नीतीश नहीं जदयू के चिंतन का समय

नीतीश नहीं जदयू के चिंतन का समय

पटना। बिहार के सातवीं बार मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार ने चुनाव के दौरान कहा था कि ये उनका अंतिम चुनाव है। सामान्य रूप से माना गया कि नीतीश ने राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा कर दी है। इससे भी जनता की सहानुभूति मिली। इस बात को जेडीयू के नेता भले ही स्वीकार न करें क्योंकि पार्टी को सिर्फ 43 विधायक मिले हैं। सबसे ज्यादा विधायक राजद को मिले। दूसरे स्थान पर भाजपा रही।

बिहार में नई सरकार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में बन गई है, लेकिन विवादों से दामन अब भी नहीं छूट रहा है। नीतीश सरकार में शिक्षा मंत्री बने डॉ. मेवालाल चौधरी ने भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मुलाकात के बाद अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। डॉ. मेवालाल चौधरी के इस्तीफे के बाद जेडीयू प्रवक्ता अजय आलोक ने आरजेडी पर पलटवार करते हुए कहा कि राबड़ी देवी और तेजस्वी कब इस्तीफा देंगे। इन पर भी भ्रष्टाचार के आरोप हैं। बहरहाल, जेडीयू के अंदर हीन भावना तो आ ही गयी । पार्टी का इतना खराब प्रदर्शन क्यों रहा, इस पर मंथन करना स्वाभाविक है। जेडीयू ने राजद के साथ जब चुनाव लड़ा था, तब भी उसको सम्मानजनक सीटें मिली थीं। अब भाजपा के साथ रहने से उसे कुर्सी तो मिल गयी लेकिन कुव्वत कम हो गयी है। नीतीश कुमार क्या सचमुच अब भी सत्ता का चेहरा हैं? क्या उन्हे सुशासन कुमार कहा जा सकता है?

गौरतलब है कि तारापुर के नवनिर्वाचित जेडीयू विधायक डॉ. मेवालाल चौधरी को पहली बार कैबिनेट में शामिल किया गया था। राजनीति में आने से पहले वर्ष 2015 तक वह भागलपुर कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति थे। वर्ष 2015 में सेवानिवृत्ति के बाद राजनीति में आए। इसके बाद जदयू से टिकट लेकर तारापुर से चुनाव लड़े और जीत गए लेकिन, चुनाव जीतने के बाद डॉ. चौधरी नियुक्ति घोटाले में आरोपित किए गए। कृषि विश्वविद्यालय में नियुक्ति घोटाले का मामला सबौर थाने में वर्ष 2017 में दर्ज किया गया था। इस मामले में विधायक ने कोर्ट से अंतरिम जमानत ले ली थी। बिहार विधानसभा चुनाव में जेडीयू को जो झटका लगा है और उसके बाद से ही वह लगातार इस बात को लेकर समीक्षा में लगी हुई है कि पार्टी की ऐसी हालत चुनाव में क्यों हुई? यही नहीं, जेडीयू के बड़े नेता लगातार कार्यकर्ताओं के साथ-साथ नेताओं और दूसरे सोर्स से ये पता करने की कोशिश में लगे हुए हैं कि आखिर पार्टी से गलती कहां हो गई। वैसे 125 सीटें हासिल करने के साथ एनडीए ने नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार में सरकार बना ली है और वह 7वीं बार मुख्घ्यमंत्री पद की शपथ लेने में सफल रहे हैं। विधानसभा अध्यक्ष पद पर भी एनडीए प्रत्याशी की जीत हुई। उसे 126 विधायकों का समर्थन मिला। विपक्ष के प्रत्याशी को 114 विधायकों के मत मिले। सरकार सुरक्षित है लेकिन सरकार बनाने वाली जदयू सुरक्षित नहीं है। जानकारी के मुताबिक, जेडीयू के पास जो जानकारी आई है उसमें कुछ बड़े फैक्टर सामने निकलकर आए हैं, जो कि खराब प्रदर्शन की तरफ इशारा करते हैं। जेडीयू के प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह के मुताबिक, बिहार चुनाव में हार के बाद जेडीयू बेहद गंभीर है और वह बहुत जल्द कई स्तर पर समीक्षा कर पार्टी को फिर से मजबूत करने की कवायद में जुटेगी। इस दौरान पार्टी संगठन में फेरबदल के साथ-साथ युवा चेहरों को भी तवज्जो मिलेगी। इसके अलावा भीतरघात करने वाले लोगों पर कार्रवाई भी होगी।

जदयू को इतनी कम सीटें क्यों मिलीं इसके लिए लोजपा फैक्टर भी जिम्मेदार है। इस फैक्टर ने जेडीयू की लुटिया डुबोने में महत्वपूर्ण रोल अदा किया। लगभग 36 सीटें ऐसी रहीं जहां लोजपा और जेडीयू के वोट मिला लें तो महागठबंधन के वोट से ज्यादा हो जाते हैं। संगठन की कमजोरी पर भी किसी ने ध्यान नहीं दिया। जेडीयू के रणनीतिकार लगातार चुनाव के पहले ये दावा करते रहे कि पार्टी का संगठन जमीनी स्तर पर मजबूत है, लेकिन पार्टी को सबसे ज्यादा नुकसान संगठन की कमजोरी की वजह से हुआ है। कई विधानसभा क्षेत्रों में तो संगठन की धार दिखी ही नहीं। जेडीयू में टिकट के कई दावेदार थे जो चुनाव लड़ना चाहते थे, लेकिन जब टिकट नहीं मिला तो वे अंदर ही अंदर पार्टी के उम्मीदवार के खिलाफ काम करते रहे जिसका नुकसान पार्टी के उम्मीदवार को हुआ। भाजपा और जेडीयू में जमीनी स्तर पर तालमेल की कमी पर भी पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। कहने को एनडीए चुनाव लड़ रहा था, लेकिन अंदर खाने की खबर ये थी कि भाजपा और जेडीयू के नेताओं व कार्यकर्ताओं के बीच जमीनी स्तर पर तालमेल की भारी कमी थी। कई जेडीयू के उम्मीदवार ने बताया कि भाजपा का सहयोग नहीं मिलने की वजह से उन्हें नुकसान हुआ।

नीतीश कुमार के विकास कार्यों को जनता तक नहीं पहुंचाया गया। जेडीयू के नेताओं और कार्यकर्ताओ को ये टास्क मिला था कि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक नीतीश कुमार के विकास कार्यों की जानकारी पहुंचे, लेकिन ये सम्भव नहीं हो सका। इस वजह से जनता जेडीयू उम्मीदवार से नाराज दिखी।

चुनाव में युवाओं के रोजगार का मुद्दा काफी महत्वपूर्ण हो गया था। दस लाख रोजगार का जवाब सरकार नहीं दे पायी थी। जेडीयू के रणनीतिकार तेजस्वी यादव के दस लाख युवाओं को रोजगार देने का जवाब सही ढंग से नहीं दे सके, जिसकी वजह से पार्टी का पूरा प्रचार आक्रामक तरीके से नहीं हो पाया जो हार की बड़ी वजह बन गया। जेडीयू में नीतीश कुमार के बाद दूसरा चेहरा प्रचार के लिए नहीं था। नीतीश कुमार पूरे चुनाव में अकेले दम पर प्रचार करते दिखे। जेडीयू में दूसरा कोई ऐसा नेता नहीं दिखा जिसका फायदा चुनाव में जेडीयू उम्मीदवार को हो सके। जेडीयू में उम्मीदवार चयन पर भी सवाल उठे थे। जेडीयू के सूत्र बताते हैं कि उम्मीदवार चयन में भी गलती हुई जिसकी वजह से पार्टी को इतना घाटा उठाना पड़ा है। बिहार में मुसलमानों का समर्थन भाजपा के साथ जेडीयू को भी नहीं मिला। एआईएमआईएम के असदउद्दीन ओवैसी को बिहार में पांच विधायक मिलना और वामपंथी दलों को जिस तरह से सफलता मिली है, उससे भी पता चलता है कि मुस्लिम वोटरों को सही मैसेज नहीं दिया गया। नीतीश कुमार और उनकी पार्टी मुस्लिम मतदाताओं को ये नहीं समझा पायी कि भाजपा के साथ गठबंधन होने के बावजूद नीतीश कुमार के रहते मुस्लिम समुदाय का कोई अहित नहीं हो पाएगा।

भाजपा के रहते सवर्ण वोटर का जेडीयू से छिटकना तो स्वाभाविक था। पहले जेडीयू की सवर्ण वोटर में अच्छी पैठ बताई जाती थी, लेकिन विधानसभा चुनाव में सवर्ण वोटर भाजपा के उम्मीदवार को तो वोट देते दिखा लेकिन जहां भाजपा नहीं थी वहां वह लोजपा और कांग्रेस की तरफ शिफ्ट होता दिखा और इसका नुकसान जेडीयू को हुआ। इन बातों पर जेडीयू को चिंतन मनन करना ही होगा। (हिफी)

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