकृति प्रदत्त है। जीवन के सुख-दुख, लाभ-हानि व जय-पराजय प्रकृति में ही संपन्न होते हैं। दुनिया की अधिकांश संस्कृतियों में ईश्वर या ईश्वर जैसी परमसत्ता को प्रकृति का संचालक जाना गया है। ईसाईयत में यह संचालक पिता-परमेश्वर है। अन्य सभ्यताओं, पंथिक मान्यताओं में भी किसी अज्ञात शक्ति को प्रकृति का संचालक बताया गया है। भारत में प्रकृति और प्रकृति के संचालक को 'माँ' की तरह देखा गया है। ईश्वर भी प्रकृति में अवतरित होने के लिए माता पर ही निर्भर है। ईश्वर सर्वशक्तिमान है। वही दाता-विधाता व भाग्य निर्माता कहा जाता है, लेकिन माता का पुत्र है।
भारत में नवरात्र देवी उपासना का अवसर होता है। यह माता परम है, लेकिन भिन्न-भिन्न रूपों में इसकी उपासना होती है। दुर्गासप्तशती का पाठ नवरात्रों में महत्वपूर्ण माना जाता है। प्रत्यक्ष रूप में इस उपासना का व्यवस्थित कर्मकांड है, लेकिन इस कर्मकांड की शुरूआत के चार मंत्र ध्यान देने योग्य हैं। यह संकल्प के पहले का हिस्सा है। पहले में आत्मतत्व शुद्धिकरण की प्रार्थना है। दूसरे में ज्ञानतत्व और तीसरे में शिव तत्व का आवाह्न है और अन्त में सभी तत्वों के शोधन की प्रार्थना है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले मित्र कर्मकांड को मान्यता नहीं देते लेकिन इस कर्म काण्ड में भी प्रकृति के प्रत्यक्ष भौतिक प्रपंचों की ही स्तुति है। देवी उपासना प्रकृति के दिव्य गोचर प्रपंचों से शक्ति प्राप्त करने का अनुष्ठान है। सप्तशती की कथा भी दार्शनिक है। ऋषि के अनुसार सुरथ एक लोकप्रिय राजा थे। शत्रुओं ने उनको पराजित किया। मंत्रियों ने भी उन्हें धोखा दिया। वह घर छोड़कर वन गमन के लिए निकले। वन में उन्हें मेधा ऋषि का आश्रम दिखाई पड़ा। वहीं समाधि नामक एक दुखी वैश्य भी थे। राजा ने वैश्य से दुखी होने का कारण पूछा। वैश्य ने बताया कि मेरे पास बहुत धन था। घर के लोगों ने मेरा धन छीन लिया। फिर भी मुझे अपने परिवार की याद आती है। राजा ने कहा कि जिन पारिवारिक सदस्यों ने तुमको निकाल दिया है उनके प्रति मोह क्यों है? व्यापारी ने कहा कि आपकी बात सही है, लेकिन मेरा मन ऐसा ही है। राजा ने ऋषि मेधा से प्रश्न पूछा कि मेरा राज्य चला गया है तो भी मेरे मन में ममता है। जानता हूँ कि वह मेरा नहीं है, लेकिन मुझे दुख होता है। व्यापारी भी परिजनों से अपमानित होकर आया था लेकिन उसी परिवार के प्रति मोह रखता है। हम दोनों बहुत दुखी हैं। ऋषि ने कहा कि संसार की ऐसी प्रकृति है। संसार का संचालन महादेवी करती हैं। उन्हीं की कृपा से दुख मुक्ति मिलती है।
विश्व की संचालक शक्ति यहाँ देवी है। कथा में देवी को नित्य बताया गया है लेकिन देवी के प्रकटीकरण का ब्योरा भी है। बताते हैं कि प्रकृति की दिव्य शक्तियों से तेज प्रकट हुआ और नारी रूप में परिवर्तित हो गया। शिव के तेज से मुख और विष्णु के तेज से भुजाएं प्रकट हुई। इसी तरह चन्द्रमा, वरूण, इन्द्र, कुबेर आदि के तेज से भिन्न-भिन्न अंग प्रकट हुए। फिर सभी देवों ने उस देवी को अस्त्र आदि दिए। यहाँ देवता प्रकृति की शक्तियाँ हैं। सब मिलकर महाशक्ति महादेवी हैं। देवी के अनेक रूप हैं। शक्ति उपासकों के लिए दुर्गा हैं। धन वैभव के अभिलाषी के लिए महालक्ष्मी व ज्ञान उपासकों के लिए वे सरस्वती हैं।
सभी जीव माँ का विस्तार हैं। माँ न होती तो हम भी न होते। माँ सृष्टि की प्रथम अनुभूति है। ऋग्वेद में भी माँ की अनुभूति का चरम है। कुछ लोग मानते हैं कि ऋग्वेद पुरूष सत्ता वाले समाज के अभिजनों की रचना है। वे ऋग्वेद में देवी उपासना की प्रतिष्ठा पर ध्यान नहीं देते। वैदिक अनुभूति में पृथ्वी माता है। हमारे सभी अंगों की निर्मिति का मूल आधार है।
पितृसत्तात्मक समाज में माता की अनुभूति नहीं हो सकती। मातृसत्तात्मक समाज में ही माता की श्रेष्ठता है। ऋषि नदियों को भी माता कहते हैं। ऋग्वेद में सिन्धु और सरस्वती भी माता है। वैसे प्रकृति की शक्तियाँ स्त्रीलिंग या पुल्लिंग नहीं हो सकतीं। सामाजिक विकास के सिद्धान्त के अनुसार मानव सभ्यता के प्रारम्भिक चरण में माँ का प्रभाव ज्यादा था। माँ ही प्रमुख थी। देवी उपासना का विकास उसी कालखण्ड में हुआ था।
ऋग्वेद में जल आपः मातरम्- जल माताएँ हैं। ऋग्वेद की अपो देवी या आपः मातरम्-जलमाताएँ मातृ-सत्तात्मक समाज की ही अनुभूति है। यहां आपः मातरम् या जलमाताएँ सम्पूर्ण जड़-स्थिर और गतिशील की माताएँ हैं- विश्वस्य स्थातुरर्जगतो जनित्री। (6.50.7) जल को सृष्टि की माता कहना बड़ी अनुभूति है। ऋग्वेद में अनेक देवियाँ हैं। एक वाग्देवी हैं। वे रूद्र और वसुओं के साथ गतिशील हैं। (10.125) वे राष्ट्र और राष्ट्र की वैभवदाता राष्ट्र संगमनी हैं। (10.125.3)
सूर्योदय के ठीक पहले ऊषा हैं। वे सुन्दरी हैं। सभी मनुष्यों को जगाती हैं और नमस्कारों के योग्य हैं। रात्रि भी देवी हैं। वे ऋग्वेद के ऋषियों की दृष्टि में ''अविनाशी अमर बताई गयी हैं। वे आकाश की पुत्री हैं। वे अन्तरिक्ष को आच्छादित करती हैं। फिर धरती के ऊंचे-नीचे क्षेत्रों को भरती हैं।'' ऋषि संवाद करते हैं, ''उनके आगमन पर हम सब गौ, अश्व आदि और पशु-पक्षी विश्राम करते हैं।'' (10.127) प्रकृति की अनेक शक्तियों व आयामों को देवी रूप में श्रद्धा करने की परम्परा अतिप्राचीन है।
प्रकृति की शक्ति का ज्ञान विज्ञान का ही भाग होता है। पूर्वज तर्क-प्रतितर्क और अनुभव आदि प्रत्यक्ष उपकरणों से अपने निष्कर्ष का सतत् निरीक्षण भी करते थे। जांचा-परखा निष्कर्ष भावबोध में श्रद्धा है। ऋग्वेद में 'श्रद्धा' भी एक देवी हैं। श्रद्धा हमारी आन्तरिक अनुभूति है। प्रकृति की विभूति है श्रद्धा। ऋग्वेद के ऋषियों ने श्रद्धा को भी देवी बताया है। अस्तित्व या उसकी शक्तियों पर श्रद्धा करना सही है। श्रद्धा दिव्यता है। ऋषि कहते हैं कि श्रद्धा प्रकृति की विभूतियों में शिखर है, ''श्रद्धा भगस्तस्य भूर्धनि। (10.151.1) जीवन की प्रत्येक गतिविधि में श्रद्धा की प्रतिष्ठा है। ऋषि बताते हैं, ''हम प्रातःकाल श्रद्धा का आवाहन करते हैं, मध्यान्ह में श्रद्धा का आवाह्न करते हैं, सूर्यास्त काल में श्रद्धा की ही उपासना करते हैं। हे श्रद्धा हम सबको श्रद्धा से परिपूर्ण करें। (10.151.5) यहाँ श्रद्धा जीवन और कर्म की शक्ति हैं।
मन संकल्प का केन्द्र है और विकल्प भी। मन गतिशील कहा जाता है। मन की चंचलता कर्मसाधना में बाधक प्रभाव डालती है। मन के साधक मनीषी कहे जाते हैं। ऋग्वेद में मन की शासक शक्ति का नाम 'मनीषा देवी' है। ऋषि मनीषा देवी का आवाहन करते हैं- 'प्र शुकैतु देवी मनीषा'। (7.34.1)
माँ रूप देवी की उपासना ऋग्वेद में है। इसके बाद उत्तर वैदिक काल में है। तैत्तिरीय उपनिषद में 'मातृ देवों भव है ही। पुराणों में देवी का विस्तार अनंत है। दुर्गा सप्तशती पौराणिक काल की रचना है। इसके पाँचवें अध्याय में शक्ति लज्जा, क्षमा, क्षुधा, चेतना आदि को भी मातृरूपेण देवी कहकर प्रत्येक भाव को पांच बार नमस्कार किया गया है- या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः। देवी सर्वव्यापी है। देवी उपासना का स्रोत जम्बूद्वीप है। जम्बूद्वीप के भीतर भरतखण्ड है। इसका दार्शनिक स्रोत माता है। माता ही हम सबके जनन का स्रोत है। वह जननी है। प्रत्यक्ष रूप में अपनी माता के प्रति अचल, अविचल और ध्रुव श्रद्धा ही इसका मूल है। इस जगत् में हम सबके सम्भवन का उद्गम, कारण माता है। यह माता देवी है। देवी माता है। (हृदयनारायण दीक्षित-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)