त्रिपुरा में सियासी बदलाव

त्रिपुरा में सियासी बदलाव

नई दिल्ली। राजनीतिक दृष्टि से इन दिनों गुजरात और हिमाचल प्रदेश की ही ज्यादा चर्चा हो रही है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल और उनके डिप्टी सीएम की भी चर्चा आबकारी नीति से ज्यादा गुजरात को लेकर हो रही है। हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव की तारीख की घोषणा हो चुकी है लेकिन गुजरात मंे इन पंक्तियों के लिखे जाने तक चुनाव की तारीख घोषित नहीं हुई थी। वहां भी चुनाव इसी साल के अंत तक होने की संभावना है। चुनावी राज्यों में सरगर्मी एक सामान्य बात है लेकिन पूर्वोत्तर भारत के राज्य त्रिपुरा में अगले साल फरवरी में चुनाव होने हैं और चार महीने पहले ही वहां राजनीतिक भगदड़ शुरू हो गयी। त्रिपुरा वामपंथियों का प्रमुख गढ़ हुआ करता था। आश्चर्यजनक रूप से यहां भाजपा ने सत्ता पर कब्जा जमा लिया। भाजपा ने आईपीएफटी के साथ मिलकर माणिक सरकार की पकड़ ढीली कर दी और कांग्रेस को भी पछाड़ दिया। अब सत्तारूढ़ गठबंधन के पांच विधायकों ने सरकार से नाराजगी दिखाते हुए पाला बदल लिया है। दो विधायक कांग्रेस में शामिल हुए हैं। इससे अनुमान लगाया जा रहा है कि क्या त्रिपुरा में फिर से राजनीतिक बदलाव आएगा? यहां बिप्लब देब की जगह माणिक साहा को मुख्यमंत्री बनाया गया है।

त्रिपुरा में सत्तारूढ़ गठबंधन के पांच विधायकों के दूसरी पार्टियों में जाने के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य माणिक सरकार ने दावा किया 2018 में वाम मोर्चे की सरकार गिराने वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), नेताओं को अपने पाले में बरकरार रखने में नाकाम रही है। सरकार ने यहां एसएफआई के एक राज्य स्तरीय कार्यक्रम में कहा कि पूर्वोत्तर राज्य त्रिपुरा में अब स्थिति बदल गई है और भाजपा के तीन विधायक अलग-अलग दलों में शामिल हो गए हैं, जबकि इंडिजीनियस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) के दो विधायक टिपरा मोथा में चले गए हैं। भाजपा विधायक सुदीप रॉयबर्मन और आशीष साहा कांग्रेस में जबकि बरबू मोहन त्रिपुरा, और आईपीएफटी के धनंजय त्रिपुरा व बृषकेतु देबबर्मा टिपरा मोथा में शामिल हो गए हैं। त्रिपुरा विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष सरकार ने कहा कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के दलबदलू सार्वजनिक रूप से कह रहे हैं कि वे भाजपा की कार्यशैली से निराश और बेहद नाखुश हैं। पूर्व मुख्यमंत्री सरकार ने कहा, चुनाव से पहले यह सत्तारूढ़ दल के लिए एक बड़ा झटका है। त्रिपुरा में अगले साल फरवरी में विधानसभा चुनाव होने हैं। सरकार ने कहा, सभी वाम विरोधी दल 2018 के विधानसभा चुनावों से पहले त्रिपुरा में वाम मोर्चा सरकार को हराने के लिए एक साथ आए थे। इसका परिणाम यह हुआ कि 2018 से पहले पांच प्रतिशत से कम मत प्रतिशत वाली भाजपा ने कांग्रेस और उसके सहयोगी आईएनपीटी का 42 प्रतिशत वोट शेयर हासिल कर लिया। उन्होंने कहा, वाम मोर्चा ने सात से आठ प्रतिशत वोट खो दिए, जिससे भाजपा और उसके सहयोगी आईपीएफटी का मत प्रतिशत लगभग 52 प्रतिशत हो गया और भाजपा चुनाव जीत गई।

दरअसल त्रिपुरा में युवा बिप्लब कुमार देब की जगह अपेक्षाकृत अधिक उम्र वाले डेंटल सर्जन डॉ. माणिक साहा को मुख्यमंत्री नियुक्त करने के फैसले को कई लोग रणनीतिक लिहाज से अहम इस पूर्वोत्तर राज्य में दोबारा जड़ें जमाने की भाजपा की बड़ी कवायद के तौर पर इसे देखा गया। लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज के छात्र रह चुके साहा (69) साल 2016 में भाजपा में शामिल होने से पहले विपक्षी दल कांग्रेस के सदस्य थे। सन् 2020 में बिप्लब देब के त्रिपुरा भाजपा का अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद उन्होंने राज्य में पार्टी की कमान संभाली थी। राज्य के दिग्गज बैडमिंटन खिलाड़ियों में शुमार रह चुके साहा त्रिपुरा क्रिकेट संघ के अध्यक्ष भी हैं। हालांकि, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में साहा का कद उनकी साफ छवि और ट्रैक रिकॉर्ड के कारण बढ़ा, जिसमें नवंबर 2021 में त्रिपुरा में हुए निकाय चुनावों में तृणमूल कांग्रेस से कांटे की टक्कर के बीच सभी 13 नगर निकायों में पार्टी को जीत दिलाना शामिल है। सूत्रों के मुताबिक, मुख्यमंत्री बदलने का फैसला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) द्वारा भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को भेजे गए एक विश्लेषण के बाद आया, जिसमें ये संकेत दिए गए थे कि त्रिपुरा में पार्टी और सरकार में बदलाव करने की जरूरत है।

यह भी बताया गया कि जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं के बीच स्थिति ठीक नहीं चल रही थी, क्योंकि युवा कार्यकर्ताओं का एक वर्ग, जिसे बाइक गैंग कहा जाता है, इस तरह की गतिविधियां कर रहा था, जिससे 'पार्टी की छवि को नुकसान पहुंच रहा था। वरिष्ठ नेता केंद्रीय नेतृत्व को इस मुद्दे पर लगातार पत्र लिख रहे थे। हालांकि, भाजपा के लिए वास्तव में जो बड़ी चुनौती सामने आ रही थी, वह थी राज्य में त्रिपुरा स्वदेशी प्रगतिशील क्षेत्रीय गठबंधन या टिपरा मोथा का अचानक उभरना। टिपरा मोथा शाही वंशज प्रद्योत किशोर देबबर्मा के नेतृत्व वाला एक क्षेत्रीय राजनीतिक दल है, जो त्रिपुरा के आदिवासियों के लिए अलग राज्य की स्थापना की मांग कर रहा है। टिपरा मोथा ने अप्रैल 2021 में हुए त्रिपुरा आदिवासी क्षेत्र स्वशासी जिला परिषद (टीटीएएडीसी) के चुनावों में सत्तारूढ़ भाजपा-आईपीएफटी गठबंधन के साथ सीधे मुकाबले में ग्रेटर टिपरालैंड की मांग के साथ 28 में से 18 सीटों पर जीत दर्ज की थी। अलग राज्य की मांग कई विधानसभा सीटों के नतीजों को प्रभावित कर सकती है, क्योंकि आदिवासी वहां निर्णायक भूमिका में हैं। टिपरा मोथा ने आदिवासियों के लिए अलग राज्य की मांग उठाकर त्रिपुरा की राजनीति का पूरी तरह से ध्रुवीकरण कर दिया था। इससे राज्य के मिश्रित आबादी वाले कुछ इलाकों में तनाव पैदा हो गया था, जहां आदिवासियों की संख्या एक-तिहाई के करीब है। कहते हैं कि भाजपा आदिवासी बहुल इलाकों में टिपरा मोथा के उदय से निपटने की स्थिति में नहीं है और अगले चुनावों में इन क्षेत्रों में उसकी भारी जीत की संभावना जताई जा रही है। यही नहीं, टिपरा मोथा ने कुल 40 सामान्य सीटों में से कम से कम 25 पर उम्मीदवार उतारने की चेतावनी दी है। चूंकि, इन सीटों पर आदिवासी वोटों की संख्या काफी अधिक है, ऐसे में देबबर्मा का समर्थन अगले चुनावों में अहम साबित हो सकता है। इसके अलावा, भाजपा की आदिवासी सहयोगी 'द इंडीजिनस पीपल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) आदिवासी परिषद के पिछले चुनाव में एक भी सीट हासिल नहीं कर पाई थी। यही नहीं, हाल ही में पार्टी को विभाजन का सामना करना पड़ा है और यह दो मौजूदा मंत्रियों के नेतृत्व में बंट गई है। हालात को देखते हुए भाजपा ने संगठन के स्तर पर पार्टी को मजबूत बनाने का निर्णय लिया और अपनी आदिवासी इकाई जनजाति मोर्चा के नेतृत्व में फेरबदल किया। (हिफी)

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