विपक्ष को मुद्दा सौंपने का निरर्थक पत्र
नई दिल्ली। मंत्रिपरिषद से त्यागपत्र देना प्रत्येक सदस्य का अधिकार है। संविधान में इसकी प्रक्रिया का उल्लेख है। प्रदेश मंत्रिपरिषद के सदस्य सीधे राज्यपाल को अपना त्यागपत्र सौप सकते हैं किन्तु इस्तीफे के नाम पर विपक्ष को मुद्दा सौपना अलग विषय है। योगी सरकार के राज्यमंत्री दिनेश खटीक ने जाने अनजाने यही किया है। अब वह सामान्य रूप से अपना कार्य कर रहे हैं लेकिन उनके एक कदम से सरकार और भाजपा दोनों को अप्रिय स्थिति का सामना करना पड़ा। द्रोपदी मुर्मू के राष्ट्रपति निर्वाचित होने के समय इस प्रसंग का उठना विशेष रूप से आपत्ति जनक था।भाजपा हाईकमान की पहल पर पहले राम नाथ कोविद राष्ट्रपति बने थे। उनका स्थान वनवासी समुदाय की द्रोपदी मुर्मू लेंगी। डॉ आंबेडकर पंच तीर्थ को भाजपा सरकार ने ही भव्य रूप में प्रतिष्ठित किया। मोदी और योगी सरकार ने दलितों का जीवन स्तर उठाने में अभूतपूर्व कार्य किया है। दिनेश खटीक के एक पत्र पर उस भाजपा पर विपक्ष टिप्पणी कर रहा है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की ईमानदारी और सुशासन के प्रति निष्ठा निर्विवाद है। उनकी पिछली सरकार ने इस दृष्टि से मिसाल कायम की थी जबकि इसके पहले प्रदेश सरकारों पर अनेक आरोप लगा करते थे जिसके चलते सत्ता में उनकी वापसी नहीं हो सकी थी। योगी आदित्यनाथ को दुबारा जनादेश मिला है। उनकी सरकार ने सौ दिन में पिछली बार के मुकाबले अधिक तेजी से कार्य किया है। अल्प अवधि में विकास यात्रा अभूतपूर्व ढंग से आगे बढ़ी है। इस आधार पर अगले पांच वर्ष का आकलन किया गया। यह सही है कि कुछ विभागों में ट्रांसफर को लेकर आरोप लगे हैं। योगी आदित्यनाथ ने इस पर अपनी कार्य शैली के अनुरूप सख्ती दिखाई है। पूर्ववर्ती और योगी सरकार के बीच फर्क साफ दिखाई दे रहा है। योगी कार्रवाई कर रहे हैं। उनको किसी भी दशा में अनियमितता बर्दाश्त नहीं हैं। किसी भी सरकार के लिए यह नाजुक मौका होता है। खासतौर पर ईमानदारी के लिए विख्यात योगी आदित्यनाथ के लिए। सम्बन्धित मंत्रियों को भी अपनी जिम्मेदारी व जवाबदेही समझनी चाहिए। यह अजीब लगता हैं कि विवाद और दोषियों के विरुद्ध किसी मंत्री को यह लगे कि उसकी सुनवाई नहीं हो रही है। भाजपा परिवार आधारित पार्टी नहीं है। इसमें आंतरिक प्रजातंत्र है। मंत्रियों को अपनी बात उचित फोरम पर रखने का अधिकार है लेकिन चार महीने की खामोशी के बाद अपने को लाचार दिखाना अजीब लगता है।
मुख्यमन्त्री सरकार का मुखिया होता है। इसलिए नाजुक समय में सम्बन्धित मंत्रियों को मुख्यमंत्री के संपर्क में रहना चाहिए था। पत्र वायरल करना या प्रदेश की राजधानी छोड़ कर अन्यत्र चले जाना समस्या का समाधान नहीं है। जाहिर है कि योगी सरकार के मंत्री दिनेश खटीक का पत्र चर्चा में है। करीब चार महीने की खामोशी के बाद उन्हें अपनी उपेक्षा का अनुभव हुआ। शायद वह अवसर की तलाश में थे। उनके विभाग में ट्रांसफर पर अनियमितता के आरोप लगे तभी उन्होंने अपना इस्तीफा और पत्र केंद्रीय गृह मंत्री को भेज दिया। यह निर्णय चौकाने वाला था। वह मुख्यमंत्री को प्रकरण की जानकारी दे सकते थे। अपनी व्यथा से उनको अवगत करा सकते थे। इसका समाधान निकल सकता था। राज्यपाल को अपना इस्तीफा दे सकते थे। एक ही बार में उनकी इच्छा पूरी हो जाती। लेकिन इन सहज विकल्पों को छोड़ कर उन्होने प्रचार को महत्त्व दिया। उनके इस्तीफे को स्वीकार करना केंद्रीय गृह मंत्री का कार्य नहीं है। दिनेश खटीक को यह भी बताना चाहिए कि उन्होंने इस्तीफे के लिए यही समय क्यों चुना। ट्रांसफर में गड़बड़ी की बात सामने आने के बाद ही उन्होने पत्र क्यों लिखा। क्या यह प्रसंग नहीं उठता तो क्या वह अपनी स्थिति से संतुष्ट बने रहते। इसके पहले कभी नहीं लगा कि वह अपनी अवहेलना से व्यथित है। कुछ दिन पहले सरकार ने सौ दिन की उपलब्धि का रिपोर्ट कार्ड जारी किया था। प्रदेश में व्यापक स्तर पर कार्यक्रम हुए थे। दिनेश खटीक उसमें सहभागी थे। कहीं भी उनकी नाराजगी दिखाई नहीं दी।जब इतना रुके थे तो कुछ दिन और धैर्य रख लेते। यह द्रोपदी मुर्मू के राष्ट्रपति निर्वाचित होने का समय था। भाजपा हाईकमान की पहल पर देश में पहली बार सर्वोच्च पद पर वनवासी समुदाय की सदस्य प्रतिष्ठित होने जा रही थी। देश में उत्साह का माहौल था। विपक्षी पार्टियों में निराशा थी। इसी समय दिनेश खटीक ने विपक्ष को मुद्दा सौप दिया।वैसे भी राजनीति में व्यक्तिगत मसलों को उससे सम्बन्धित समाज से जोड़ दिया जाता है। इस प्रकरण में भी यही हुआ। नाराज केवल दिनेश खटीक थे। विपक्ष ने भाजपा पर हमला बोल दिया।कहा कि भाजपा में दलितों की उपेक्षा हो रही है। उधर वनवासी महिला के राष्ट्रपति निर्वाचित होने का उत्साह था, इधर दिनेश खटीक का पत्र चर्चा में आ गया। गनीमत यह कि इस प्रकरण को विशेष महत्त्व नहीं मिला क्योंकि जो पार्टियां भाजपा पर आरोप लगा रहीं थीं, वह खुद जवाबदेह थीं। दलितों वंचितों के हित में सर्वाधिक कार्य वर्तमान केंद्र और प्रदेश सरकार ने किए है। अन्य पार्टियों की सरकारें इस मामले में बहुत पीछे छूट गई है। इतना ही नहीं उनकी सरकारों में भी राज्यमंत्री इससे बेहतर स्थिति में नहीं होते थे। ऐसे में एक दिनेश खटीक के पत्र से सच्चाई बदल नहीं सकती।
इसी प्रकार का आचरण स्वामी प्रसाद मौर्य ने किया था पहले वे कहते थे सपा बसपा सरकार ने दलितों वंचितों के लिए जितना कार्य किया उससे अधिक योगी सरकार ने पांच वर्ष में करके दिखा दिया। तब वह सपा बसपा को नागनाथ सांपनाथ से विभूषित करते थे। चुनाव के पहले दम घुटने लगा तो निशाना बदल दिया। सपा अच्छी लगने लगी, उसकी जगह भाजपा नागनाथ हो गई। स्वामी प्रसाद ने अपने को खुद ही नेवला घोषित किया था। लेकिन क्षेत्र बदलने के बाद वह विधानसभा नहीं पहुँच सके थे। कभी वह अखिलेश यादव को सर्वाधिक विफल मुख्यमन्त्री कहते थे, आज उनके साथ हैं। ऐसे लोग अगले चुनाव तक कहाँ होंगे,यह कोई नहीं जानता।
संविधान निर्माताओं ने भारत में संसदीय शासन व्यवस्था स्थापित की है। इसमें मंत्रिपरिषद सामूहिक उत्तरदायित्व की भावना से कार्य करती है। इसके अनुरूप मंत्री बनने के लिए पद के साथ गोपनीयता की शपथ लेनी पड़ती है। यदि विधानमंडल किसी एक मंत्री के विरुद्ध निंदा प्रस्ताव पारित कर दे तो पूरी मंत्री परिषद को त्यागपत्र देना होता है। यह संसदीय प्रणाली के सामूहिक उत्तर दायित्व का तकाजा है। मंत्रिमंडल के निर्णय सामूहिक उत्तरदायित्व के अनुरूप ही सार्वजनिक किए जाते हैं। यह संविधान की व्यवस्था व भावना है। उनका एक अधिकार अवश्य सुरक्षित रहता है। वह किसी भी समय अपने मंत्री पद से त्याग पत्र दे सकते हैं। यदि मंत्री को लगता है कि सरकार गरीब, वंचित, दलित, पिछड़ा, किसान विरोधी है,या उसके विचारों को महत्व नहीं मिल रहा है, तो वह मंत्री परिषद से अपने को अलग कर सकता है। लेकिन नैतिक रूप में इसके लिए
आरोप तर्क संगत होने चाहिए। अन्यथा खुद की छवि पर ही प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। (हिफी)
(डॉ दिलीप अग्निहोत्री-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)