UP की जनता को रास नहीं आती गठबंधन की राजनीति

UP की जनता को रास नहीं आती गठबंधन की राजनीति

लखनऊ। उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव की सियासी सरगर्मियां बढ़ने के साथ राजनीतिक गठजोड़ के प्रयास तेज हो गये है मगर पिछले इतिहास पर नजर दौड़ाये तो प्रदेश की जनता को गठबंधन की राजनीति कम ही रास आयी है।

राजनीति में कुछ असंभव न होने का तर्क भी दिया जाता है। ऐसा तर्क देने वाले लोग बीते लोकसभा चुनावों में सपा -बसपा के बीच हुए गठबंधन का उदहारण देते हैं। यह गठबंधन चुनावों के तत्काल बाद टूट गया था। ऐसा नहीं है कि बीते लोकसभा चुनावों में ही गठबंधन की राजनीति फेल हुई है। यूपी के राजनीतिक इतिहास पर यदि नजर डालें तो पता चलता है कि बीते तीन दशक में उत्तर प्रदेश में कई गठबंधन हुए, कुछ चुनाव पूर्व तो कुछ चुनाव बाद, पर इनमें से कोई भी प्रयोग टिकाऊ नहीं रहा है। दूसरे राज्यों के विपरीत उत्तर प्रदेश को गठबंधनों की राजनीति कभी रास नहीं आई। इस राज्य में कोई गठबंधन लंबा नहीं चला और यहां वही जीता है जो जनता के बीच अपने दम पर लड़ता हुआ दिखता है।

समाजवादी पार्टी (सपा) के मुखिया अखिलेश यादव राज्य में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से मुकाबला करने के लिए छोटे दलों को अपने साथ जोड़ते हुए एक बड़ा गठबंधन बनाने का प्रयास कर रहे हैं। अखिलेश के साथ खड़े होने वाले जयंत चौधरी, ओम प्रकाश राजभर सहित कई नेता गठबंधन की राजनीति के पक्ष में बोल रहे हैं, तो बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने गठबंधन कर चुनाव लड़ने की संभावनाओं को सिरे से ही खारिज कर दिया है।

राजनीति विश्लेषकों का मानना है कि उत्तर प्रदेश के लोगों को दूसरे राज्यों के विपरीत गठबंधनों की राजनीति कभी रास नहीं आई। पंजाब, महाराष्ट्र और बिहार जैसे राज्यों से उत्तर प्रदेश की तुलना भी नहीं की जा सकती। पंजाब में भाजपा का शिरोमणि अकाली दल से गठबंधन लंबा चला। महाराष्ट्र में भी बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन लंबे समय तक रहा। बिहार में तो जदयू -भाजपा का गठबंधन एक दशक से ज्यादा चला टूटा और फिर जुड़ा है। इस मामले में अब यूपी की बात करें तो यहां गठबंधन की राजनीति के तमाम संभावित प्रयोग किए जा चुका हैं। यहां तक एक-दूसरे के घोर सियासी विरोधी कम्युनिस्ट और भारतीय जनसंघ भी एक ही सरकार में साथ-साथ रह चुके हैं, पर इनमें कोई भी पांच साल तक सरकार नहीं चला सका। फिर चाहे मुलायम सिंह यादव और कांशीराम की पहल पर हुआ गठबंधन हो या फिर बीते लोकसभा चुनावों में हुआ अखिलेश और मायावती का गठबंधन हो। मुलायम और कांशीराम की पहल पर हुआ गठबंधन करीब दो साल चला और अखिलेश तथा मायावती की पहल पर हुआ गठबंधन बस छह तक ही चला।

यूपी में गठबंधन की राजनीति के इतिहास को देखे तो पता चलता है कि चौधरी चरण सिंह ने पहली बार वर्ष 1967 में अलग-अलग दलों को साथ लेकर सरकार बनाने का प्रयोग किया था। तब चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस से अलग होकर भारतीय क्रांति दल (लोकदल) बनाया और सरकार बनाई। उस सरकार में कम्युनिस्ट पार्टी और जनसंघ भी शामिल हुआ। पर, यह सरकार एक साल भी नहीं चली। चरण सिंह के बाद 1970 में कांग्रेस से अलग हुए विधायकों ने त्रिभुवन नारायण सिंह (टीएन सिंह) के नेतृत्व में साझा सरकार बनाने का प्रयोग किया। इसमें कई अन्य दलों के साथ जनसंघ भी शामिल था, पर यह सरकार छह महीने भी नहीं चली। वर्ष 1977 में आपातकाल लगाने से नाराज राजनीतिक दलों ने 1977 में जनता पार्टी के नाम से फिर एक गठबंधन तैयार किया। फिर बाद में जनसंघ तक की आम सहमति से जनता पार्टी बनाकर चुनाव लड़ा गया।



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