हिन्दी साहित्य ने खो दिये दो अनमोल हीरे

हिन्दी साहित्य ने खो दिये दो अनमोल हीरे

नई दिल्ली। क्रूर नियति ने अभी हाल में हिन्दी साहित्य के दो अनमोल रत्न हमसे छीन लिये। गत 19 नवम्बर को साहित्य और राजनीति में दखल रखने वाली मृदुला सिन्हा का निधन हो गया। वे गोआ की राज्यपाल भी रह चुकी थीं उन्होंने अपने लेखन में लोक संस्कृति को भरपूर स्थान दिया। मृदुला सिन्हा कहती थीं कि मैंने तो हर जगह लोक संस्कृति को खोजा है, लोक शिक्षण का पर्यावरण विकसित किया है। उन्होंने स्त्रियों के अधिकारों की बात उठाई और उन्हें जागरूक किया। उनकी रचनाएं मेंहदी को रंग, घरवास, देखन में छोटी लगे, ढाई बीघा जमीन, सीता पुनि बोली इसी संदर्भ में भरी हैं। पुस्तक महिला विकास: अवलोकन और आकलन में महिलाओं को जागरूक करने का प्रयास है।

इसी अवधि में (26 नवम्बर) को वरिष्ठ पत्रकार राजीव कटारा का निधन हो गया। खेल, सियासत और व्यवसाय पर उनकी कलम बेबाकी से चलती थी। भारतीय संस्कृति और परम्परा पर उनकी गहरी जानकारी थी। अब इन लोगों की स्मृतियां ही शेष रह गयी हैं।

वरिष्ठ पत्रकार राजीव कटारा नहीं रहे। उनके निधन का समाचार मिलते ही मीडिया, अध्यात्म व साहित्य जगत स्तब्ध रह गया। सोशल मीडिया पर उन्हें श्रद्धांजलि देने वालों का तांता लग गया। कटारा की आकस्मिक मृत्य कोरोना से हुई। दीवाली के बाद उन्हें राजधानी के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया था। पारिवारिक सूत्रों के मुताबिक उन्हें प्लाज्मा भी डोनेट किया गया और आखिरी दिनों में वेंटिलेटर पर भी रखा गया, पर उन्हें बचाया नहीं जा सका। चैथी दुनिया अखबार से पत्रकारिता शुरू करने वाले कटारा बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। बेहद कम समय के लिए ही सही वह आज तक की शुरुआती टीम का हिस्सा भी थे। उन्होंने संडे ऑब्जर्बर, कुबेर टाइम्स, अमर उजाला, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर और राष्ट्रीय सहारा में काम किया। हिंदी अकादमी जब पत्रकारिता का पाठ्यक्रम करा रही थी, तो वह वहां अतिथि अध्यापक भी थे। उनकी आखिरी पारी हिंदुस्तान टाइम्स के साथ थी। वह इस समूह की साहित्यिक-पारिवारिक पत्रिका कादंबिनी के कोरोना काल में बंद होने के दिन तक प्रभारी संपादक थे।

खेल, सियासत, व्यावसाय जैसे विषयों पर उनकी अद्भुत पकड़ थी। खेल से जुड़ा उनका इनस्विंग कॉलम लोगों को बहुत पसंद था। शालीनता, सहृदयता, उदारता, गंभीरता और हरेक की मदद के अपने व्यावहार की वजह से वह हर दिल के करीब थे। कटारा का मन रमता था कला, अध्यात्म व साहित्य में। कृष्ण, बुद्ध, कबीर, मीरा, रैदास, रसखान, निजामुद्दीन औलिया से लेकर गांधी और ओशो तक का उनका अध्ययन चैंका देने वाला था। भारतीय संस्कृति और परंपरा पर उनकी गहरी समझ का लोहा सभी मानते थे। हिंदी पत्रकारिता में विषय और कला आधारित प्रयोग, बड़ी हस्तियों के स्तंभ आदि के प्रयोग के लिए उन्हें जाना जाता है। राजधानी की हिंदी पत्रकारिता का एक बड़ा तबका या तो उनके संपर्क में था या उनको पढ़कर, उनसे सीखकर आगे बढ़ा। यही वजह है कि उनके आकस्मिक निधन को कोरोना काल में पत्रकारिता व साहित्य के लिए एक बड़े झटके के रूप में देखा जा रहा है। पत्रकारिता के क्षेत्र में अहम योगदान के देने लिए कटारा राष्ट्रपति द्वारा गणेश शंकर विद्यार्थी सम्मान से भी सम्मानित थे।

मृदुला सिन्हा के निधन ने भी झकझोरा है।

भारत भूमि राजनीतिज्ञों का गढ़ रही है। यह वीर प्रसविनी धरती है। एक से एक राजनेता यहां हुए हैं। अनेक तो ऐसे जिनमें महामानवों के गुण रहे हैं। पर जैसे-जैसे समाज में गिरावट आई, नेताओं का स्तर भी गिरता गया। आजादी के बाद जो मोहभंग साहित्य में देखा गया वह केवल साहित्य का मोहभंग नहीं था, वह राजनेताओं की कथनी व करनी में बरते गए फासले से उपजे अवसाद का मोहभंग था। यह सच है कि हर राजनेता नेहरू नहीं हो सकता, गांधी नहीं हो सकता, पटेल नहीं हो सकता, सुभाषचंद बोस नहीं हो सकता, आचार्य नरेंद्रदेव, लोकनायक जयप्रकाश नहीं हो सकता। ये बलिदानी नेता थे। देश की आजादी के लिए जीने मरने वाला जज्बा इनमें था। पर आजादी के बाद आजादी के दीवाने और बलिदानी नेता तो नेपथ्य में चले गए। पर हमारे बीच ऐसे राजनेता हुए हैं, जो आज भी जनता के लिए रोल माडल हैं। ऐसे ही राजनीति के उच्चादर्श पर चलने वाली राजनेता थीं मृदुला सिन्हा, जिनकी लोक में इस कदर पैठ थी कि वह लोगों के बीच अपनी जैसी लगती थीं। वे लोक संस्कृति के पहलुओं पर लिखने वाली लोकप्रिय लेखिका थीं। उनकी कहानियां गांव-घर-देहात की कहानियां हैं। वे लोक रस में पगी कहानियां हैं। अपनी राजनीतिक आपाधापी में भी वे लिखने का वक्त निकाल लेती थीं। यहां तक कि राज्यपाल रहने के दौरान राजभवन की अपनी गरिमामयी भूमिका और व्यस्तता को उन्होंने कभी अपनी रचनात्मकता में बाधा नहीं बनने दिया। इस दौरान भी उनकी अनेक कृतियां प्रकाशित हुईं। आज वे नहीं हैं तो हमें महसूस हो रहा है कि हमने क्या कुछ खो दिया है, जिसकी पूर्ति असंभव है। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब हमने उच्च राजनीतिक मान मूल्यों वाली राजनेता सुषमा स्वराज को खोया है, जिनकी प्रशंसा पक्ष-विपक्ष दोनों दलों के लोग करते थे। मृदुला सिन्हा भी ऐसी ही राजनेता थीं, जिनमें कभी नेताओं वाला अहंकार आया ही नहीं। इसका कारण यह था कि एक तो वे उच्चतर मानमूल्यों वाले परिवार से जुड़ी थीं, दूसरे वे लोगों का सुख-दुख लिखने वाली लेखिका थीं, जिनके मन का एक तार महादेवी वर्मा से जुड़ता था, तो दूसरा तार गांधी जैसे महापुरुष और दिनकर जैसे राष्ट्रभक्त कवियों से, जिनसे उन्होंने बहुत कुछ सीखा था।

मृदुला सिन्हा गांव घर की बात ऐसे करती थीं जैसे लगता था हमारे बीच कोई बुजुर्ग बोल रहा हो। वे अपने परिवार के उदाहरणों से लोक संस्कृति की बातें बतातीं। जब गोवा में वे राज्यपाल बनीं तो लगा कि एक गैर भाषाभाषी सांस्कृतिक रीति-नीति वाले प्रदेश में कैसे काम कर सकेंगी। कैसे गोवावासियों से तालमेल बना सकेंगी। कैसे वहां राजनीतिक संतुलन कायम कर सकेंगी। पर वे बतातीं कि कैसे उन्होंने अपने लोक-संस्कृति के अनुभवों से यहां भी विभिन्न समुदायों में जाकर वहां के लोगों के सांस्कृतिक रीति रिवाजों का अवलोकन किया तथा यह पता लगाया कि विविधवर्णी इस देश में सांस्कृतिक भिन्नताओं के बावजूद लोक समुदाय कितना भोला-भाला है।

एक बार की बात है कि गोवा में गांधी व दिनकर को लेकर एक समारोह का आयोजन जयते फाउंडेशन की ओर से किया गया, जिसमें मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित गोवा की राज्यपाल के परिचय में उनके पदनाम के साथ लिखा था, हिंदी की जानी-मानी कथाकार, उपन्यासकार, विमर्शकार, लोक साहित्य एवं संस्कृति की परम विदुषी माननीया मृदुला सिन्हा यह परिचय ही उनके साहित्य प्रेम को दर्शाता है। (हिफी)

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