किसानों ने खुद की गिराई साख?
नई दिल्ली। आप सबको बेहतर तरीके से याद होगा, भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने एक नारा दिया था जय जवान, जय किसान लेकिन दिल्ली में गणतंत्र दिवस के मौके पर यह नारा टूटता, बिखरता और कराहता देखा गया। किसान आंदोलन के नाम पर जो कुछ हुआ, उसे लोकतंत्र की हत्या करार दिया जा सकता है। किसानों ने दिल्ली पुलिस और खुद से वादा किया था कि गणतंत्र दिवस में किसी प्रकार की खलल नहीं डालेंगे, लेकिन इस घटना से किसानों ने अपना विश्वास खोया है। पिछले दिनों अमेरिका में कैपिटल हिल में जो घटना हुई थी उससे भी अधिक शर्मनाक दिल्ली की घटना है। यह अलग बात है लोग इसकी समीक्षा किस तरह करते हैं। देश की खुफिया एजेंसियों ने भी सुरक्षातंत्र को सतर्क किया था और बताया भी कि कुछ अराजक तत्व किसान परेड की आड़ में गड़बड़ी कर सकते हैं। खुफिया विभाग की सूचना सटीक निकली लेकिन इसके बाद भी दिल्ली पुलिस कुछ नहीं कर पायी।
दिल्ली में कथित किसान आंदोलन के मसीहा लाल किले पर धर्म विशेष का झंडा फहरा कर खुद को भले गौरवान्वित और विजेता समझ रहे हों, लेकिन वास्तव में यह भारत और उसकी लोकतांत्रिक व्यवस्था का घोर अपमान है। अमेरिका के कैप्टन हिल की घटना पर शर्म और निंदा प्रकट करने वाले क्या दिल्ली के लाल किले पर हुई घटना पर क्या कहेंगे। क्योंकि उनके पास कुछ कहने को बचा ही नहीं है। देश ने बहुत कुछ खो दिया है। इससे बड़ी शर्मनाक घटना नहीं हो सकती है। हमारे पास लोकतंत्र पर गर्व महसूस करने के लिए शेष नहीं रहा। देश किधर जा रहा है इस पर भी हमें विचार करना होगा। सिर्फ सरकार का विरोध करना ही हमारा कर्तव्य नहीं हैं उसके साथ और समीकरण जुड़े हैं, उस पर भी विचार करना होगा। हमें देश के गौरव, मान और सम्मान उसके साथ उसके स्वाभिमान की भी रक्षा करनी होगी।
लाल किला देश का गौरवशाली इतिहास है। उसकी गरिमा से छेड़छाड करना उचित नहीं है। किसानों ने एक धर्म विशेष का झंडा लहरा कर देश और तिरंगा का अपमान किया है। जिस जगह तिरंगा लहराता आया है, वहाँ क्या किसी धर्म से जुड़े झंडे को फहराना उचित है। निश्चित रूप से किसान आंदोलन अपनी राह से भटक गया है। जिस गणतंत्र दिवस पर हम संविधान और उसकी रक्षा का संकल्प लेते हैं, उसी कानून और मर्यादा की धज्जियां उड़ाई गईं। इस कृत्य की अनुमति सभ्य समाज कभी नहीं दे सकता है। किसानों ने जिस तरह दिल्ली में तांडव मचाया वह विचारणीय प्रश्न है। ट्रैक्टर परेड के लिए दिल्ली पुलिस ने बाकायदा किसानों को लिखित रूप से निर्देश दिए थे और रूट भी तय कर दिया था। सवाल उठता है कि जब दिल्ली पुलिस और किसान संगठनों के बीच आम सहमति के बाद ट्रैक्टर परेड की अनुमति मिली थी तो फिर किसानों ने रास्ता क्यों बदला?
दिल्ली के लाल किले पर उन्होंने झंडा फहरा कर क्या संदेश दिया, यह साबित हो चुका है। किसान संगठन इसे अपनी जीत के रूप में भले देख रहे हों, लेकिन देश को बड़ा आघात लगा है। किसान संगठनों ने साफ कर दिया है कि कुछ बाहरी तत्व परेड में घुस आए थे। किसान नेता अब चाहे जो सफाई दें लेकिन उन्होंने खुद का विश्वास गंवाने के बाद आंदोलन की गरिमा को तार-तार कर दिया है। अहम सवाल है कि जब किसान नेताओं ने देश को पूरा भरोसा दिया था हम किसी तरह संविधान के साथ लोकतंत्र की मर्यादा से कोई खिलवाड़ नहीं होने देंगे, उस स्थिति में यह सब कैसे हुआ। किसानों को अगर झंडा फहराना ही था तो तिरंगा क्यों नहीं लहराया। देश की लोकतांत्रिक मर्यादा एवं कानून व्यवस्था से बड़ा कुछ नहीं हो सकता है।
किसान संगठनों ने अपना जन विश्वास खो दिया है। अभी तक घटना के पहले लोग सरकार को कोस रहे थे। आंदोलन में डेढ़ सौ से अधिक किसान अपनी जान गवां चुके हैं। एक बड़ा वर्ग किसानों के साथ था, लेकिन किसान नेताओं और किसान संगठनों ने जिस तरह व्यवस्था और संविधान को धोखा दिया है, यह कतई बर्दाश्त करने लायक नहीं है। इस मामले पर बिल्कुल कोई राजनीति नहीं होनी चाहिए। दिल्ली की सीमा से सटे सिंधु बॉर्डर,गाजियाबाद टिकरी पर पंजाब और हरियाणा के किसान ट्रैक्टर परेड में शामिल होने के लिए दिल्ली आ रहे थे। 16 किलोमीटर तक किसान बेधड़क ट्रैक्टर लेकर किस तरह दिल्ली पहुंच गए, यह सवाल है। पुलिस की कुछ नाकामियां हो सकती हैं लेकिन पूरी दिल्ली पुलिस अपना जोश खोती तो बड़ा हादसा हो सकता था। किसान अपनी पूरी तैयारी से आए थे अगर पुलिस गोली चलाती तो स्थितियां बिगड़ जातीं। अनगिनत लोग मारे जाते और एक नए सिरे से राजनीति होती।
किसान आंदोलन पूरी तरह से शांत वातावरण में चल रहा था। सरकार और किसानों के बीच 11 चक्र की वार्ता भी हो चुकी थी लेकिन किसान तीनों कानूनों को रद्द करने पर अड़े थे। किसानों को यह अधिकार है कि वह लोकतांत्रिक तरीके से अपना आंदोलन करें लेकिन गणतंत्र दिवस पर जिस प्रकार से दिल्ली में जो तांडव हुआ वह एक साजिश थी। किसान और जवान आपस में भिड़ गए। इस हिंसा में 300 के करीब दिल्ली पुलिस के जवान घायल हुए हैं। दिल्ली पुलिस के सब्र की प्रशंसा करनी चाहिए। घटना की साजिश में जो लोग भी शामिल हैं उनकी निष्पक्ष जांच करके सरकार को कड़े कदम उठाने चाहिए।
दिल्ली की घटना से सबक लेते हुए अब पुलिस को किसान आंदोलन के बारे में विचार करना होगा क्योंकि किसानों ने जो वादा किया था वह बिखर गया। दिल्ली को एक तरह से बंधक बना लिया गया। हरियाणा के कई जिलों में इंटरनेट सेवाएं बंद करनी पड़ी। लाल किले पर किसानों ने चढ़कर तलवारबाजी की। पुलिस पर पत्थर फेंके गए और बदले में पुलिस ने आंसू गैस और लाठी चार्ज किया। दिल्ली पुलिस के बीच जो समझौता हुआ था उसमें साफ रूप से कहा गया था किसान केवल ट्रैक्टर लेकर आएंगे और कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं लाएगें लेकिन किसानों ने दिल्ली में जिस तरह से ट्रैक्टर चलाकर पुलिस वालों को दबाने की कोशिश की यह शर्मनाक और निंदनीय घटना है। परेड में जेसीबी मशीनें भी लाई गईं थीं।
दिल्ली में जिन लोगों ने किसान आंदोलन के आड़ में तांडव मचाया उसकी निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। भारत की छवि को विदेशों में धूमिल करने की यह साजिश रची गईं है। सरकार इस मामले में दोषियों के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई करें, लेकिन निर्दोष किसानों के खिलाफ बदले की कार्रवाई नहीं होनी चाहिए। क्योंकि किसान आंदोलन पर अब तक सरकार और किसान दोनों की भूमिका अहम् रही है जहाँ तक कानून व्यवस्था और शान्ति का सवाल था। किसान संगठनों ने पहली फरवरी यानी बजट के दिन संसद मार्च करने का कार्यक्रम बनाया था, उसे वापस ले लिया गया है लेकिन पुरानी मांगों को लेकर आंदोलन जारी है। (हिफी)