किशोर क्यों हो रहे हिंसक?

लखनऊ। उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में एक छात्र की हरकत ने समाज को स्तब्ध कर दिया। 14 साल के स्कूली छात्र ने अपने ही सहपाठी को इसलिए गोली मार दी कि स्कूल में बैठने को लेकर उसका और सहपाठी का आपस में झगड़ा हुआ था। इसका बदला लेने के लिए घटना के दूसरे दिन अपनी स्कूल बैग में चाचा की लाइसेंसी पिस्तौल लेकर आए छात्र ने सहपाठी को गोली मार दी। हालाँकि बाद में स्कूल स्टॉप की तत्परता से उसकी गिरफ्तारी हो गई लेकिन समाज में बढ़ते बाल अपराध के मनोविज्ञान ने हमें चौका दिया है।
सामाजिक बदलाव और तकनीकी विकास का मानव जीवन पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा है। सीखने और समझने की क्षमता भी अधिक बढ़ी है। इसका नतीजा है अपराध का ग्राफ तेजी बढ़ना है। भारत में बाल अपराध के आंकड़ों की गति भी हाल के सालों में कई गुना बढ़ी है। जिस अपराध की हम कल्पना नहीं कर सकते हैं, उस कार्य को नाबालिग किशोरों ने कर समाज और व्यवस्था को सोचने पर मजबूर कर दिया है।

निर्भया कांड में भी एक बाल अपराधी की भूमिका अहम रही थीं। बाद में जुवेनाइल अदालत से वह छूट गया था। संयुक्तराष्ट्र 18 साल से कम उम्र के किशोरों को नाबालिग मानता है। जबकि भारत समेत दुनिया भर में बढ़ते बाल अपराध की घटना ने सोचने पर मजबूर किया है। इसकी वजह है कि दुनिया के कई देशों ने नाबालिग की उम्र घटा दिया है। कई देशों में बाल अपराध की सजा बड़ों जैसी है। भारतवर्ष में किसी बच्चे को बाल अपराधी घोषित करने की उम्र 14 वर्ष तथा अधिकतम 18 वर्ष है। इसी तरह मिस्र में 7 वर्ष से 15 वर्ष, ब्रिटेन में 11 से 16 वर्ष तथा ईरान में 11 से 18 वर्ष है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार हाल के सालों में बाल अपराध की घटनाएँ तेजी से बढ़ी हैं।
समाज में इस तरह की घटनाएँ हमारे लिए चिंता का विषय हैं। इसे हम नजरंदाज नहीं कर सकते हैं। अमेरिका जैसे देश में इस तरह की अनगिनत घटनाएँ हुई, लेकिन भारतीय परिप्रेक्ष्य में यह बड़ी बात है। यह घटना साफ तौर पर इंगित करती है हम किस सामजिक बदलाव की तरफ बढ़ रहें हैं। हम असहिष्णु समाज का निर्माण करना चाहते हैं। आने वाली पीढ़ी में संवाद, संयम और सहनशीलता, धैर्य, क्षमा का अभाव दिखने लगा है। 14 साल की उम्र भारतीय समाज में विशेष रूप से सीखने की होती है उस उम्र के किशोर उन्मादी कहाँ से हो गए हैं। हम समाज और आने वाली पीढ़ी को कौन सा माहौल देना चाहते हैं। 14 साल की उम्र का नाबालिग किशोर पिस्तौल में गोली भरना और ट्रिगर दबाना कैसे सीख गया? यह सब तकनीकी विकास और पारिवारिक महौल पर बहुत कुछ निर्भर करता है।
संवेदनशील आग्नेयास्त्र बच्चों की पहुँच तक घर में कैसे सुलभ हो गए। इस तरह के शस्त्र क्या बच्चों की पहुँच से छुपा कर रखने की वस्तु नहीं हैं। फिर इस शस्त्र को घर में इतनी गैर जिम्मेदारी से क्यों रखा गया था? नाबालिग किशोर उस आग्नेयास्त्र तक कैसे पहुँच गया। छात्र के बैग में टिफिन रखते वक्त क्या माँ ने उसका स्कूल बैग चेक नहीं किया। जिस चाचा की पिस्तौल लेकर वह किशोर स्कूल गया था, वह सेना में कार्यरत बताया गया है। अवकाश पर घर आया था, फिर क्या यह उनकी खुद की जिम्मेदारी नहीं बनती थीं कि इस तरह के शस्त्रों को बच्चों की पहुँच से दूर रखा जाय।
निश्चित रूप से हम समाज में जिस माहौल को पैदा कर रहें हैं वह हमारे लिए बेहद दुखदायी है। इंसान ने खुद को टाइम मशीन बना लिया है। वह बच्चों, परिवार, समाज और समूह पर अपना ध्यान ही केंद्रित नहीं कर पा रहा है। अगर थोड़ी सी सतर्कता बरती जाती तो सम्भवतः इस तरह के हादसे को टाला जा सकता था। अगर उस शस्त्र को बच्चों की पहुँच से सुरक्षित स्थान पर किसी लाकर में रखा जाता तो इस तरह की घटना नहीं होती। इस घटना से सबक लेते हुए स्कूल प्रबंधन को भी चाहिए कि स्कूल गेट पर हर छात्र की तलाशी ली जाय, क्योंकि अपराध किसी के चेहरे पर नहीं लिखा है। स्कूलों में मेटल डिटेक्टर भी लगाए जाने चाहिए।
हमने मासूम बच्चों पर स्कूली किताबों का बोझ अधिक लाद दिया है। पढ़ाई और प्रतिस्पर्धा की होड़ में किशोरवय अल्हड़ता को छीन लिया है। आधुनिक जीवन शैली ने सामाजिक परिवेश को जरूरत से अधिक बदल दिया है। हम ने प्रतिस्पर्धी जीवन में बच्चों और परिवार पर समय देना बंद कर दिया है। इसकी वजह से बच्चों में एकाकीपन बढ़ रहा है। बच्चों में चिड़चिड़ापन आता है। परिवार नाम की संस्था और नैतिकमूल्य की उनमें समझ नहीं पैदा होती। उन्हें समाज, परिवार जैसे संस्कार ही नहीँ मिल पाते। शहरों में माँ- बाप के कामकाजी होने से यह समस्या और बड़ी और गहरी बन जाती है। क्योंकि इस तरह के परिवार में बच्चों के लिए समय ही नहीँ बचता है। स्कूल से आने के बाद बच्चों पर टयूशन और होमवर्क का बोझ बढ़ रहा है। माँ- बाप बच्चों को समय नहीँ दे पाते हैं। दादा- दादी का तो वक्त खत्म हो चला है, नहीँ तो कम से कम शिक्षाप्रद कहानियों के माध्यम से बच्चों का मार्गदर्शन होता था।
मनोचिकित्सक डा. मनोज तिवारी मानते हैं कि किशोरों में बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति के पीछे अभिभावक भी हैं। क्योंकि बच्चों पर वे उचित ध्यान नहीँ दे पाते हैं। दूसरी वजह कई परिवारों में माता-पिता में आपसी संबंध सही न होने से बच्चों को समुचित समय नही मिल पाता है। किशोरों द्वारा हिंसक वीडियो गेम खेलने से भी उनके मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ता है जिसकी वजह से उनमें हिंसक प्रवृति बढ़ती है। किशोरों में सांवेगिक नियंत्रण की कमी होती है और वे फैसले अपने संवेग के आधार पर लेते हैं। डा.तिवारी के अनुसार किशोरवय के साथ हम क्रोध के बजाय मित्रवत व्यवहार करें। उनके साथ साथ खेलें और बातचीत करें। उन्हें अधिक समय तक मोबाइल एवं टेलीविजन के साथ अकेले न छोड़े। बच्चों को अकेले बहुत अधिक समय व्यतीत न करने दें। बच्चे के व्यवहार में किसी भी तरह के असामान्य परिवर्तन होने पर उसके कारणों को जानने का प्रयास करें और संभव हो तो मनोवैज्ञानिक परामर्श लें।
हालाँकि कोरोना काल में स्थितियां बदली हैं। वर्क फ्रॉम होम और स्कूली तालाबंदी होने से अभिभावकों ने बच्चों को काफी वक्त दिया है। कोविड- 19 से वैश्विक अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका भले लगा हो, लेकिन परिवार नाम की संस्था का मतलब लोगों के समझ में आ गया है। इसके पूर्व शहरी जीवन में बच्चों को बड़ी मुश्किल से रविवार उपलब्ध हो पाता था। जिसमें माँ- बाप बच्चों के लिए समय निकाल पाते थे, लेकिन कोरोना ने परिवार नामक संस्था को मजबूत किया है। बुलंदशहर की घटना हमारे लिए बड़ा सबक है। हमें बच्चों के लिए समय निकालना होगा। किताबी ज्ञान के इतर हमें पारिवारिक और सामाजिक शिक्षा भी बच्चों को देनी होगी।
किशोर उम्र बेहद नाजुक होती है यह अपनी दिशा तेजी से तय करती है। आपका बच्चा स्कूल और कॉलेज जा रहा है तो वहाँ क्या कर रहा है उसकी निगरानी भी आपको करनी है। बच्चे से मित्रवत व्यवहार रखें। बच्चों की स्कूल बैग टिफिन के बहाने देखें। हम देखें कि स्कूल बैग में कोई ऐसी वस्तु तो नहीँ रखी है जिससे उसके बुरे व्यवहार का पता चलता हो। बच्चों को समय दें और शाम को स्कूली दिनचर्या के बारे में जानकारी लें। स्कूल और टयूशन शिक्षक से भी सम्पर्क बनाएं रखें। इन सब बातों से आप उसकी गतिविधियों पर नजर रख कर माँ-बाप के रूप में एक नैतिक शिक्षक खुद बन सकते हैं और बच्चों में बढ़ते अपराध की प्रवृत्ति को नियंत्रित कर सकते हैं। (हिफी)