किरण बेदी की अनावश्यक सक्रियता

किरण बेदी की अनावश्यक सक्रियता
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लखनऊ। संवैधानिक रूप से राज्यपाल और उपराज्यपाल के पद गैर राजनीतिक होते हैं लेकिन केन्द्र में सत्तारूढ़ दल इनकी तैनाती अपने राजनीतिक हित साधन के लिए ही करते हैं। केन्द्र में सरकार बदली तो राज्यपाल बदलने का प्रक्रिया शुरू हो जाती है। केन्द्रशासित प्रदेशों में उपराज्यपाल ज्यादा ताकतवर होते हैं। दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल की सरकार को खुलकर काम करने का कभी अवसर नहीं मिल पाया। अब यही स्थिति कांग्रेस शासित पुडुचेरी में उपराज्यपाल किरण बेदी ने पैदा कर रखी है। पूर्व पुलिस अधिकारी उपराज्यपाल किरण वेदी की अनावश्यक सक्रियता ने वहां के स्वास्थ्य विभाग को भी नाराज कर दिया है। मुख्यमंत्री वी. नारायण सामी तो पहले से ही तंग थे। कोरोना जैसी महामारी में जब सबसे आगे का मोर्चा स्वास्थ्यकर्मी ही संभाल रहे हैं, तब उपराज्यपाल किरण वेदी का यह रवैया प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लक्ष्य मंे भी बाधा डाल सकता है।

पुडुचेरी की उपराज्यपाल किरण बेदी के रवैये को लेकर नारायणसामी सरकार के बाद अब डॉक्टर और नर्स भी सड़क पर उतर आए हैं। डॉक्टर, नर्स और मेडिकल अधिकारियों ने गत दिनों दो घंटे तक प्रदर्शन किया। मेडिकल स्टाफ की मांग है कि अपने व्यवहार के लिए उपराज्यपाल किरण बेदी माफी मांगे। दरअसल, 18 जुलाई को उपराज्यपाल किरण बेदी कोरोना विशेष प्रकोष्ठ के निरीक्षण के लिए गई थीं। किरण बेदी पर आरोप है कि उन्होंने स्वास्थ्य अधिकारियों के साथ असभ्य और धमकी भरा व्यवहार किया। प्रदर्शन कर रहे मेडिकल स्टाफ ने मांग की कि किरण बेदी अपने उस व्यवहार के लिए माफी मांगें और आगे कभी भी ऐसा व्यवहार न करें।

इसी मांग को लेकर डॉक्टर, नर्स और मेडिकल अधिकारियों ने उपराज्यपाल किरण बेदी के खिलाफ काली पट्टी बांधकर प्रदर्शन किया। मेडिकल स्टाफ के किरण बेदी के विभाग को संभालने के तरीके की निंदा की। उपराज्यपाल के खिलाफ नारे भी लगाए।

उधर पुडुचेरी के मुख्यमंत्री वी नारायणसामी और एलजी किरण बेदी के बीच फिर जुबानी जंग तेज हो गई है। दरअसल, 19 जुलाई को एलजी दफ्तर से एक पत्र मुख्यमंत्री को भेजा गया था। इसमें लिखा गया है कि विधानसभा सत्र के बारे में उन्हें 17 जुलाई को विधानसभा सचिवालय की ओर से जानकारी दी गई।

एलजी किरण बेदी ने कहा कि इससे पहले उन्हें एनुअल फाइनेंशियल स्टेटमेंट नहीं भेजा गया। यूटी एक्ट 1963 की धारा 27 और 28 के तहत उनसे अनुदान की मांग भी नहीं की गई। एलजी ने इस मामले को गंभीर बताया है। पत्र में कहा गया है कि बजट पेश करने और एलजी के अभिभाषण के लिए अब नई तारीख दी जाएगी। इसके जवाब में मुख्यमंत्री ने लिखा है कि विधानसभा के समक्ष फाइनेंशियल स्टेटमेंट पेश करने के लिए राष्ट्रपति की मंजूरी ली जा सकती है, इसलिए इस मामले में किसी को नजरंदाज नहीं किया गया है। एलजी ने खुद को नजरअंदाज किए जाने का आरोप लगाया है। कोरोना संकट के बीच नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के दूसरे कार्यकाल का एक साल पूरा होने जा रहा है। इस एक साल के दूसरे कार्यकाल के दौरान मोदी सरकार की कई उपलब्धियां रही हैं, लेकिन केंद्र बनाम राज्य के बीच छत्तीस का आंकड़ा भी देखने को मिला। हालांकि, छह साल पहले जब नरेंद्र मोदी गुजरात के सीएम से देश के पीएम की कुर्सी पर काबिज हुए थे तो उन्होंने कहा था कि हम राज्य सरकारों से साथ टीम इंडिया की तरह मिलकर काम करेंगे, लेकिन मोदी सरकार के कार्यकाल में पश्चिम बंगाल से लेकर पुडुचेरी तक की राज्य सरकारों के बीच टकराव की स्थिति देखने को मिली है।

देश की सत्ता में मोदी सरकार के आने के बाद से ही केंद्र और पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार के बीच छत्तीस का आंकड़ा रहा है। शारदा चिटफंड मामले से लेकर कोरोना संकट में केंद्रीय टीम भेजने को लेकर केंद्र और राज्य सरकार की बीच टकराव साफ दिखा है। चिटफंड केस में सीबीआई टीम को बंगाल भेजने की कार्रवाई को लेकर सीएम ममता बनर्जी सड़क पर उतरते हुए मोदी सरकार के खिलाफ धरने पर बैठ गई थीं। ऐसे ही कोरोना संकट में केंद्रीय टीम को जायजा लेने के लिए भेजा गया तो ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री की बैठक में इस मामले को उठाया। इसके अलावा पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ और ममता सरकार के बीच भी आए दिन टकराव साफ देखा जा सकता है।

पुडुचेरी में कांग्रेस सरकार और मोदी सरकार के बीच भी रिश्ते बेहतर नहीं रहे हैं। उप-राज्यपाल किरण बेदी और राज्य सरकार कई बार आमने-सामने खड़ी नजर आई हैं। किरण बेदी ने उपराज्यपाल बनते ही पुडुचेरी के कामकाज में सीधे दिलचस्पी और दखल शुरू कर दिया। किरण बेदी ने फाइलों को सीधे अपने दफ्तर में मंगाना शुरू कर दिया था और उन पर अधिकारियों को निर्देश देने के आरोप भी लगे थे। ऐसे ही महाराष्ट्र में भी राज्यपाल पर सरकार के कामकाज में दखल देने का आरोप शिवसेना और एनसीपी ने लगाया। दिल्ली की अरविंद केजरीवाल की पिछली सरकार और केंद्र सरकार के बीच टकराव तो सड़क तक नजर आया था।

यह सच है कि भारत की विशालता, विविधता और व्यापकता को देखते हुए और आज के प्रतिस्पर्धी और राजनीतिक-आर्थिक रूप से संवेदनशील माहौल में सभी राज्यों के लिए एक सी नीति या एक सा फैसला लागू नहीं किया जा सकता। हो सकता है कि कोई फैसला किसी एक राज्य के लिए सही हो लेकिन दूसरे राज्य के हितों से टकराता हो, तो इससे संघवाद की भावना पर ही असर पड़ेगा। केंद्र-राज्य संबंधों में गतिरोध की एक प्रमुख वजह वित्त आयोग की कुछ फंड आवंटन की नीतियां भी रही हैं। पूर्ववर्ती सरकारों की तरह 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टीम इंडिया वाली जो बात कही थी, उस पर एक साल भी कायम नहीं रह सके। सत्ता में आते ही पहले कांग्रेस शासन में नियुक्त किए गए राज्यपालों को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया। इसके बाद कई गैर बीजेपी शासित राज्यों की सरकार को अस्थिर करने का काम किया गया। केंद्र की मोदी सरकार ने अरुणाचल और उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार को बेदखल कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया था। अदालत के चलते फैसला बदला। केंद्र और राज्यों के आपसी विवादों में सुप्रीम कोर्ट को ही आखिरी निर्णय देने का प्रावधान है। वाहन अधिनियम में किए गए भारी भरकम बदलावों को अस्वीकार कर कई राज्यों ने इस कानून को शिथिल और लचीला बना दिया था। जीएसटी के भुगतान को लेकर भी केंद्र और राज्य के बीच लगातार टकराव की स्थिति बनी रहती है।

संविधान के अनुच्छेद 263 में ऐसा प्रावधान है, जिससे केन्द्र और राज्य आपसी समन्वय को मजबूत कर सकते हैं। राज्यपाल और उपराज्यपाल इसकी एक महत्वपूर्ण कड़ी है। उनका दायित्व गंभीर है।

(अशोक त्रिपाठी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

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