खांटी किसान नेता थे चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत

मुज़फ्फरनगर। भारतीय किसानो के मसीहा चौ. महेंद्र सिंह टिकैत 15 मई 2011 को इस दुनिया को अलविदा कह गये और किसान आन्दोलन के लिए एक ऐसा शून्य छोड़ गये जो अभी तक नहीं भर पाया है और भविष्य में भी इसकी उम्मीद नज़र नहीं आती है। उनके जैसा खांटी किसानो का मसीहा कोई शायद ही बन पाए। चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत आखिरी दिनों में कैंसर जैसी असाध्य बीमारी से पीडि़त होने के बावजूद वैश्वीकरण के दौर में किसानों के हितों पर हो रहे कुठाराघात को लेकर चिंतित रहते थे। वे सरकारी एजेंसियों और किसानों के मध्य बिचौलियों की भूमिका के सख्त खिलाफ थे। चौधरी टिकैत डंकेल समझौते के मुखर विरोधी रहे। वे खेती की जमीन पर किसान के स्वामित्व को हर हाल में कायम रखने के पक्षधर थे। बीज और कीटनाशक के बाजार में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के बढ़ते दखल और किसानों की भूमि अधिग्रहण की मौजूदा नीति के सख्त खिलाफ थे।
गौरतलब है कि चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत का जन्म मुजफ्फरनगर के कस्बा सिसौली में 6 अक्टूबर 1935 में एक किसान परिवार में हुआ। गांव के ही एक जूनियर हाईस्कूल में कक्षा सात तक पढ़ाई की। पिता का नाम चौहल सिंह टिकैत और माता का नाम श्रीमती मुख्त्यारी देवी था। चौधरी चौहल सिंह टिकैत बालियान खाप के चौधरी थे। पिता की मृत्यु के समय चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत मात्र आठ साल के थे। आठ वर्ष की आयु में इन्हें बालियान खाप की जिम्मेदारी संभालनी पड़ी। सर्वखाप मंत्री चौधरी कबूल सिंह के सहयोग से चौधरी टिकैत ने अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह किया। चौधरी टिकैत ने बड़ी सर्वखाप पंचायतों में पूर्ण रूप से भागीदारी रखते हुए दहेज प्रथा, मृत्युभोज, दिखावा, नशाखारी, भ्रूण हत्या आदि जैसी सामाजिक कुरीतियों, बुराइयों पर नियंत्रण करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वर्ष 1986 में किसान, बिजली, सिंचाई, फसलों के मूल्य आदि को लेकर पूरे उत्तर प्रदेश के किसान आंदोलित थे। तब एक किसान संगठन की आवश्यकता महसूस की गई। तब 17 अक्टूबर 1986 को सिसौली में एक महापंचायत हुई, जिसमें सभी जाति-धर्म व सभी खापों के चौधरियों, किसानों व किसान प्रतिनिधियों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और सर्वसम्मति से चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत को भारतीय किसान यूनियन का राष्ट्रीय अध्यक्ष मनोनीत किया गया।

चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने भाकियू का अध्यक्ष बनने के बाद किसानो की समस्याओ को लेकर चिंतन करना शुरू कर दिया। इसी बीच 27 जनवरी 1987 को मुजफ्फरनगर अब शामली जिले के करमूखेड़ी बिजलीघर पर सिर्फ बिजली की समस्याओं को लेकर शुरु हुआ एक छोटा सा धरना तत्कालीन सरकार की अदूरदर्शिता के चलते न सिर्फ एक राष्ट्रीय आंदोलन में तब्दील हो गया, बल्कि जाट बिरादरी की एक खाप के मुखिया चौ. महेंद्र सिंह टिकैत को अंतर्राष्ट्रीय नेता और किसानों के महानायक के रुप में प्रतिष्ठित कर गया। चौ. महेंद्र सिंह टिकैत के व्यक्तित्व पर अगर नजर दौड़ाएं, तो स्पष्ट होगा कि करमूखेड़ी में उमड़ी किसानों की भीड़ पर की गई गोलीबारी और उसमें दो किसानों अकबर और जयपाल सिंह की शहादत ने चौ. महेंद्र सिंह टिकैत के मन के अंदर एक ऐसे ज्वालामुखी को जन्म दे दिया कि 1 मार्च 1987 को करमूखेड़ी बिजलीघर पर हुई आक्रोश प्रदर्शन रैली में टिकैत की हुंकार पूरे देश में सुनी गई थी। इस रैली में किसानों और मजदूरों की लाखों की संख्या में मौजूदगी सरकार को किसानों मजदूरों की ताकत का अहसास कराने के लिए काफी थी। इसी बीच सन 1987 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह जब किसान आंदोलन से आजिज आ गए तो किसी के माध्यम से भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत से सम्पर्क साधा और प्रस्ताव रखा कि वे सिसौली आकर किसानों के पक्ष में कुछ निर्णयों की घोषणा करना चाहते हैं। महेंद्र सिंह टिकैत इसके लिए राजी हो गए, लेकिन शर्त रखी कि बैठक में न तो कांग्रेस पार्टी का झंडा होगा और न ही मुख्यमंत्री के साथ कोई कांग्रेस पार्टी का नेता और पुलिस होगी। इस शर्त पर जब 11 अगस्त 1987 को वीर बहादुर सिंह हेलीकॉप्टर से सिसौली पहुंचे, तब हेलीपैड पर उनके स्वागत के लिए कोई नहीं था और उन्हें सम्मलेन स्थल तक जाने के लिए करीब आधा किलोमीटर पैदल चलना पड़ा था। चौधरी टिकैत सरकार को किसानों की पीड़ा से अवगत करना चाहते थे। उप्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह सिसौली आये और किसानों को आश्वासन दिया परन्तु चौ. महेंद्र सिंह टिकैत और उनकी भाकियू इससे संतुष्ट नहीं हुई और असहयोग आंदोलन की घोषणा कर दी। उन्होंने मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह को करवे से ओक में पानी पिलाया था ।

इस आन्दोलन के बाद चौ. महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में उनकी फौज ने किसानो की समस्याओं को लेकर 27 जनवरी 1988 से लेकर 19 फरवरी 1988 तक मेरठ में कमिश्नरी के पास ग्राउंड में भाकियू का आन्दोलन शुरू कर दिया । लाखों की संख्या में आये इन किसानों के आन्दोलन को कुचलने के लिए तत्कालीन कमिश्नर वीके दीवान ने मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह से बात करके 20 कंपनी पीएसी,सीआरपीएफ लगाई। आन्दोलनकारियों को रोकने के लिए मेरठ-मुजफ्फरनगर मार्ग पर लगातार फ्लैग मार्च भी कराया। इस आन्दोलन के दौरान ठंड अधिक होने के कारण सात किसानों की ठंड से मौत भी हुई, पर किसानों ने हिम्मत नहीं हारी और अपने हक के लिए लड़ाई लड़ते रहे। तब लोकदल के अध्यक्ष हेमवती नंदन बहुगुणा, पूर्व राज्यपाल वीरेन्द्र वर्मा, चौधरी अजित सिंह, मेनका गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह, शाही इमाम अब्दुल्ला बुखारी समेत देश भर के नेताओं ने मेरठ पहुँच कर चौ. महेंद्र सिंह टिकैत के आंदोलन का समर्थन किया। आंदोलन के 24 दिन बाद प्रदेश सरकार की ओर से तत्कालीन मंत्री सईदुल हसन व हुकुम सिंह ने किसानों के बीच आकर उनसे वार्ता की। बातचीत के बाद यहां धरना तो समाप्त हो गया पर चौ. महेंद्र सिंह टिकैत ने प्रदेश सरकार के खिलाफ असहयोग आन्दोलन चलाने की घोषणा कर दी। इसी दौरान उन्होंने किसानों से अपील की थी कि वह बिजली के बिल न दें। किसी भी सरकारी अधिकारी को गांव में न घुसने दें। इसका असर हर गांव में हुआ। मेरठ के इस ऐतिहासिक आंदोलन के बाद किसान इतने मजबूत हो गए कि विभिन्न महकमों के अफसर गांवों में जाने से कतराने लगे। इस आंदोलन से ही टिकैत किसानों के मसीहा बने और देश दुनिया में नाम बुलंद हुआ। इसके बाद 6 मार्च, 1988 को किसानों ने एक बार फिर मुरादाबाद के रजबपुर में रेल और सड़क मार्ग जाम कर दिया। 23 मार्च तक चले इस आंदोलन को कुचलने के लिए पुलिस ने फायरिंग कर दी, जिसमें पांच किसानों की मौत हो गई और सैकड़ों की संख्या में किसान जख्मी हो गए। इस आंदोलन ने चौ. महेंद्र सिंह टिकैत के एक नेतृत्व को एक नई दिशा दी। अब लोग उनकी एक आवाज़ पर सारे काम-धंधे छोड़कर सड़क पर उतर आते थे।

27 मई, 1989 को महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में भारतीय किसान यूनियन ने अलीगढ़ के ख़ैर में किसानों की पंचायत आहूत की। वजह, चुंगी और स्थानीय करों की दर में बेतहाशा बढ़ोत्तरी थी । किसानों ने किसी भी तरह का टैक्स देने से इंकार कर दिया और इसका फैसला पंचायत में करने की ठान ली। पुलिस ने पंचायत में हिस्सा लेने जा रहे किसानों को रोकने की कोशिश की, नाकाम रहने पर उसने फायरिंग शुरू कर दी, जिसमें छह किसान शहीद हो गए और कई गंभीर रूप से घायल हो गए, फिर तो आंदोलन ने और भी जोर पकड़ लिया। बाद में ख़ैर में शहीद किसानों का स्मारक भी बना। इसके ठीक तीन महीने बाद 2 अगस्त, 1989 को किसानों ने नईमा अपहरण कांड को लेकर भोपा नहर पर धरना शुरू कर दिया। सीकरी गाँव की नईमा को ग़ायब हुए कई दिन बीत चुके थे और पुलिस कोई सुनवाई नहीं कर रही थी। परिवारवालों ने चौ. महेंद्र सिंह टिकैत से अपनी बात कही और किसानों ने चौ. महेंद्र सिंह टिकैत की अगुवाई में भोपा नहर पर आंदोलन का बिगुल बजा दिया। 10 अगस्त को उसकी लाश बरामद हो गई। हत्यारों की गिरफ़्तारी को लेकर 17 अगस्त को धरनास्थल पर किसानों की महापंचायत हुई। बाद में राज्य के तत्कालीन खाद्य मंत्री हुकुम सिंह और मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने महेंद्र सिंह टिकैत से मुलाक़ात भी की। इसके बाद 2 अक्टूबर 1989 को देश के कई किसान संगठनों के साथ दिल्ली के वोट क्लब पर धरना हो या 2 अक्टूबर 1991 को नई दिल्ली में खाद की सब्सिडी एवं अन्य समस्याओं को लेकर धरना अथवा 31 दिसंबर 1991 से 17 जनवरी 1992 तक लखनऊ (उत्तर प्रदेश) में किसानों की मांगों (मुख्यत बिजली एवं खाद के बढ़े मूल्य) को लेकर 18 दिवसीय धरना हो या 2 जून 1992 से 3 जुलाई 1992 तक लखनऊ में किसानों की 7 सूत्रीय मांगों मुख्यत दस हजार रुपये का कर्जा माफी को लेकर धरना देना हो वो कभी किसी आन्दोलन से पीछे नहीं हटे 4 फरवरी 1993 से 6 फरवरी 1993 तक चौ. टिकैत की लखनऊ बाराबंकी, सुल्तानपुर, जौनपुर, मऊ, बलिया और गोरखपुर सहित अनेक जनपदों में किसान पंचायतें हुई इसके बाद 17 सितंबर 1995 को उप्र की राजधानी लखनऊ में किसान महापंचायत की फिर 7 मार्च 1996 को किसान घाट पर देश बचाओ किसान बचाओ महापंचायत आयोजित की गई, जिसमें उत्तर भारत के राज्यों के लगभग दो लाख किसानों ने हिस्सा लिया।