समरसता का संगठित संकल्प

समरसता का संगठित संकल्प

नई दिल्ली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने स्थापना काल से ही सहज स्वाभाविक समरसता को महत्त्व दिया। संघ के कार्यक्रमों में उसी समय से बिना किसी भेदभाव के सहभोज आयोजित होते रहे हैं। इसकी सराहना महात्मा गांधी ने भी की थी।संघ के कार्यक्रमों में जातिगत भेदभाव को कभी महत्त्व नहीं दिया गया।कुछ दिन पहले सर संघचालक मोहन भागवत ने जाति विहीन व्यवस्था कायम करने का आह्वान किया था। शरद पूर्णिमा उत्सव में भी संघ की समरसता प्रत्यक्ष रूप में दिखाई देती है। इस बार डॉ मोहन भागवत शरद पूर्णिमा को कानपुर पहुँचे थे।रात्री में संघ की शाखाओं में खीर बनाने और उसके वितरण का कार्यक्रम होता है।इसके पहले डॉ मोहन भागवत कई कार्यक्रमों में शामिल हुए। कानपुर प्रांत में आयोजित स्वर संगम घोष शिविर के चौथे दिन रविवार को स्वयंसेवकों ने पथ संचलन किया। पथ संचलन का निरीक्षण कंपनी बाग चौराहे पर सर संघचालक डॉ। मोहन भागवत ने किया। पहली टोली गंगा बैराज होते हुए वापस विद्यालय लौट गई जबकि दूसरी टोली कोहना से होते हुए कंपनी बाग पहुंची थी।

शरद पूर्णिमा पर आयोजित कार्यक्रम में उन्होंने महर्षि बाल्मीकि की प्रतिमा का पूजन किया। डॉ। भागवत ने वाल्मीकि जयंती पर फूलबाग के नानाराव पार्क में आयोजित कार्यक्रम को संबोधित किया।उन्होने कहा कि वाल्मीकि समाज विद्वान धर्मचरित्र को धारण करने वाले वाल्मीकि भगवान की पूजा करता है। वह भगवान जिन्होंने ऐसे आदर्श चरित्रवाले राजा राम का जीवन परिचय प्रस्तुत किया। ऐसे भगवान को पूरे विश्व में पूजा जाना चाहिये। महर्षि वाल्मीकि ने अपने ग्रंथ में करुणा को धर्म का एक पैर बताया है। उन्होने कहा कि हिंदू समाज को वाल्मीकि समाज पर गर्व करना चाहिए। भगवान राम को हिंदू समाज से परिचित कराने वाले भगवान वाल्मीकि ही थे। वह अगर रामायण नहीं लिखते तो आज हिंदू समाज को भगवान राम नहीं मिलते। इतना ही नहीं भगवती सीता को बेटी की तरह वाल्मीकि ने ही रखा था। उनके दोनों पुत्रों का लालन-पालन भी उन्हीं के आश्रम में हुआ था। वाल्मीकि जयंती हमारे लिए राष्ट्रीय उत्सव है। संघ अपनी पूरी ताकत के साथ वाल्मीकि समाज के साथ खड़ा है। हमारे लोग आपके पास स्वयं आएंगे। आपको आने की जरूरत नहीं। उन्हें पता है कि पूरा हिंदू समाज हमारा है। ये समाज अपना है। सामाजिक स्वतंत्रता के लिए द्वितीय सरसंघचालक गुरुजी ने कार्य शुरू किया। वह आज भी अनवरत जारी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वाल्मीकि समाज के बीच लगातार पहुंच रहा है।भारत माता को परम वैभव तक पहुंचाना है यही हमारा लक्ष्य है।

अलग हो सकते हैं। कुछ दिन पहले डॉ मोहन भागवत ने कहा था कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से पश्चिमी देशों में राष्ट्रवाद को लेकर एक संशय का भाव रहा है। भारत में राष्ट्रवाद की अवधारणा राष्ट्रीयता से जुड़ी है। यह किसी के विरुद्ध नहीं है। भारत में हिटलर जैसा कोई व्यक्ति होता तो जनता उसे पहले ही अस्वीकार कर हटा चुकी होती। ऐसी सोच हमारे संस्कारों में नहीं है। भारत और विश्व के अन्य देशों में राष्ट्रीयता का विकास अलग ढंग से हुआ है। विश्व के अन्य देशों की राष्ट्रीयता मानव निर्मित है। भारत में यह संस्कारों पर आधारित है। यह संस्कार हमें भारत भूमि से मिले हैं जिसे हम माता के रूप में देखते हैं। अंग्रेजों ने अपने स्वार्थ में यह बताया कि अलग रहने पर लाभ मिलेगा। जिससे भारत का विभाजन हुआ। इस समस्या का समाधान संवाद से संभव है। भारत के व्यक्ति, समाज और देश सभी के स्वभाव में अपना पेट भरने के बाद निःस्वार्थ सहायता का बोध होता है। कुछ प्रसंगों में व्यक्ति और समाज पहले दूसरे को खिलाने के बाद में अपना विचार करते हुए दिखाई देते हैं। एक ओर जहां दुनिया के अन्य देश दूसरों की मुसीबत में खुद के लिए अवसर खोजते दिखाई देते हैं वहीं भारत निःस्वार्थ भाव से सहायता करता है। श्रीलंका के बिगड़े हुए आर्थिक हालात में भारत ने निःस्वार्थ भाव से सहायता की। यूक्रेन युद्ध के दौरान अपने नागरिकों का रेस्क्यू करते हुए दूसरे लोगों को भी मदद पहुंचाई। लेबनान को पानी पहुंचाने से लेकर प्राकृतिक आपदा के समय दूसरे देशों को मदद पहुंचाते समय भारत का रवैया निःस्वार्थ रहा है। कुछ वर्षों पहले विश्व व्यापार संगठन ने समूचे जगत पर विकास का एक ही मॉडल थोपने का प्रयास किया था।लेकिन कई वर्षों के प्रयास के बावजूद वह असफल रहे। उसके बाद डब्ल्यूटीओ ने यह स्वीकार किया कि हर देश की सभ्यता,सोच अलग होती है, विकास का मॉडल भी उसी के अनुरूप होना चाहिए। भारतीय विकास की अवधारणा में समाज के हर वर्ग का विचार है।

कानपुर में महर्षि वाल्मीकि जन्मोत्सव समिति के अध्यक्ष किशन लाल ने कहा कि राम के जीवन का परिचय कराने वाले भगवान वाल्मीकि थे। संघ भी समाज के लिए चिन्तन करता है। वाल्मीकि समाज जिस तरह मर्यादा पुरूषोत्तम राम शबरी के घर पहुंचे और उनके जूठे बेर खाया और उन्होंने समानता का संदेश दिया। ठीक उसी तरह आज हमारा समाज गौरव महसूस कर रहा है। हमारे समाज के लोगों को आज मिठाई मिल गई है। हमारे देश को डॉ।भीमराव अम्बेडकर ने समता मूलक समाज पर आधारित ग्रन्थ दिया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक प्रथम सरसंघचालक ने समतामूलक समाज की परिकल्पना की है। जाति एवं वर्ग विहिन समाज तैयार करने के लिए लगातार संघ अनवरत एक दिशा में राष्ट्र को ले जाने के लिए अविरल बहने गंगा की तरह आगे बढ़ता जा रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कानपुर प्रांत का पांच दिवसीय स्वर संगम घोष शिविर आयोजित किया गया था। जिसमें इक्कीस जिलों के करीब पंद्रह सौ स्वयंसेवक सत्तर प्रकार के वाद्य यंत्रों के साथ सहभागी हुए।पांच दिवसीय शिविर में एक दिन भारतीय संस्कृति के नाम रहा। जिनमें लोकगीत और शास्त्रीय संगीत गायन जैसे कार्यक्रम आयोजित किए गए थे। यह संदेश दिया गया कि यह वाद्य यंत्र मनोरंजन के अलावा मन के उन्नयन के भी साधन हैं। इसलिए देश की युवा पीढ़ी न सिर्फ इनके महत्व को समझें बल्कि देवी-देवताओं के पास भी रहने वाले वाद्य यंत्रों के महत्व को समझते हुए उन्हें अंगीकार करें। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में दशहरा के दिन नागपुर में हुई थी। संघ की स्थापना के दो वर्ष बाद 1927 में घोष वादन का कार्यक्रम प्रारंभ किया गया था। घोष विभिन्न प्रकार के वाद्य यंत्रों के श्रेष्ठ वादक संघ में है।

कानपुर में वाद्य यंत्रों की प्रदर्शनी भी लगाई गई थी।इसमें पारंपरिक वाद्य यंत्र तबला,सितार, तानपुरा,शहनाई, पखावज,बांसुरी, ढोलक,आधुनिक वाद्ययंत्र इलेक्ट्रॉनिक की बोर्ड,गिटार,सैक्सोफोन, ट्म्पेट,जांजड्म,कोगा हैं। ऐसे भी वाद्य यंत्रों का प्रदर्शन भी किया गया। जो प्रायः विलुप्त हो गए हैं। इनमें पैर से धौंक कर बजाया जाने वाला हारमोनियम, दिलरूबा, चमेली और मेन्डोलिन आदि हैं। संघ में प्रयोग होने वाले तूर्य,प्रणव, वेणु,नागांग,आनक आदि वाद्य यंत्रों का प्रदर्शन किया गया।

डॉ मोहन भागवत ने कहा कि ध्वनि का नाद यदि संगीत मय हो जाये तो वह स्वर कहलाता है। स्वर और ताल के मिलने से संगीत बनता है। संगीत के ताल से आप के कदम जब मिलेंगे तब संचलन ठीक होगा। संघ के कार्यक्रमों को देखकर समाज प्रभावित होता है। क्योंकि हम इसे लग्न तथा अनुशासन से करते हैं। हमारा कार्य प्रति दिन चौबीस घंटे अनवरत चलता रहता है। भारत की राष्ट्रीयता सांस्कृतिक एकता के सूत्र में बंधी हुई है। (हिफी)

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