कोई तरस रहा तो कोई बरस रहा
लखनऊ। हमारे जनप्रतिनिधि कभी राम हुआ करते थे तो कभी योगेश्वर कृष्ण। ऋषि मुनि के रूप में भी हमारा मार्गदर्शन करने वालों की कमी नहीं रही। इसीलिए वे अमर हैं, भगवान हैं। हमने उनके नाम पर गोत्र बनाए, उन्हे पूर्वज मानकर किसी न किसी बहाने याद करते हैं।उनकी यशगाथाएं दोहराते रहते हैं। देश को गुलामी से मुक्त कराने वाली ज्ञात-अज्ञात विभूतियां भी प्रातः स्मरणीय हैं क्योंकि इन सभी को अपने से ज्यादा जन की चिंता रहती थी। इन सबके विपरीत आज सियासत के तमाशे में ऐसे प्रतिनिधि देखने को नहीं मिल रहे हैं।
कोरोना जैसी महामारी के चलते हमारे देश में भी 57 फीसद लोगों को नौकरी जाने का डर है। कारोबार ठप हो जाने से लोगों की कमायी पर असर पड़ा है । कथित जनप्रतिनिधि इन सब बातों से बे खबर हैं। उनके पास पैसे की कमी नहीं है। चुनाव लड़ने में कितने पैसे फूंक दिये जाते हैं, इसका ईमानदारी से हिसाब देना मुश्किल है। कुछ दिनों बाद ही बिहार में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। इसके साथ ही अन्य प्रदेशों में लोकसभा की एक और विधानसभा की 59 सीटों पर उपचुनाव होने हैं। चुनाव आयोग के सुझाव पर सरकार ने लोक सभा, विधानसभा चुनाव में प्रत्याशियों के खर्च की सीमा 10 फीसद बढा दी है।
एक तरफ रोजी रोटी के लाले, दूसरी तरफ रुपये फूंकने की प्रतिस्पर्धा। इसे राजनीतिक तमाशा नहीं तो और क्या कहा जा सकता है? वल्र्ड इकोनामिक फोरम के ताजा सर्वे में यह खुलासा किया गया है कि कोरोना काल में हजारों लोगों की नौकरियां चली गयी हैं। हमारे देश में कोरोना महामारी से धीरे धीरे राहत मिल रही है लेकिन इसके बावजूद देश में अगले बारह महीनों में 57फीसद लोगों को नौकरी जाने का भय सता रहा है। रूस में सबसे ज्यादा अर्थात 75 फीसद लोग अपनी नौकरी को लेकर आशंकित हैं। दुनिया भर में 27 देशों के बारह हजार लोगों के बीच यह सर्वे किया गया। सर्वे में दो तिहाई नौकरीपेशा लोगों ने माना कि वे नये कौशल सीखने की कोशिश कर रहे हैं ताकि नौकरी को सुरक्षित बना सकें। ऐसा सोचने वाले भारत में 80 फीसद से ज्यादा लोग थे। नौकरी जाने का सबसे ज्यादा डर रूस 75, स्पेन 73, मलेशिया 71, पेरू 68 और इतने ही फीसद जाम्बिया के लोगों में है। इन्ही देशों के समकक्ष हमारा देश भारत भी है, जहां 57 फीसद लोगों को नौकरी जाने का डर है। नौकरी पेशा लोगों के साथ ही खोमचेवाले से लेकर छोटी मोटी दुकान लगाने वाले तक भीषण आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं। इनको आर्थिक मदद की जरूरत है।
मदद वही कर सकते हैं जिनके पास जरूरत से ज्यादा पैसा है। सरकार की बात छोड़ दीजिए । उसकी अंकगणित अलग है। मोदी सरकार ने आर्थिक पैकेज दिये हैं और आगे की संभावना भी खुली है। हम बात उस पैसे की कर रहे हैं जो सियासत के नाम पर खर्च हो रहा है। चुनाव में उम्मीदवार को सरकारी खजाने में निर्धारित धनराशि जमानत के रूप में जमा करनी होती है। यह धनराशि भी एक टोकनमनी जैसी है ताकि यह पता चल सके कि लोकतंत्र की इस प्रक्रिया को कितनी गंभीरता से लिया जाता है। इसीलिए यह कानून बना दिया गया है कि तय प्रतिशत से कम वोट मिलने पर जमानत राशि जब्त कर ली जाएगी। कहने की जरूरत नहीं कि ज्यादा तर लोगों की जमानत राशि जब्त ही हो जाती है। इसके बाद भी सभी उम्मीदवार चाहते थे कि चुनाव खर्च की सीमा बढा दी जाए। सरकार ने चुनाव आयोग के सुझाव पर चुनाव खर्च की सीमा को 10 प्रतिशत बढा दिया है। भारत के कानून मंत्रालय द्वारा 19 अक्टूबर की रात जारी अधिसूचना के अनुसार लोकसभा का उम्मीदवार अब 70 लाख की जगह 77 लाख तक खर्च कर सकता है। इसी प्रकार विधानसभा चुनाव में कोई उम्मीदवार अब 28 लाख रुपए की जगह 30.8 लाख तक खर्च कर सकते हैं। यह खर्च सरकारी खजाने में जमा की गयी जमानत राशि के अतिरिक्त होती है।
जमानत राशि हर चुनाव के आधार पर चुनाव आयोग की तरफ से तय की जाती है। पंचायत से लेकर लोकसभा तक जमानत राशि सामान्य वर्ग और आरक्षित वर्ग के लिए अलग अलग होती है। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951की धारा 34 (1)(ए) के अनुसार विधानसभा चुनाव में सामान्य वर्ग के उम्मीदवार को 10 हजार रुपये और अनुसूचित जनजाति व अनुसूचित जनजाति के प्रताशी को 5 हजार रुपये जमानत के तौर पर जमा करने पडते हैं। इससे पहले यह राशि क्रमशः 250 रुपये और 125 रुपए हुआ करती थी। सन 2009 में इस नियम में बदलाव किया गया था। इसी प्रकार लोकसभा चुनाव के लिए सामान्य वर्ग के उम्मीदवार को 25 हजार रुपये और अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवार को 12500 रुपये जमानत के तौर पर जमा करने पडते हैं। इससे पहले लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवार को क्रमशः 10 हजार रुपये और 5 हजार जमानत के रूप में जमा करने पड़ते थे। चुनाव में कुल वैध वोटों के छठे हिस्से से कम अर्थात 16.6 फीसद भी मत हासिल न कर पाने वाले प्रत्याशी की जमानत राशि जब्त हो जाती है। उदाहरण के लिए यदि किसी चुनाव क्षेत्र में कुल एक लाख वैध मत पड़े और किसी प्रत्याशी को 16666 से कम मत हासिल हो पाए तो उसकी जमानत जब्त हो जाएगी। जमानत राशि जब्त होने का पैसा चुनाव आयोग के खाते में जाता है।
बिहार से लेकर जहां भी चुनाव हो रहे हैं, प्रचार के नाम पर पैसा बहाया जा रहा है। इसके लिए किसी एक दल को कठघरे में नहीं खड़ा किया जा सकता। बडे राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों को जनता अच्छी तरह समझती भी है। ये लोग अगर चुनाव प्रचार पर फिजूल में पैसा खर्च न करके अपने चुनाव क्षेत्र में रोजगार का कोई उपक्रम तैयार करें तो वे सच्चे प्रतिनिधि माने जाएंगे। इस तरफ किसी का ध्यान तक नहीं जाता। कोरोना के चलते इस बार रैलियां कम होने की बात कही जा रही थी लेकिन सोशल डिस्टेंसिंग की जमकर धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं। चुनाव प्रचार में वर्चुअल रैली के नाम पर भी करोड़ों रुपये खर्च किये गये। अब रैलियां हो रही हैं। बिहार की ही बात करें तो वहां प्रवासी मजदूरों को रोजगार देने के लिए किसी नेता ने पांच हजार भी नहीं दिये लेकिन चुनाव प्रचार में पचासों हजार खर्च कर देंगे। (अशोक त्रिपाठी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)