स्वयं को पुस्तक मानकर उसे पढ़ें - हृदयनारायण दीक्षित

स्वयं को पुस्तक मानकर उसे पढ़ें - हृदयनारायण दीक्षित

लखनऊ। विश्व की सभी सभ्यताओं में पुस्तकों का आदर किया जाता है। पुस्तकों में वर्णित जानकारियाॅं लेखक के कौशल से सार्वजनिक होती हैं। शब्द स्वयं में सार्वजनिक सम्पदा है। शब्द सबके हैं लेकिन शब्दों के अर्थ अपने-अपने हैं। शब्द का प्रयोग करने वाले की क्षमता उन्हें अर्थ देती है। पुस्तकों में लेखक का शब्द कौशल विचार और कल्पना एक साथ प्रकट होती है। पुस्तक रचनाकार की शब्ददेह होती है। चर्चित चलचित्र लेख ह्वाइटलांगमैन ने लिखा था कि यह पुस्तक नहीं मेरी देह है जो इसे छूते हैं। वह एक मनुष्य को छूते हैं और वह मनुष्य मैं हूँ। मैं पुस्तक के पृष्ठों से प्रकट होकर आप के हृदय मे पैठ जाऊंगा। मनुष्य मरणशील है लेकिन मनुष्य रचित शब्द संसार अमर है।

भारतीय चिन्तन में शब्द ब्रह्म कहे गये है। पुस्तकें पृथ्वी का समस्त ज्ञान एक साथ धारण करती हैं। एक सृष्टि प्रत्यक्ष है। प्रत्यक्ष सृष्टि में पृथ्वी है, आकाश है, सूर्य है, तारे है, करोड़ों जीवधारी है। हम सब इसी सृष्टि का भाग हैं। दूसरी सृष्टि शब्दों से बनती है इसमें भी सूर्य, चन्द्र, तारे, पर्वत, नदियाँ और करोड़ों प्राणी हैं। हम समूची सृष्टि में भ्रमण नहीं कर सकते। हमारी गति और जानकारी की सीमा है लेकिन पुस्तकों के माध्यम से समूची सृष्टि की जानकारी प्राप्त करते हैं। पुस्तकें भाषा वाणी और सृष्टि का रूपायन है। मैं कई बार सोचता हूँ कि पुस्तकें न होती तो यह संसार कैसा होता? सबसे पहले शब्द प्रकट हुए। भाषा में जानकारियाँ साझा करने की सुविधा हुई। फिर पुस्तकें बनी। अध्ययन एक विशेष प्रकार का रसायन है। यह मनुष्य के शरीर के स्वास्थ्यवर्धक रसायनों को प्रेरित करता है। वैज्ञानिकों ने पुस्तक अध्ययन को वृद्धावस्था की तमाम बीमारियों से बचाने वाला व्यायाम कहा है। हम पुस्तकें पढ़ते हैं। शब्द मस्तिष्क में प्रवेश करते हैं। मस्तिष्क में शब्दों के रूप बनते हैं। रूप हमारे सामने जीवन्त होते हैं। हम शब्दों के साथ विश्व के किसी भी क्षेत्र की यात्रा पर होते हैं।

शब्द की क्षमता बड़ी है, शब्द सत्ता अध्ययनकर्ता को विशेष आनन्द लोक में ले जाती है। ज्ञात सार्वजनिक सम्पदा है और अज्ञात व्यक्तिगत। अनुभव भी व्यक्तिगत होते हैं। हम पुस्तकों के माध्यम से व्यक्तिगत ज्ञान को भी सार्वजनिक ज्ञान सम्पदा के रूप में प्राप्त करते हैं। अध्ययन कभी-कभी खूबसूरत निष्कर्ष भी देते हैं और कभी-कभी सुन्दर जिज्ञासा भी। बहुत लोग पुस्तकों की प्रशंसा करते हैं, लेकिन समय की कमी का रोना रोते हैं। सारी दुनिया मनुष्यों के लिए समय अखण्ड सत्ता है। प्रत्येक व्यक्ति को दिन रात मिलाकर 24 घण्टे मिलते हैं। इसी समय में हम ढेर सारे काम करते हैं, लेकिन अध्ययन के सम्बन्ध में हम समय की कमी अनुभव करते हैं। यह हमारी प्राथमिकता है कि हम पढ़ें। समय निकालकर पढ़ें अथवा स्वयं को व्यस्त जान कर न पढ़ें।

अध्ययन बौद्धिक और आत्मिक गतिशीलता है। न पढ़ना जड़ता है। पढ़ना गतिशीलता है। पुस्तक अध्ययन प्रतिदिन हमारे चित्त को नया करता है। अध्ययन स्वयं को पुनर्सृजित करना है। अध्ययन सर्वोत्तम आनंद है। यशदाता है। सर्वोत्तम सुख है और राष्ट्रीय कर्तव्य भी है। तैतरीय उपनिषद के 9वें अनुवाक् के प्रथम मंत्र में कहते हैं, ''प्रकृति के ऋत विधान का पालन करें। अध्ययन करें और पढ़े हुए को सबको बतायें। अध्ययन से प्राप्त ज्ञान को समाज हित में प्रवाहित करना कर्तव्य है। अगले मंत्र में कहते हैं, ''सत्यव्रत का पालन करें, अध्ययन और प्रवचन करें। कठिन परिश्रम करें, अध्ययन करें। पढ़े हुए को बतायें। अतिथि सत्कार करें, अध्ययन प्रवचन करें। सुन्दर लोक व्यवहार करें, ध्यान प्रवचन करें''। ऋषि निर्देश है कि कोई भी काम करें, लेकिन पढ़ें और पढ़े हुए को बतायें।

सम्पूर्ण संसार एक विराट पुस्तक है। किसी वृक्ष को ध्यान से देखना अध्ययन है। किसी प्राणी को भी ध्यान से देखना अध्ययन है। सामाजिक गतिविधियों में हिस्सा लेना अनुभव प्राप्त करना और ध्यान से समझना भी अध्ययन है। प्रत्येक मनुष्य भी एक सुन्दर लेकिन जटिल पुस्तक है। मनुष्य का भौतिक अध्ययन आसान है। शारीरिक दृष्टि से सभी मनुष्य लगभग एक जैसे हैं, लेकिन आंतरिक संरचना में जटिल है। मन चेतना के आंतरिक व्यापार कोसमझना कठिन है, इसलिए प्रत्येक मनुष्य को स्वयं को पुस्तक मानकर अध्ययन करना चाहिए। ऐसा अध्ययन चुनौती भरा है, लेकिन सरल है। हम स्वयं पुस्तक हैं। जहाँ-जहाँ जाते हैं वहाँ-वहाँ हम अपने साथ होते हैं। हम अपने भीतर प्रतिपल बदलते भावों को पुस्तक की तरह पढ सकते हैं। हम जीवन के तमाम कार्यों में व्यस्त रहते हैं, लेकिन स्वयं की पुस्तक को स्वयं ही नहीं पढ़ते। स्वयं द्वारा स्वयं को पढ़ना बड़ा उपयोगी है। स्वयं के भीतर के रागद्वेष आत्मीयता, संशय, क्रोध, लोभ, मोह को पढ़ना बड़ा मनोरंजक है। यह अध्ययन बड़ा सस्ता है। कोई पुस्तक खरीदने की जरूरत नहीं। स्वयं द्वारा स्वयं को पढ़ना व समझने का प्रयास करना सुन्दर कृत्य है। हम सब दिन भर वार्तालाप करते हैं। दुनिया के सभी लोगों की वार्ता को एकत्रित करके करोड़ों पुस्तकें बनाई जा सकती हैं। सोचता हूँ कि वार्ता अगर पदार्थ होती तो प्रत्येक मनुष्य द्वारा बोले गए वाक्यों पदार्थों से दुनिया भर जाती।

पूर्वज प्राकृतिक ज्ञान और अनुभवों को सुनते-सुनाते थे। तब लिपि का आविष्कार नहीं हुआ था। आधुनिक काल में भी परस्पर वार्ता होती है। लेकिन अब वार्ता के माध्यम बदल गए है। मोबाइल एस0एम0एस0 है, वीडियो चैटिंग है, वीडियो कान्फ्रेंसिंग है। लेकिन इनमें पुस्तक का आनंद नहीं है। लिपि के आविष्कार के बाद छापेखाने की खोज से ज्ञान संचार और ज्ञान प्राप्ति के कर्म में क्रांति आई। बोला सुना वैदिक वांग्मय भी अब पुस्तक रूप में उपलब्ध है। विश्व के हजारों लेखकों-कवियों का सृजन पुस्तक रूप में सहज प्राप्त है।

मैं अकेले नहीं रह सकता। पुस्तकों के साथ रहने में आनंद मिलता है। मैं पुस्तकों से बातें करता हूँ। वे भी मुझसे बातें करती हैं। मैं यात्रा में भी अपने साथ कुछ पुस्तकें रखता हूँ। प्रवास के दौरान घर के पुस्तकालय की पुस्तकें याद आती रहती हैं। घर लौटता हॅू। वे उदास जान पड़ती है। मैं कुशल क्षेम पूछता हॅू। वे कहती है कि ''समय अच्छा नहीं कटा। अब मुझे हाथ में लो, मेरे शब्द हृदय में उतारो।'' मैं उन्हें प्रणाम करता हॅू।

मैं राजनैतिक कार्यकर्ता हूँ। मुझे समर्थकों का बड़ा संसार चाहिए। भीड़भाड़, समर्थक, प्रशंसक आदि। लेकिन पुस्तकें हमारा अभिन्न हिस्सा है। मेरा पहला प्यार-'पुस्तकें' ही हैं। पुस्तकों के संग्रह या अध्ययन में मैंने चुनाव नहीं किया। जो मिला, सो पढ़ा। संभवतः इसी इच्छा और आकर्षण के चलते मैं अच्छा विद्यार्थी बना। अध्ययन सुंदर कृत्य है। (हिफी)

लेखक हृदयनारायण दीक्षित ,उत्तर प्रदेश विधानसभा के वर्तमान अध्यक्ष है

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