सन्डे स्पेशल - सियासी संकट में है मुज़फ्फरनगर के तीन मुस्लिम घराने
मुजफ्फरनगर। पिछले चार दशक से मुजफ्फरनगर की सियासत में सितारों की तरह चमकने वाली तीन बड़ी मुसलिम सियासी फैमिली वर्तमान में हाशिये पर चली गई है। मुजफ्फरनगर दंगों के बाद पूरी तरह से सियासी संकट में मुज़फ्फरनगर की तीन सियासी मुस्लिम राना , खान और सईद फैमिली पर खोजी न्यूज़ की संडे स्पेशल रिपोर्ट......
मुजफ्फरनगर जनपद की सियासत में वैसे तो बहुत सारे मुस्लिम नेता अपनी सियासत करते हुए राजनीतिक मैदान में डटे रहे, लेकिन मुजफ्फरनगर की मुस्लिम सियासत में 3 परिवारों का बड़ा दखल रहा है। लेकिन वर्तमान में यह तीनों फैमिली सियासत के हाशिए पर पहुँच गयी है। कभी मुस्लिम चेहरे के तौर पर चुनाव में अन्य कैंडिडेट को भी जीत दिलाने का भरोसा देने वाली इन तीन फैमिली की स्थिति 2013 के दंगों के बाद अछूत सी हो गई है। जब 2019 में मुज़फ्फरनगर लोकसभा सीट पर संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार के रूप में चौधरी अजीत सिंह चुनाव लड़ रहे थे तब इन तीनों परिवार को ही चुनाव प्रचार से दूर इसलिए रखा गया था ताकि इसके प्रचार करने से उनको नुकसान ना हो जाये। साल 2022 के विधानसभा चुनाव में भी अगर सलमान सईद को छोड़ दिया जाए तो किसी भी पार्टी ने इन परिवार के लोगो को टिकट देने का भरोसा तो अंतिम समय तक दिया मगर टिकट किसी को नहीं मिला।
जमा में से घट गई सईद फैमली
1969 में मूल रूप से पुरकाजी के रहने वाले सईद मुर्तजा ने मुजफ्फरनगर शहर विधानसभा सीट से चुनाव जीतकर अपने परिवार की सियासत की शुरुआत की थी। इसके बाद सईद मुर्तजा ने भारतीय लोकदल के टिकट पर 1977 में मुजफ्फरनगर लोकसभा का चुनाव जीता था। इसके बाद इनके बेटे सईदुजमां ने अपने पिता की विरासत संभालते हुए 1985 में मुजफ्फरनगर जिले की विधानसभा सीट रही मोरना, वर्तमान में मीरापुर से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीत कर उत्तर प्रदेश सरकार में गृह राज्य मंत्री का दर्जा संभाला था। बाद में भोपा के नईमा कांड में नाम आने के बाद अगली बार सईदुजमां का नंबर मोरना विधानसभा पर जीत के लिए नहीं आया। इसके बाद सईदुजमां ने 1999 में मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट पर कांग्रेस लोकदल के गठबंधन पर चुनाव लड़ा और जीतकर सांसद बन गए।
इसके बाद सईद फैमिली की तीसरी पीढ़ी के रूप में सलमान सईद ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। उन्होंने मुजफ्फरनगर शहर विधानसभा सीट पर चुनाव लड़ा तो उनके हिस्से में हार आई। ऐसे ही 2022 के विधानसभा चुनाव में सलमान सईद ने बसपा के टिकट पर चरथावल विधानसभा से चुनाव लड़ा लेकिन जब नतीजा आया तो उनके सियासी सफर के खात्मे की इसको शुरुआत माना जा सकता है। सईद मुर्तजा से शानदार सियासी सफर शुरू होकर सईद फैमिली की सियासी जमीन सलमान सईद पर आकर खिसक गई है।
सियासत की मुफलिसी जी रही अमीर फैमली
मुजफ्फरनगर की सियासत में अमीर आलम खान का नाम भी मुस्लिम सियासी चेहरे के तौर पर काफी चमकता रहा है। लोकसभा से लेकर राज्यसभा तो विधायक और मंत्री तक अमीर आलम हर चुनाव जीते हैं, मगर वर्तमान में वह भी सियासी हाशिये पर चले गए हैं। अमीर आलम खान ने पहला चुनाव 1985 में विधानसभा का लड़ा। उसके बाद 1989 में भी उनकी जीत हुई। फिर 1996 में अमीर आलम खान तीसरी बार विधायक चुने गए थे। उत्तर प्रदेश सरकार में परिवहन मंत्री रहे अमीर आलम खान ने 1999 में कैराना लोकसभा सीट पर राष्ट्रीय लोकदल के टिकट पर चुनाव लड़ा और वह लोकसभा के सदस्य के रूप में निर्वाचित हो गए। बाद में अमीर आलम खान को उत्तर प्रदेश में वक़्फ़ बोर्ड का चेयरमैन बनाया गया। 2006 में उन्हें समाजवादी पार्टी ने राज्यसभा में भेज दिया था।
अमीर आलम खान के बेटे नवाजिश आलम ने भी साल 2012 में मुजफ्फरनगर जिले में परिसीमन के बाद जब बुढ़ाना के रूप में नई विधानसभा का गठन हुआ तो नवाजिश आलम ने समाजवादी पार्टी के टिकट पर बुढ़ाना विधानसभा से ताल ठोकी और वह विधायक चुन लिए गए। 2017 में जब उन्हें समाजवादी पार्टी ने टिकट देने से मना कर दिया तो उन्होंने मीरापुर विधानसभा सीट पर जाकर बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ा और उनको बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा। उसके बाद अमीर आलम खान और उनके बेटे नवाजिश आलम खान ने राष्ट्रीय लोकदल का दामन थाम लिया और टिकट की दावेदारी की, लेकिन जयंत चौधरी ने उनको किसी भी सीट पर टिकट नहीं दिया। 2022 के चुनाव में अमीर आलम खान और उनके बेटे नवाजिश आलम खान ने कई राजनीतिक दलों का दरवाजा खटखटाया लेकिन किसी भी पार्टी ने उनको टिकट देने से किनारा करके रखा। वर्तमान में स्थिति यह हो गई है कि कभी लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा में जीत कर जाने वाले अमीर आलम खान वर्तमान में मुजफ्फरनगर के एक छोटे से मगर कीमती वक़्फ़ के सचिव के रूप में काम कर रहे हैं।
अब कहीं क़ादिर नहीं रही राना फैमिली
सियासत में कभी चमचमाते सितारे के रूप में चमकने वाली राना फैमिली भी फिलहाल सियासत के मैदान में दिखाई नहीं पड़ रही है। कादिर राना का नाम आने के बाद मुजफ्फरनगर को पहचान लेने के दौर के बाद आज राना फैमिली सियासी समुंदर में डूब रही है। मुजफ्फरनगर नगर पालिका सभासद के रूप में सियासत शुरू करने वाले कादिर राना का नाम सियासत में तब बड़ा हो गया था जब 1993 में सपा बसपा के गठबंधन पर कादिर राना ने मुजफ्फरनगर शहर विधानसभा सीट पर चुनाव लड़ा। चुनाव में कादिर राना चुनाव भले ही हार गए थे मगर जो उन्हें वोट मिली थी उसने अपने आप में एक रिकॉर्ड कायम किया था।
उसके बाद कादिर राना ने मुजफ्फरनगर की सियासत में पलट कर नहीं देखा। 1998 में समाजवादी पार्टी ने उन्हें एमएलसी का चुनाव लड़ाया तो कादिर राना ने एक बड़ी जीत हासिल की थी। उसके बाद 2007 में कादिर राणा मुजफ्फरनगर की मोरना विधानसभा सीट से राष्ट्रीय लोकदल के टिकट पर चुनाव लड़े और विधायक बन गए। यूपी के दोनों सदनों में जाने वाले कादिर राना ने आरएलडी छोड़कर बीएसपी का दामन थाम लिया और उन्होंने मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट पर साल 2009 में चुनाव लड़ा और जीत कर सांसद बन गए। 2014 में कादिर राना ने फिर बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ा लेकिन इस बार उन्हें भाजपा के संजीव बालियान से बड़ी हार का सामना करना पड़ा। 2017 में कादिर राना ने अपनी पत्नी को बुढ़ाना विधानसभा सीट से बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ा लेकिन वहां भी उनको हार का सामना करना पड़ा।
राना परिवार के ही दूसरे सदस्य के रूप में 2004 में उनके भतीजे शाहनवाज राना ने सियासत में एंट्री मारी और कैराना लोकसभा सीट पर बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ पड़े। इस चुनाव में शाहनवाज राना को हार का सामना करना पड़ा, मगर 2007 में शाहनवाज राना ने बसपा के टिकट पर बिजनौर सदर विधानसभा सीट पर चुनाव लड़ा और विधायक बन गए। 2014 में शाहनवाज राना ने समाजवादी पार्टी के टिकट पर बिजनौर लोकसभा से चुनाव लड़ा और उन्हें हार का सामना करना पड़ा। 2010 में शाहनवाज राना ने अपनी पत्नी इंतखाब राना को जिला पंचायत सदस्य का चुनाव लड़ा कर अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ाया और कांटे के मुकाबले में अपनी पत्नी को जिला पंचायत अध्यक्ष बनवा दिया। साल 2017 तक शाहनवाज राणा ने समाजवादी पार्टी को अलविदा किया और उन्होंने कांग्रेस का दामन थाम लिया लेकिन अगले ही दिन उन्होंने राष्ट्रीय लोकदल ज्वाइन की और खतौली विधान सभा से चुनाव लड़ा मगर वहां उनको हार का सामना करना पड़ा। 2022 में शाहनवाज राना को किसी भी राजनीतिक दल ने टिकट नहीं दिया।
इसी परिवार के जाकिर राना भी 2005 में जिला पंचायत के सदस्य पर निर्वाचित हुए और अध्यक्ष का चुनाव लड़ा। मुकाबला कांटे का हुआ लेकिन जाकिर राना को हार हाथ लगी। इसके बाद जाकिर राना केंद्र सरकार में दर्जा प्राप्त मंत्री के रूप में भी काम कर चुके हैं।
राना परिवार के ही नूर सलीम राना ने भी 2012 में बसपा के टिकट पर चरथावल विधानसभा सीट से इलेक्शन लड़ा और वह विधायक बन गए। 2017 में फिर से बसपा के टिकट पर उन्होंने दांव आजमाया लेकिन इस बार उनको हार मिली। 2022 का इलेक्शन आते आते नूरसलीम राना ने भी राष्ट्रीय लोकदल का दामन थाम लिया और चरथावल विधानसभा सीट पर अपनी दावेदारी की मगर जयंत चौधरी ने उनसे दूरी बनाए रखी।