क्या साईं बाबा मुस्लिम फकीर थे?
नई दिल्ली। अनिरुद्ध जोशी अगर शंकराचार्य की बातों पर यकीन करें तो सवाल यही उठता है कि फिर साईं बाबा कौन हैं? साईं कहां से आए और कैसे बने भक्तों के साईं बाबा जिनके एक दर्शन पाकर भक्त अपना जीवन धन्य मानने लगते हैं। यदि शंकराचार्य ने साईं को मुसलमान फकीर कहा है। खुद स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने कहाकि साईं मांसाहारी था, लोगों के खतना करवाता था, पिंडारी समाज की औलाद था जो लुटेरा समाज था। ऐसे में वह हमारा आदर्श नहीं हो सकता। क्या शंकराचार्य ने ऐसे ही हवा में बात कह दी? बगैर किसी तथ्यों के? यदि नहीं, तो क्या है इसके पीछे के तथ्य पर साईं बाबा के बारे में बहुत भ्रम फैला है। वे हिन्दू थे या मुसलमान? क्या वे कबीर, नामदेव, पांडुरंग आदि के अवतार थे। कुछ लोग कहते हैं कि वे शिव के अंश हैं और कुछ को उनमें दत्तात्रेय का अंश नजर आता है। अन्य लोग कहते हैं कि वे अक्कलकोट महाराज के अंश हैं। इसके विपरीत अब लोग मानने लगे हैं कि वे यवन देश के एक मुस्लिम फकीर थे। क्या सचमुच ऐसा था? जरूर है कि हम अपने संतों पर सवाल उठाएं, जो सोना होगा वह आग में तपकर और कुंदन हो जाएगा। यदि हम आचार्य चतुरसेन का उपन्यास सोमनाथ पढ़ें तो पता चलता है कि मुगल और अंग्रेजों के शासनकाल में ऐसा अक्सर होता था कि जासूसी या हिन्दू क्षेत्र की रैकी करने के लिए सूफी संतों के भेष में फकीरों की टोली को भेजा जाता था, जो गांव या शहर के बाहर डेरा डाल देती थी। इनका काम था सीमा पर डेरा डाल कर वहां के लोगों और राजाओं की ताकत का अंदाजा लगाना और प्रजा में विद्रोह भड़काना। अक्सर सूफी संतों की मजार आपको शहर या गांव की सीमा पर मिलेगी, क्योंकि सीमा पर से टोह लेने में आसानी भी होती और खतरा भी नहीं रहता था। चूंकि हिन्दुओं के मन में प्राचीनकाल से संतों के प्रति श्रद्धा और विश्वास सिखाया गया है, तो वे किसी भी संत पर सवाल नहीं उठाते और उसे संदेह की दृष्टि से नहीं देखते थे। खासकर गांव की भोली-भाली जनता तो संतों की तरह कपड़े पहने लोगों पर सहज ही विश्घ्वास कर उसके चरणों में झुक जाती है। ये कथित संत आजीवन यहीं रहकर एक तरह जासूसी का कार्य करते तो दूसरी ओर धर्म का काम। साईं के विरोधी और कट्टर हिन्दुओं का तर्क है कि ऐसे कई सूफी संत हुए हैं जिन्होंने राम-कृष्ण की भक्ति के माध्यम से हिन्दुओं को धीरे-धीरे इस्लाम के प्रति श्रद्धावान बनाया और अंततरू उन्हें इस्लाम की ओर मोड़ दिया। आज भी ऐसे कई संत सक्रिय हैं। साईं बाबा भी इसी साजिश का एक हिस्सा है।
साईं शब्द फारसी का है जिसका अर्थ होता है श्संतश्। उस काल में आमतौर पर भारत के पाकिस्तानी हिस्से में मुस्लिम संन्यासियों के लिए इस शब्द का प्रयोग होता था। शिर्डी में साईं सबसे पहले जिस मंदिर के बाहर आकर रुके थे उसके पुजारी ने उन्हें साईं कहकर ही संबोधित किया था। मंदिर के पुजारी को वे मुस्लिम फकीर ही नजर आए तभी तो उन्होंने उन्हें साईं कहकर पुकारा। साईं ने यह कभी नहीं कहा कि श्सबका मालिक एकश्। साईं सच्चरित्र के अध्याय 4, 5, 7 में इस बात का उल्लेख है कि वे जीवनभर सिर्फ अल्लाह मालिक है यही बोलते रहे। कुछ लोगों ने उनको हिन्दू संत बनाने के लिए यह झूठ प्रचारित किया कि वे श्सबका मालिक एक है भी बोलते थे। यदि वे एकता की बात करते थे, तो कभी यह क्यों नहीं कहा कि श्राम मालिक हैश् या श्भगवान मालिक है। कोई हिन्दू संत सिर पर कफन जैसा नहीं बांधता, ऐसा सिर्फ मुस्लिम फकीर ही बांधते हैं। जो पहनावा साईं का था, वह एक मुस्लिम फकीर का ही हो सकता है। हिन्दू धर्म में सिर पर सफेद कफन जैसा बांधना वर्जित है या तो जटा रखी जाती है या किसी भी प्रकार से सिर पर बाल नहीं होते। साईं बाबा ने रहने के लिए मस्जिद का ही चयन क्यों किया? वहां और भी स्थान थे, लेकिन वे जिंदगीभर मस्जिद में ही रहे। मस्जिद के अलावा भी तो शिर्डी में कई और स्थान थे, जहां वे रह सकते थे। मस्जिद ही क्यों? भले ही मंदिर में न रहते, तो नीम के वृक्ष के नीचे एक कुटिया ही बना लेते। उनके भक्त तो इसमें उनकी मदद कर ही देते।
साईं सच्चरित्र के अनुसार साईं बाबा पूजा-पाठ, ध्यान, प्राणायाम और योग के बारे में लोगों से कहते थे कि इसे करने की कोई जरूरत नहीं है। उनके इस प्रवचन से पता चलता है कि वे हिन्दू धर्म विरोधी थे। साईं बाबा का मिशन था- लोगों में एकेश्वरवाद के प्रति विश्वास पैदा करना। उन्हें कर्मकांड, ज्योतिष आदि से दूर रखना।
मस्जिद से बर्तन मंगवाकर वे मौलवी से फातिहा पढ़ने के लिए कहते थे। इसके बाद ही भोजन की शुरुआत होती थी। उन्होंने कभी भी मस्जिद में गीता पाठ नहीं करवाया या भोजन कराने के पूर्व श्श्रीगणेश करोश् ऐसा भी नहीं कहा। यदि वे हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात करते थे तो फिर दोनों ही धर्मों का सम्मान करना चाहिए था। साईं को सभी यवन मानते थे। वे हिन्दुस्तान के नहीं, अफगानिस्तान के थे इसीलिए लोग उन्हें यवन का मुसलमान कहते थे। उनकी कद-काठी और डील-डौल यवनी ही था। साईं सच्चरित्र के अनुसार एक बार साईं ने इसका जिक्र भी किया था। जो भी लोग उनसे मिलने जाते थे उन्हें मुस्लिम फकीर ही मानते थे, लेकिन उनके सिर पर लगे चंदन को देखकर लोग भ्रमित हो जाते थे। बाबा कोई धूनी नहीं रमाते थे जैसा कि नाथ पंथ के लोग करते हैं। ठंड से बचने के लिए बाबा एक स्थान पर लड़की इकट्ठी करके आग जलाते थे। उनके इस आग जलाने को लोगों ने धूनी रमाना समझा। चूंकि बाबा के पास जाने वाले लोग चाहते थे कि बाबा हमें कुछ न कुछ दे तो वे धूनी की राख को ही लोगों को प्रसाद के रूप में दे देते थे। यदि प्रसाद देना ही होता था तो वे अपने भक्तों को मांस मिला हुआ नमकीन चावल देते थे।
आजकल साईं बाबा को पुस्तकों और लेखों के माध्यम से ब्राह्मण कुल में जन्म लेने की कहानी को प्रचारित किया जा रहा है। क्या कोई ब्राह्मण मस्जिद में रहना पसंद करेगा? साईं के समय दो बार अकाल पड़ा लेकिन साईं उस वक्त अपने भक्तों के लिए कुछ नहीं कर पाए। एक बार प्लेग फैला तो उन्होंने गांव के सभी लोगों को गांव से बाहर जाने के लिए मना किया, क्योंकि कोई जाकर वापस आएगा तो वह भी इस गांव में प्लेग फैला देता, तो उन्होंने लोगों में डर भर दिया कि जो भी मेरे द्वारा खींची गई लकीर के बाहर जाएगा, वह मर जाएगा। इस डर के कारण भोली-भाली जनता गांव से बाहर नहीं गई और लोगों ने इसे चमत्कार के रूप में प्रचारित किया कि साईं ने गांव की प्लेग से रक्षा की। प्लेग उनके गांव में नहीं आ सका।
साईं के पास कई ऐसे लोग आते जाते थे, जो उन्हें बाहर की दुनिया का हालचाल बता देते थे। साईं का जन्म 1830 में हुआ, पर इन्होंने आजादी की लड़ाई में भारतीयों की मदद करना जरूरी नहीं समझा, क्योंकि वे भारतीय नहीं थे।
वे अंग्रेजों के जासूस थे। अफगानिस्तानी पंडारियों के समाज से थे और उन्हीं के साथ उनके पिता भारत आए थे। उनके पिता का नाम बहरुद्दीन था और उनका नाम चांद मियां। साईं के विरोधी साईं चरित में उल्लेखित घटना का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि 1936 में हरि विनायक साठे (एक साईं भक्त) ने अपने साक्षात्कार में नरसिम्हा स्वामी को बोला था कि बाबा किसी भी हिन्दू देवी-देवता या स्वयं की पूजा मस्जिद में नहीं करने देते थे, न ही मस्जिद में किसी देवता के चित्र वगैरह लगाने देते। एक बार उन्होंने शिवरात्रि के अवसर पर बाबा से पूछा कि वे बाबा की पूजा महादेव या शिव की तरह कर सकते हैं? तो बाबा ने साफ इंकार कर दिया, क्योंकि वे मस्जिद में किसी भी तरह के हिन्दू तौर-तरीके का विरोध करते थे।
हिफी