'एक देश एक चुनाव' का विचार

एक देश एक चुनाव का विचार

नई दिल्ली। हमारे देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था है और इस व्यवस्था का ढांचा है चुनाव। इसी के माध्यम से जनता के प्रतिनिधि सरकार बनाते हैं और बाकी विपक्ष में रहकर सरकार के कामकाज की निगरानी करते हैं। पंचायत स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक इसीलिए चुनाव होते हैं। राज्य स्तर से लेकर केन्द्र स्तर तक चुनाव आयोग बनाए गये जो इस कार्य को स्वतंत्र और निष्पक्षता से सम्पन्न कराने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार जन का तंत्र अर्थात लोकतंत्र काम करता है। चुनाव कराने में ढेर सारा पैसा खर्च होता है लेकिन एक साथ सभी चुनाव कराने में कम पैसा खर्च होगा।देश की आजादी के बाद एक साथ चुनाव हुए भी थे लेकिन विभिन्न कारणों से अलग अलग चुनाव होते हैं। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर यह सवाल उठाया है कि विधान सभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ क्यों नहीं कराए जा सकते हैं। इस विचार को अमल में लाने के लिए एक आम राजनीतिक सहमति बहुत जरूरी है और जब बहस में तर्क दोनों पक्षों के ठीक लग रहे हों, तब तय यह करना होगा कि क्या कीमत चुकाने की शर्त पर चुनाव एक साथ हो सकते हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संविधान दिवस 26 नवम्बर को पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए कहा था कि संसद, विधानसभा और स्थानीय निकाय चुनाव एक साथ, एक ही समय पर हों। सरल शब्दों में ऐसे समझा जा सकता है कि वोटर यानी लोग एक ही दिन में सरकार या प्रशासन के तीनों स्तरों के लिए वोटिंग करेंगे।अब चूंकि विधानसभा और संसद के चुनाव केंद्रीय चुनाव आयोग संपन्न करवाता है और स्थानीय निकाय चुनाव राज्य चुनाव आयोग, तो इस एक चुनाव के आइडिया में समझा जाता है कि तकनीकी रूप से संसद और विधानसभा चुनाव एक साथ संपन्न करवाए जा सकते हैं। देश के लोकतांत्रिक ढांचे के तहत यह आइडिया सुनने में भले ही आकर्षक लगे, लेकिन इसमें तकनीकी समस्याएं काफी हैं। मान लीजिए कि देश में केंद्र और राज्य के चुनाव एक साथ हुए, लेकिन यह निश्चित नहीं है कि सभी सरकारें पूर्ण बहुमत से बन जाएं. तो ऐसे में क्या होगा? ऐसे में चुनाव के बाद अनैतिक रूप से गठबंधन बनेंगे और बहुत संभावना है कि इस तरह की सरकारें 5 साल चल ही न पाएं. फिर क्या अलग से चुनाव नहीं होंगे? यही नहीं, इस विचार को अमल में लाने के लिए संविधान के कम से कम छह अनुच्छेदों और कुछ कानूनों में संशोधन किए जाने की जरूरत पेश आएगी। हालांकि इससे कयी फायदे हैं। सबसे पहला लाभ तो यही होगा कि राजकोष को फायदा और बचत होगी। जाहिर है कि बार बार चुनाव नहीं होंगे, तो खर्चा कम होगा और सरकार के कोष में काफी बचत होगी और यह बचत मामूली नहीं बल्कि बहुत बड़ी होगी। इसके साथ ही, लोगों और सरकारी मशीनरी के समय व संसाधनों की बड़ी बचत भी होगी।

इससे विकास कार्य में तेजी आएगी। चूंकि हर स्तर के चुनाव के वक्त चुनावी क्षेत्र में आचार संहिता लागू होती है, जिसके तहत विकास कार्य रुक जाते हैं। इस संहिता के हटने के बाद विकास कार्य व्यावहारिक रूप से प्रभावित होते हैं क्योंकि चुनाव के बाद व्यवस्था में काफी बदलाव हो जाते हैं, तो फैसले नए सिरे से होते हैं। नयी सरकार अपने हिसाब से काम करती है। मोदी सरकार ने ही योजना आयोग को भंग करके नीत आयोग बनाया।

एक साथ चुनाव कराने से काले धन पर लगाम लग सकती है जो चुनाव में बेतहाशा खर्च किया जाता है। संसदीय, सीबीआई और चुनाव आयोग की कई रिपोर्ट्स में कहा जा चुका है कि चुनाव के दौरान बेलगाम काले धन को खपाया जाता है। अगर देश में बार बार चुनाव होते हैं, तो एक तरह से समानांतर अर्थव्यवस्था चलती रहती है। एक साथ सभी चुनाव होने से सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल एक ही बार होगा। लिहाजा कहा जाता है कि स्कूल, कॉलेज और अन्य विभागों के सरकारी कर्मचारियों का समय और काम बार-बार प्रभावित नहीं होगा, जिससे सारी संस्थाएं बेहतर ढंग से काम कर सकेंगी। चूंकि एक ही बार चुनाव होगा, तो सरकारों को धर्म, जाति जैसे मुद्दों को बार बार नहीं उठाना पड़ेगा, जनता को लुभाने के लिए स्कीमों के हथकंडे नहीं होंगे, बजट में राजनीतिक समीकरणों को ज्यादा तवज्जो नहीं देना होगी, यानी एक बेहतर नीति के तहत व्यवस्था चल सकती है।

ऐसे और भी तर्क हैं कि एक बार में ही सभी चुनाव होंगे तो वोटर ज्यादा संख्या में वोट करने के लिए निकलेंगे और लोकतंत्र और मजबूत होगा।

बहरहाल, अब देखते हैं कि एक साथ चुनाव कराने के विरोध में क्या प्रमुख तर्क दिए जा सकते हैं। पहला विरोध यह होगा कि क्षेत्रीय पार्टियां खारिज हो जाएंगी। चूंकि भारत बहुदलीय लोकतंत्र है इसलिए राजनीति में भागीदारी करने की स्वतंत्रता के तहत क्षेत्रीय पार्टियों का अपना महत्व रहा है। चूंकि क्षेत्रीय पार्टियां क्षेत्रीय मुद्दों को तरजीह देती हैं इसलिए एक चुनाव के आइडिया से छोटी क्षेत्रीय पार्टियों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाएगा। लोग यह भी कहेंगे कि सभी चुनाव एक साथ होने से स्थानीय मुद्दे पिछड़ेंगे। चूंकि लोकसभा और विधानसभा चुनाव अलग अलग मुद्दों पर होते हैं , इसलिए दोनों एक साथ होंगे तो विविधता और विभिन्न स्थितियों वाले देश में स्थानीय मुद्दे हाशिये पर चले जाएंगे।

यह भी देखना होगा कि जो लोग इस आइडिया का समर्थन करते हैं तो क्यों और जो नहीं करते, उनके तर्क क्या हैं।जानकार तो यहां तक कहते हैं घ्कि भारत का लोकतंत्र चुनावी राजनीति बनकर रह गया है। लोकसभा से लेकर विधानसभा और नगरीय निकाय से लेकर पंचायत चुनाव... कोई न कोई भोंपू बजता ही रहता है और रैलियां होती ही रहती हैं। सरकारों का भी ज्यादातर समय चुनाव के चलते अपनी पार्टी या संगठन के हित में ही खर्च होता है। इन तमाम बातों और पीएम मोदी के बयान के मद्देनजर इस विषय के कई पहलू टटोलते हुए इस पर चर्चा होना जरूरी है।

अभी कुछ महीने पहले अर्थव्यवस्था ने डरा दिया था। देश की आर्थिक विकास दर कम हो गयी थी। सकल घरेलू उत्पाद बैठ गया। लगभग बीस पच्चीस सालों बाद इस तरह की गिरावट देखी गयी। कोरोना महामारी ने कोढ़ में खाज का काम किया। अब सुधार दिख रहा है। केंद्र सरकार ने इस वित्त वर्ष 2020-21 की दूसरी तिमाही यानी सितंबर में खत्म तिमाही के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़े जारी कर दिए हैं। चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में देश की जीडीपी -7.5 फीसद हो गई। गौरतलब है कि पिछले 40 साल में पहली बार जीडीपी में इतनी कमी आई है जिसके चलते आंकड़ों पर सबकी नजरें टिकी हुई थीं। अगर देखा जाए तो पहली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 23.9 फीसद की ऐतिहासिक गिरावट की गई थी। वित्त वर्ष 2020-21 की दूसरी तिमाही यानी सितंबर में खत्म तिमाही के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़े जारी हो गए हैं। इन आंकड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश की अर्थव्यवस्था अब पटरी पर आने लगी है लेकिन अभी भी देश आर्थिक मंदी की ओर ही है।

बीते कुछ वर्षों से भारत की अर्थव्यवस्था सुस्ती के दौर में बनी हुई है, लेकिन पिछली तिमाही के ये आंकड़े बीते कुछ दशकों के सबसे बुरे आंकड़े हो सकते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि इस साल अप्रैल से जून के दौरान पूरे देश में लॉकडाउन लागू किया गया था ताकि कोरोना वायरस को फैलने से रोका जा सके। खाने-पीने की चीजों और आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई को छोड़कर बाकी सभी आर्थिक गतिविधियां इस दौरान ठप रही हैं। अब, आर्थिक गतिविधियां तेज हो गयी हैं लेकिन हमें चुनावों को लेकर तो सोचना ही होगा कि कम से कम खर्च में हमारा लोकतंत्र चलता रहे। (हिफी)

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