पहली बार वनवासी समुदाय की महिला देश के सर्वोच्च पद पर हुई है आसीन।
लखनऊ। अस्सी प्रतिशत से अधिक मतदाताओं का मिला समर्थन। द्रौपदी मुर्मू ने विधिवत राष्ट्रपति का पदभार ग्रहण किया।यह केवल वनवासी समुदाय ही नहीं देश के लिए गौरव का विषय है। पहली बार वनवासी समुदाय की महिला देश के सर्वोच्च पद पर आसीन हुई हैं। उन्हें अस्सी प्रतिशत से अधिक मतदाताओं का समर्थन मिला था जबकि विपक्ष को इस चुनाव में भारी फजीहत झेलनी पड़ी। विपक्ष की अधिकांश पार्टियों को क्रास वोटिंग का सामना करना पड़ा। इस चुनाव ने विपक्ष की छवि को धूमिल किया है। यह संदेश गया कि उसे वनवासी समुदाय की प्रतिष्ठा और सम्मान रास नहीं आ रहा था। इसलिए उसने द्रौपदी मुर्मू के मार्ग में बाधा उत्पन्न करने का प्रयास किया। यह बात अलग है कि उसके प्रयास सफल नहीं हुए। चुनाव लड़ना विपक्ष का अधिकार है। संविधान में उल्लिखित अर्हता को पूरा करने वाला कोई भी व्यक्ति चुनाव लड़ सकता है लेकिन इस बार सर्वोच्च पद के लिए राष्ट्रीय सहमति दिखनी चाहिए थी। पहली बार वनवासी समुदाय की प्रतिनिधि को अवसर मिल रहा था। उनके प्रति देश में उत्सव जैसा माहौल था लेकिन विपक्षी नेता राष्ट्रीय सहमति से अलग दिखाई दिए। वह जनभावना को समझने में नाकाम रहे। यशवन्त सिन्हा के प्रति जनमानस का कोई लगाव नहीं था।
वस्तुतः विपक्ष द्रौपदी मुर्मू के मुकाबले उपयुक्त उम्मीदवार तलाशने में नाकाम रहा था। पिछले कुछ वर्षों की अवधि में यशवन्त सिन्हा की राजनीति गरिमा के अनुरूप नहीं थी। नरेन्द्र मोदी को लेकर उनमें कुंठा और पूर्वाग्रह था। मोदी के विरोध में उठने वाली प्रत्येक आवाज के पीछे वह चलने को सदैव कटिबद्ध रहते थे। इनमें राजनीति की नई पौध भी शामिल थी। अंततः उन्हें तृणमूल कांग्रेस में पनाह मिली। तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी के प्रयास से ही वह उम्मीदवार बने थे। इसे विपक्ष की वैचारिक कमजोरी के रूप में देखना चाहिए।पिछले आठ वर्षो की राजनीति ने यशवन्त सिन्हा को शीर्ष पद के लिए अनुपयुक्त बना दिया था। यह बात उनके चुनाव प्रचार से भी प्रमाणित हो गई थी। इस प्रकार के चुनाव प्रचार ने विपक्ष की स्थिति हास्यास्पद बना दी थी। ममता बनर्जी ने इस दशा को सबसे पहले पहचान लिया था। इसलिए उन्होंने यशवन्त सिन्हा को चुनाव प्रचार हेतु पश्चिम बंगाल आमंत्रित नहीं किया। यह भी कहा कि नरेन्द्र मोदी पहले बताते तो वह यशवन्त सिन्हा को उम्मीदवार ना बनती। इस प्रकार यशवन्त सिन्हा को उम्मीदवार बनाने वालों ने ही उन्हें अनुपयुक्त मान लिया था। प्रचार के दौरान ही सबको वास्तविकता दिखाई देने लगी थी। अब तृणमूल कांग्रेस कह रही है कि यशवन्त सिन्हा उनकी पसंद नहीं थे। उन्हें कांग्रेस और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने संयुक्त रूप से उम्मीदवार बनाया था।
इधर, उत्तर प्रदेश में भी विपक्ष यशवन्त सिन्हा को लेकर विभाजित हो गई। प्रसपा अध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव ने यशवंत सिन्हा के समर्थन पर अखिलेश यादव से पुनर्विचार करने की अपील की थी। उन्होंने पत्र में लिखा कि यशवन्त सिन्हा ने सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव की आईएसआई एजेंट बताया था। ऐसे में यशवन्त को समर्थन देने पर सपा को पुनर्विचार करना चाहिए। शिवपाल ने यह पत्र ट्विटर पर शेयर किया था। पत्र के साथ उन्होंने यशवंत सिन्हा के बयान वाले समाचार पत्र की कटिंग भी लगाई थी। उनका कहना था कि यह बेहद गंभीर और संवेदनशील विषय है। यह नियति की अजीब विडंबना है कि सपा ने राष्ट्रपति चुनाव में उस व्यक्ति का समर्थन किया है, जिसने रक्षा मंत्रित्वकाल में मुलायम को पाकिस्तानी गुप्तचर संस्था आईएसआई का एजेंट बताया था। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सपा को राष्ट्रपति उम्मीदवार के रूप में समाजवादी विरासत वाला नाम नहीं मिला। मुलायम सिंह को अपमानित करने वाले व्यक्ति का राष्ट्रपति चुनाव में सपा समर्थन कर रही थी। यशवन्त सिन्हा का लखनऊ पहुँचने पर अखिलेश यादव द्वारा स्वागत किया गया। उनकी प्रेस वार्ता में भी पार्टी नेता सहभागी थे। दूसरी तरफ शिवपाल यादव और ओम प्रकाश राजभर से समर्थन मांगने की जरूरत नहीं समझी गई। जबकि इन सहयोगी दलों का कहना था कि जो समर्थन मांगेगा, उसी को दिया जाएगा।
शिवपाल के अनुसार यशवन्त सिन्हा को समर्थन देकर सपा मजाक का पात्र बनकर रह गई है। देवगौड़ा सरकार में यशवंत सिन्हा भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता थे। उस दौरान उन्होंने मुलायम सिंह यादव को आईएसआई का एजेंट बताया था। इसी प्रकार सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी सुभासपा अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर ने भी द्रौपदी मुर्मू को समर्थन दिया था। आजम खां भी नाराज बताए गए। उन्हांेने सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष पर तंज कसा। कहा कि मैंने कभी अखिलेश यादव को धूप में खड़ा नहीं देखा। ओम प्रकाश राजभर ने भी उन्हें एसी से बाहर निकलने की नसीहत दी थी। जाहिर है कि राष्ट्रपति चुनाव ने विपक्ष की सभी पार्टियों को किसी न किसी प्रकार नुकसान पहुंचाया है। राष्ट्रपति निर्वाचक मण्डल में 776 सांसद और 4033 विधायक थे। राजग ने इसमें एकजुटता दिखाई। दूसरी तरफ संप्रग को अंतरिक विरोध का सामना करना पड़ा। बीजू जनता दल, बहुजन समाज पार्टी, शिरोमणि अकाली दल, शिवसेना और झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसे क्षेत्रीय दलों के समर्थन के साथ मुर्मू की वोट हिस्सेदारी लगभग दो तिहाई तक गयी थी। ममता बनर्जी ने भी स्वीकार किया था कि राष्ट्रपति चुनाव के लिए एनडीए के उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू के जीतने की संभावना अधिक है। लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी ने ममता बनर्जी को भाजपा का एजेंट करार दिया था। यह संप्रग की दशा दिशा थी। यशवन्त सिन्हा को उम्मीदवार बना कर सभी दल एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे थे।
अन्य नेताओं की बात दूर यशवंत सिन्हा की पत्नी ने भी निराशा व्यक्त की थी। उनका कहना था कि भाजपा के पास बहुमत। उनका उम्मीदवार भी अच्छा है। जाहिर है कि नरेन्द्र मोदी के प्रति दुराग्रह से पीड़ित कुछ नेताओं ने द्रोपदी मुर्मू के निर्विरोध निर्वाचन को बाधित कर दिया था। लेकिन ऐसा करते समय उनकी अपनी छवि पर ही प्रतिकूल असर हुआ है। (हिफी)
(डॉ दिलीप अग्निहोत्री-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)