रक्षाबंधन स्पेशल- प्यार व विश्वास के धागों का बंधन

रक्षाबंधन स्पेशल- प्यार व विश्वास के धागों का बंधन

नई दिल्ली। इस बार रक्षाबंधन की तारीख को लेकर कुछ संशय की स्थिति बनी हुई है। दरअसल 11 और 12 अगस्त दो दिन रक्षाबंधन का त्योहार है, क्योंकि सावन पूर्णिमा तिथि दो दिन है और 11 अगस्त, गुरुवार को भद्रा का साया भी रहने वाला होगा जिसकी वजह से लोगों के मन में भ्रम है कि रक्षाबंधन का पर्व 11 या 12 अगस्त को मनाया जाए। रक्षाबंधन का त्योहार हर वर्ष सावन माह की पूर्णिमा तिथि पर भद्रारहित काल में मनाया जाता है। यह पर्व भाई-बहन के पवित्र रिश्ते, स्नेह और प्यार का प्रतीक है। रक्षाबंधन पर बहनें अपने भाईयों की कलाई पर रक्षासूत्र बांधते हुए आरती उतारती हैं और भगवान से उनके जीवन में सुख-समृद्धि और लंबी आयु कामना करती हैं। इस बार सुबह से शाम तक भद्रा रहेगी। रक्षाबंधन का त्योहार सावन पूर्णिमा तिथि को मनाया जाता है। हिंदू पंचांग के अनुसार इस वर्ष श्रावण माह की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि 11 अगस्त को सुबह 10 बजकर 38 मिनट से शुरू हो जाएगी। पूर्णिमा तिथि का समापन 12 अगस्त, शुक्रवार को सुबह 7 बजकर 5 मिनट पर होगा। ऐसे में ज्योतिषचार्यों के अनुसार रक्षाबंधन का त्योहार 11 अगस्त को मनाया जाएगा।

रक्षाबंधन हिन्दुओं का एक ऐसा त्यौहार है जो प्यार, विश्वास, अपनापन एवं सुरक्षा का प्रतीक है यानी प्यार के धागों एवं मानवीय संवेदनाओं का पर्व। एक ऐसा पर्व जो घर-घर मानवीय रिश्तों में नवीन ऊर्जा का संचार करता है। बहनों में उमंग और उत्साह को संचारित करता है, वे अपने प्यारे भाइयों के हाथ में राखी बाधने को आतुर होती हैं। बेहद शालीन और सात्विक यह पर्व सदियों पुराना है। राखी के दो धागों से भाई-बहन ही नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवीय संवेदनाओं का गहरा नाता रहा है। रक्षाबंधन का गौरव अंतहीन पवित्र प्रेम की कहानी से जुड़ा है। भाई और बहन के रिश्ते को यह फौलाद-सी मजबूती देने वाला है। आदर्शों की ऊंची मीनार है। सांस्कृतिक परंपराओं की अद्वितीय कड़ी है। रीति-रिवाजों का अति सम्मान है। इसीलिए अन्य धर्मों को मानने वाले भी रक्षाबंधन धागों में बंधकर अपने को गौरवान्वित महसूस करते हैं। इस दिन बहन भाई को तिलक लगाती है और उसके दाहिने हाथ में राखी बांधती है। मिठाई से उसका मुंह मीठा करती है। भाई अपनी बहन की रक्षा की कसम लेता है। उसे यकीन दिलाता है कि उसके सुख-दुख में वह उसके साथ है। इस तरह दोनों के प्यार और भावनाओें का आदान-प्रदान होता है। राखी के त्योहार का ज्यादा महत्व पहले उत्तर भारत में था। आज यह पूरे भारत में बड़े उत्साह से मनाया जाता है। महाराष्ट्र में इसे नारली पूर्णिमा के नाम से मनाया जाता है। लोग समुद्र में वरुण राजा को नारियल दान करते हैं। नारियल के तीन आंखों को भगवान शिव की तीन आंखें मानते हैं। दक्षिण भारत में इसे अवनी अविट्टम के नाम से जाना जाता है। पुराने जमाने में रक्षाबंधन का अलग महत्व था। आवागमन के साधन और सुविधाएं नहीं थीं। इसलिए ससुराल गयी बेटी के लिए यह सावन के महीने का विशेष पर्व था। राखी के बहाने स्वजनों और भाइयों से भेंट की भावना छिपी होती थी। सभी शादीशुदा लड़कियां मायके आती थीं। सखी-सहेलियां आपस में मिलती थीं, नाचती-गाती थी और अपने लगे हाथ सुख-दुख भी मिल-बांट लेती थीं। राखी का त्योहार कब शुरू हुआ, इसे ठीक से कोई नहीं जानता। कहते हैं देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तो दानव हावी होते नजर आने लगे। इससे इन्द्र बड़े परेशान हो गये। वे घबराकर वृहस्पति के पास गये। इन्द्र की व्यथा उनकी पत्नी इंद्राणी ने समझ ली थी। उसने रेशम का एकधागा मंत्रों की शक्ति से पवित्र कर इन्द्र के हाथ में बांध दिया। वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इस युद्ध में इसी धागे की मंत्रशक्ति से इन्द्र की विजय हुई थी। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन रेशमी धागा बांधने की प्रथा चली आ रही है।

शायद इसी प्रथा के चलते पुराने जमाने में राजपूत जब युद्ध के लिए जाते थे तो महिलाएं उनके माथे पर तिलक लगाकर हाथ में रेशमी धागा बांधती थीं। महाभारत में भी इस बात का उल्लेख मिलता है। युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा कि मैं सभी संकटों को पार कैसे कर सकता हूं। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें राखी का त्योहार मनाने की सलाह दी थी।

श्रीकृष्ण ने कहा था कि राखी के रेशमी धागे में वह शक्ति है जिससे आप हर विपत्ति से बाहर आ सकते हैं। एक अन्य कथा के अनुसार सिंकदर जब विश्वविजय के लिए निकला तो उसकी पत्नी ने अपने पति के हिंदू शत्रु महाराज पुरू को राखी बांधकर मुंहबोला भाई बना लिया था और उससे सिकंदर को न मारने का वचन ले लिया था।

राखी की सबसे प्रचलित और प्रसिद्ध कथा के अनुसार मेवाड़ की विधवा महारानी कर्मावती को जब बहादुरशाह द्वारा मेवाड़ पर हमला करने की पूर्वसूचना मिली तो वह घबरा गयी। रानी कर्मावती बहादुरशाह से युद्ध कर पाने में असमर्थ थी। तब उसने मुगल शासक हुमायूं को राखी भेजकर रक्षा की याचना की। हुमायूं ने राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुंचकर बहादुरशाह के विरुद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए कर्मावती और उसके राज्य की रक्षा की। राखी के बारे में प्रचलित ये कथाएं सोचने पर विवश कर देती हैं कि कितने महान उसूलों और मानवीय संवेदनाओं वाले थे वे लोग, जिनकी देखादेखी एक संपूर्ण परंपरा ने जन्म ले लिया और आज तक बदस्तूर जारी है। भाई भी उसकी रक्षा और संकट हरने की प्रतिज्ञा लेने की बजाय जेब हल्की कर इतिश्री समझ लेता है। अब राखी में भाई-बहन के प्यार का वह ज्वार नहीं दिखायी देता जो शायद कभी रहा होगा।

इसलिए आज बहुत जरूरत है दायित्वों से बंधी राखी का सम्मान करने की। क्योंकि राखी का रिश्ता महज कच्चे धागों की परंपरा नहीं है। लेन-देन की परंपरा में प्यार का कोई मूल्य भी नहीं है। बल्कि जहां लेन-देन की परंपरा होती है वहां प्यार तो टिक ही नहीं सकता। ये कथाएं बताती हैं कि पहले खतरों के बीच फंसी बहन का साया जब भी भाई को पुकारता था, तो दुनिया की हर ताकत से लड़कर भी भाई उसे सुरक्षा देने दौड़ पड़ता था और उसकी राखी का मान रखता था। आज भातृत्व की सीमाओें को बहन फिर चुनौती दे रही है, क्योंकि उसके उम्र का हर पड़ाव असुरक्षित है। बौद्धिक प्रतिभा होते हुए भी उसे ऊंची शिक्षा से वंचित रखा जाता है, क्योंकि आखिर उसे घर ही तो संभालना है। नयी सभ्यता और नयी संस्कृति से अनजान रखा जाता है, ताकि वह भारतीय आदर्शों व सिद्धांतों से बगावत न कर बैठे।

इन हालातों में उसकी योग्यता, अधिकार, चिंतन और जीवन का हर सपना कसमसाते रहते हैं। इससे भी बड़ी चिंता का विषय यह है कि आज तो कन्या भ्रूणहत्या का रास्ता खोलकर भविष्य में जैसे राखी बांधने की परंपरा का अंत करने की ही साजिश रची जा रही है। इसलिए राखी के इस परम पावन पर्व पर भाइयों को ईमानदारी से पुनः अपनी बहन ही नहीं बल्कि संपूर्ण नारी जगत की सुरक्षा और सम्मान करने की कसम लेने की अपेक्षा है। (हिफी)

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