गीता में गूढ़ शब्दों का किया गया प्रयोग- अर्जुन को निष्ठा का दिया ज्ञान

गीता में गूढ़ शब्दों का किया गया प्रयोग- अर्जुन को निष्ठा का दिया ज्ञान

नई दिल्ली।रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-उस एक बात को निश्चित करके कहिये, जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ-इस वाक्य का क्या भाव है?

उत्तर-इससे अर्जुन यह भाव दिखलाते हैं कि अब तक आपने मुझे जितना उपदेश दिया है, उसमें विरोध प्रतीत होने से मैं अपने कर्तव्य का निश्चय नहीं कर सका हूँ। मेरी समझ में यह बात नहीं आयी है कि आप मुझे युद्ध के लिये आज्ञा दे रहे हैं या समस्त कर्मों का त्याग कर देने के लिये; यदि युद्ध करने के लिये कहते हैं तो किस प्रकार करने के लिये कहते हैं और यदि कर्मों का त्याग करने के लिये कहते हैं तो उनका त्याग करने के बाद फिर क्या करने को आज्ञा देते हैं। इसलिये आप सब प्रकार से सोच-समझकर मेरे कर्तव्य का निश्चय करके मुझे एक ऐसा निश्चित साधन बता दीजिये कि जिसका पालन करने से मैं कल्णाण को प्राप्त हो जाऊँ।

प्रश्न-यहाँ 'श्रेयः' पद का अर्थ 'कल्याण' करने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-यहाँ श्रेयः प्राप्ति से अर्जुन का तात्पर्य इस लोक या परलोक के भोगों की प्राप्ति नहीं है, क्योंकि भूमि का निष्कण्टक राज्य और देवों का आधिपत्य मेरे शोक को दूर नहीं कर सकते'। यह बात तो उन्होंने पहले ही कह दी थी। अतएव श्रेयः प्राप्ति से उनका अभिप्राय शोक-मोह का सर्वथा नाश करके शाश्चती शान्ति और नित्यानन्द प्रदान करने वाली नित्य वस्तु की प्राप्ति से है, इसीलिये यहाँ 'श्रेयः' पद का अर्थ 'कल्याण' किया गया है।

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।

ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।। 3।।

प्रश्न-'अस्मिन् लोके' पद किस लोक का वाचक है?

उत्तर-'अस्मिन् लोके' पद इस मनुष्य लोक का वाचक है, क्योंकि ज्ञान योग और कर्मयोग-इन दोनों साधनों में मनुष्यों का ही अधिकार है।

प्रश्न-'निष्ठा' पद का क्या अर्थ है और उसके साथ 'द्विविधा' विशेषण देने का क्या भाव है?

उत्तर-'निष्ठा' पद का अर्थ 'स्थिति' है। उसके साथ 'द्विविधा' विशेषण देकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि प्रधानता से साधन की स्थिति के दो भेद होते हैं-एक स्थिति में मनुष्य आत्मा और परमात्मा का अभेद मानकर अपने को ब्रह्म से अभिन्न समझता है; और दूसरी मंे परमेश्वर को सर्व शक्तिमान, सम्पूर्ण जगत् के कर्ता, हर्ता, स्वामी तथा अपने को उनका आज्ञाकारी सेवक समझता है।

प्रकृति से उत्पन्न सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं। मेरा इनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है-ऐसा समझकर मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली समस्त क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से सर्वथा रहित हो जाना; किसी भी क्रिया में या उसके फल में किंचित मात्र भी अहंता, ममता, आसक्ति और कामना का न रहना तथा सच्चिदानंद धन ब्रह्म से अपने को अभिन्न समझकर निरन्तर परमात्मा के स्वरूप में स्थित हो जाना अर्थात् ब्रह्मभूत (ब्रह्म स्वरूप) बन जाना यह पहली निष्ठा है। इसका नाम ज्ञान निष्ठा है। इस स्थिति को प्राप्त हो जाने पर योगी हर्ष, शोक और कामना से अतीत हो जाता है, उसकी सर्वत्र समदृष्टि हो जाती है। उस समय वह सम्पूर्ण जगत् को आत्मा में स्वप्नवत् कल्पित देखता है और आत्मा को सम्पूर्ण जगत में व्याप्त देखता है। इस निष्ठा या स्थिति का फल परमात्मा के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान है।

वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार जिस मनुष्य के लिए जिन कर्मों का शास्त्र में विधान है-जिनका अनुष्ठान करना मनुष्य के लिये अवश्य कर्तव्य माना गया है-उन शास्त्र विहित स्वाभाविक कर्मों का न्यायपूर्वक, अपना कर्तव्य समझकर अनुष्ठान करना; उन कर्मों में और उनके फल में ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग करके प्रत्येक कर्म की सिद्धि और असिद्धि में तथा उसके फल में सदा ही सम रहना एवं इन्द्रियों के भोगों में और कर्मों में आसक्त न होकर समस्त संकल्पनों का त्याग करके योगारूढ़ हो जाना यह कर्मयोग की निष्ठा है तथा परमेश्वर को सर्वशक्तिमान, सर्वाधार, सर्वव्यापी, सबके सुहृद और सबके प्रेरक समझकर और अपने को सर्वथा उनके अधीन मानकर समस्त कर्म और उनका फल भगवान् को समर्पण करना उनकी आज्ञा और प्रेरणा के अनुसार उनकी पूजा समझकर जैसे वे करवावें, वैसे ही समस्त कर्म करना; उनके कर्मों या उनके फल में किंचित मात्र भी ममता, आसक्ति या कामना न रखना; भगवान् के प्रत्येक विधान में सदा ही सन्तुष्ट रहना तथा निरन्तर उनके नाम, गुण, प्रभाव और स्वरूप का चिंतन करते रहना। यह भक्ति प्रधान कर्मयोग की निष्ठा है। उपर्युक्त कर्मयोग की स्थिति को प्राप्त हुए पुरुष में राग-द्वेष और काम-क्रोधादि अवगुणों का सर्वथा अभाव होकर उसकी सबमें समता हो जाती है, क्योंकि वह सबके हृदय में अपने स्वामी को स्थित देखता है और सम्पूर्ण जगत् को भगवान् का ही स्वरूप समझता है। इस स्थिति का फल भगवान् को प्राप्त हो जाना है।

प्रश्न-दो प्रकार की निष्ठाएँ मेरे द्वारा पहले कही गयी हैं, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि ये दो प्रकार की निष्ठाएँ मैंने आज तुम्हें नयी नहीं बतलायी हैं, सृष्टि के आदिकाल में और उसके बाद भिन्न-भिन्न अवतारों में मैं इन दोनों निष्ठाओं का स्वरूप अलग-अलग बतला चुका हूँ। वैसे ही तुमको भी मैंने दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से लेकर तीसवें श्लोक तक अद्वितीय आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए सांख्ययोग की दृष्टि से युद्ध करने के लिये कहा है। और उन्चालीसवें श्लोक में योग विषयक बुद्धि का वर्णन करने की प्रस्तावना करके चालीसवें से तिरपनवें श्लोक तक फल सहित कर्मयोग का वर्णन करते हए योग में स्थित होकर युद्धादि कर्तव्य कर्म करने के लिये कहा है तथा दोनों का विभाग करने के लिये उन्चालीसवें श्लोक में स्पष्ट रूप से यह भी कह दिया है कि इसके पूर्व मैंने साख्य विषयक उपदेश दिया है और अब योग विषयक उपदेश कहता हूँ। इसलिये मेरा कहना 'व्यामिश्र' अर्थात् 'मिला हुआ' नहीं है।

प्रश्न-'अनघ' सम्बोधन का क्या भाव है?

उत्तर-जो पाप रहित हो, उसे 'अनघ' कहते हैं। अर्जुन को 'अनघ' नाम से सम्बोधित करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जो पाप युक्त या पाप परायण मनुष्य है, वह तो इनमें से किसी भी निष्ठा को नहीं पा सकता; पर तुम पाप रहित हो, अतः तुम इनको सहज ही प्राप्त कर सकते हो, इसलिये मैंने तुमको यह विषय सुनाया है। -क्रमशः (हिफी)

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