पंजाब व हरियाणा में नदी के पानी को लेकर खींचतान
नई दिल्ली। लम्बे वक्त से इस तरह की बात सुनी जा रही है कि अगर अगला विश्वयुद्ध हुआ तो वो विचारधारा, उग्रराष्ट्रवाद या किसी अन्य वजह से नहीं बल्कि पानी के भंडार पर अधिकार को लेकर लड़ा जाएगा। इस बात को कई बार अलग-अलग तरीके से अलग-अलग मंचों पर कहा जा चुका है, मगर यह कितना सच है, इस पर संशय बना हुआ है। नीति आयोग ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि लगातार घट रहा भूजल स्तर वर्ष 2030 तक देश में सबसे बड़े संकट के रूप में उभरेगा। एक समय था जब लोग प्यासे को पानी पिलाना दुनिया का सबसे बड़ा पुण्य समझते थे, एक दूसरे को बेहिचक ऑफर करते थे लेकिन जब से लोगों ने बहते पानी को रोककर बोतल में भरकर देना शुरू किया तब से पानी में घुली मिठास, समर्पण और भाईचारा गायब हो गया। खरीदे हुए पानी ने प्रेम का वह ब्रिज ही तोड़ दिया। ऐसा ही कुछ पंजाब और हरियाणा में उनके अलग-अलग राज्य बनने के समय से ही देखा जा रहा है। हरियाणा और पंजाब के बीच सतलुज यमुना लिंक नहर के पानी को लेकर विवाद है।
28 जुलाई को सतलुज-यमुना लिंक नहर (सवाईएल) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा और पंजाब के मुख्यमंत्री को निर्देश देते हुए कहा कि वो आपस मे मीटिंग करके यह बताएं कि क्या वो इस समस्या का हल निकाल सकते हैं या नहीं। इस मामले में अगली सुनवाई अगस्त के तीसरे हफ्ते में होगी। इससे पहले इस मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इस समस्या का समाधान निकलना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को चार महीने का समय दिया था। केंद्र सरकार की तरफ से अब कहा गया कि इस मामले में उन्हें आपसी बातचीत से समाधान निकालने के लिए 3 महीनों का वक्त चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार की तरफ से कहा गया कि हम दोनों राज्य सरकारों (हरियाणा सरकार और पंजाब सरकार) के संपर्क में हैं और बातचीत चल रही है। कोर्ट ने कहा कि आप तीन नहीं चार महीनों का समय लीजिए। वहीं हरियाणा सरकार ने कहा कि इस मामले में एक टाइम लाइन होनी चाहिए। ऐसा न हो ये मामला अनंत काल तक चलता रहे। एसवाईएल (सतलुज- यमुना लिंक नहर) के अपने हिस्से के पानी के लिए हरियाणा की टकटकी एक बार फिर पड़ोसी राज्य पंजाब पर लग गई है। दोनों राज्यों में इस मुद्दे पर वार्ता तो पहले भी कई बार हो चुकी लेकिन पंजाब टस से मस नहीं होता है। पंजाब सरकार कई दफा पानी देने से दो टूक मना कर चुकी है। बावजूद इसके हरियाणा भी हार मानने को तैयार नहीं है। जहां सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर वार्ता का रास्ता सुझाया है। वहीं इसके नतीजे कितने सार्थक होंगे यह भविष्य के गर्भ में है लेकिन हरियाणा को उम्मीद जरूर बंधी है। हरियाणा में भाजपा तो पंजाब में कांग्रेस सरकार है। अब देखना यह है कि पंजाब इस मुद्दे पर पड़ोसी राज्य की कितनी सुनता है। चूंकि, दोनों प्रदेशों में लंबे समय से एसवाईएल पर राजनीति होती आ रही है। इस मुद्दे पर कई सरकारें भी
आई और चली गईं, लेकिन गतिरोध नहीं सुलझा। हरियाणा में भाजपा सरकार आने के बाद इसे लेकर केंद्र स्तर पर कई बैठकें हो चुकी हैं। बीते दिनों भी सीएम मनोहर लाल ने केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी से एसवाईएल का मुद्दा सुलझाने की अपील की थी।
पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रधान सुनील जाखड़ ने एसवाईएल पर कहा कि रिपेरियन सिद्धांत के अनुसार पंजाब और इसके किसानों का राज्य के बीच से बहने वाली नदियों के पानी पर पहला अधिकार है। रिपेरियन सिद्धांत का कोई भी उल्लंघन न केवल कानून के खिलाफ होगा, बल्कि पंजाब के लोगों के साथ अन्याय भी होगा। उन्होंने कहा कि कैप्टन अमरिंदर सिंह बार-बार ब्यास और रावी नदियों में पंजाब की जल उपलब्धता का नए सिरे से आकलन करने को कहते रहे हैं। इस तरह के आकलन से जमीनी स्थिति स्पष्ट हो जाएगी, जो एसवाईएल मुद्दे पर पंजाब के रुख का समर्थन करेगी। पंजाब सरकार को इस मुद्दे पर बातचीत में कोई आपत्ति नहीं है, जैसा कि शीर्ष अदालत द्वारा निर्देशित किया गया है। उन्होंने कहा कि किसी भी चर्चा में जमीनी स्थिति को ध्यान में रखना होगा।
हरियाणा और पंजाब के बीच जल विवाद बहुत पुराना है। 1966 में संयुक्त पंजाब का बंटवारा कर जब अलग हरियाणा राज्य बना तभी इस विवाद की बुनियाद पड़ गई। हरियाणा बनने के बाद पंजाब पुनर्गठन अधिनियम के तहत फैसला हुआ कि अगर दोनों राज्य विवाद को दो वर्ष में नहीं सुलझा सके तो केंद्र सरकार मामले का निपटारा करेगी। दो वर्ष बाद केंद्र ने फैसला दिया कि हरियाणा को 37.8 लाख फीट एकड़ तथा पंजाब को 32.2 लाख फीट एकड़ पानी दिया जाए। पंजाब को यह फैसला अखरा और उसने खुलकर विरोध शुरू कर दिया। इसके बाद केंद्र ने 1971 में केंद्रीय योजनामंत्री दुर्गा प्रसाद धर की अध्यक्षता में कमेटी का गठन किया। धर समिति की हरियाणा को इंसाफ नहीं दिला पाई। कुल 72 लाख फीट एकड़ पानी को आधार मानकर हरियाणा को 37.4 लाख फीट एकड़ पानी दे दिया और बाकि पानी पंजाब को देने की सिफारिश कर दी। इस पर दोनों राज्यों में सियासी उबाल आ गया। मामले की गंभीरता को देखते हुए वर्ष 1976 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने हस्तक्षेप किया और 35-35 लाख फीट एकड़ पानी वितरित कर दिया। इस बीच वर्ष 1980 में एक रिपोर्ट आ गई जिसमें कहा गया कि रावी-ब्यास का पानी बढ़कर 171 लाख 70 हजार एकड़ फीट तक पहुंच गया है। इसके कारण राजस्थान, जम्मू-कश्मीर तथा दिल्ली भी इस जल विवाद में कूद गए। इसके बाद तत्कालीन केंद्र सरकार ने सभी दावेदार राज्यों के प्रतिनिधियों को आमने-सामने बिठाकर समझौता करा दिया। 31 दिसंबर 1981 को हुए समझौते में पंजाब को 42.20 लाख एकड़ फीट, राजस्थान को 36, हरियाणा को 35, जम्मू-कश्मीर को 6.50 तथा दिल्ली को दो लाख फट एकड़ पानी आवंटित कर दिया गया।
इस समझौते में भी पंजाब के हिस्से में अधिक पानी आया। विवाद बढ़ने लगा तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने हरियाणा को उसके हिस्से का पानी दिए जाने के उद्देश्य से सतलुज-यमुना लिंक नहर के निर्माण की घोषणा कर दी। 8 अप्रैल 1982 को उन्होंने पंजाब के पटियाला जिले के गांव कपूरी में 21 करोड़ रुपये की लागत से बनने वाली 91 किलोमीटर लंबी एसवाईएल नहर के निर्माण कार्य का शुभरंभ किया। इसके बाद विवादों का दौर शुरू हो गया। इसके बाद विवादों का दौर शुरू हो गया। विवाद ने 2004 में उस तूल कर लिया जब पंजाब ने इस समझौते को मानने से इन्कार कर दिया और इसे खारिज कर दिया। इसका अब तक इसका 90 फीसदी निर्माण कार्य पूरा भी हो चुका है। जो काम बचा वह पंजाब के हिस्से का है। विरोध की घटनाएं बढ़ने लगीं और दोनों राज्यों में टकराव चरम पर पहुंच गया। इस टकराव ने हिंसा का रूप ले लिया। आज कई दशक बीत जाने के बाद भी हरियाणा को उसके हिस्से का पानी आज तक नहीं मिला। हरियाणा का कहना है कि एसवाईएल नहर उसके किसानों के लिए जीवन रेखा है, लेकिन पंजाब को भी अपने किसानों और घटते जलस्तर की चिंता थी।
(नाज़नींन-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)