चौरी-चौरा काण्ड का संदेश

नई दिल्ली। हमारे देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति बहुत संघर्ष, त्याग और बलिदान के बाद मिली है। अनगिनत घटनाएं हैं जो आज की युवा पीढ़ी को याद तक नहीं। यह दुर्भाग्य की बात है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ही कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने इतिहास को याद नहीं रखता, वो अपने भूगोल को सुरक्षित नहीं रख सकता।
योगी आदित्यनाथ आज प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं लेकिन इससे पूर्व वह गोरखपुर संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते थे। इसी संसदीय क्षेत्र में चौरी-चौरा नामक एक राष्ट्रीय तीर्थ स्थल है जहां आज से सौ वर्ष पूर्व अदम्य साहस की लड़ाई लड़ी गयी और अविस्मरणीय बलिदान की गाथा लिखी गयी थी। इसे चौरी-चौरा काण्ड के नाम से जानते हैं। इसका संदेश देश की मौजूदा पीढ़ी तक पहुंचे, इसीलिए चौरी-चौरा काण्ड का शताब्दी समारोह मनाया जा रहा है। इसका उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया और राष्ट्र को संबोधित भी किया। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस तरह की त्याग और बलिदान की गाथाओं को याद दिलाते हुए अटल जी के शब्दों में कहा कि भारत जमीन का एक टुकड़ा भर नहीं है बल्कि जीता-जागता राष्ट्र पुरुष है। हम जिएंगे तो इसके लिए और मरेंगे तो इसके लिए।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि चौरी-चौरा का संदेश बहुत व्यापक था। पहले इसे सिर्फ एक अग्निकांड के रूप में देखा गया लेकिन यह आग क्यों लगायी गयी थी, इसे समझना जरूरी है। दरअसल, उस समय यह आग जनता के दिल में लगी थी जो पुलिस थाने को खाक कर गयी। पीएम मोदी ने ठीक ही कहा कि हर क्षेत्र और हर गांव के बलिदानियों को याद किया जाना चाहिए। यही चैरी चैरा काण्ड का संदेश भी है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चौरी-चौरा शताब्दी समारोह में कहा चौरी-चौरा में जो हुआ वो एक थाने में आग लगा देने की घटना नहीं थी, वो संदेश बहुत बड़ा और व्यापक था। पीएम मोदी ने कहा इससे पहले इस घटना को एक मामूली आगजनी के सन्दर्भ में देखा गया लेकिन आगजनी क्यों हुई ये भी महत्वपूर्ण है। आग थाने में नहीं लगी थी, जन जन के हृदय में लगी थी। पीएम मोदी ने इस खास मौके पर एक विशेष डाक टिकट भी जारी किया। यह समारोह साल भर चलेगा। इस खास मौके पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और राज्यपाल आनंदीबेन पटेल भी मौजूद थे। सरकार ने चैरी चैरा कांड के शहीदों के स्मारक स्थल और संग्राहलय का पुनरूद्धार किया है। वहां बड़ी संख्या में पर्यटक आते हैं।
पीएम मोदी ने कहा, सामूहिकता की जिस शक्ति ने गुलामी की बेड़ियों को तोड़ा था, वही शक्ति भारत को दुनिया में बड़ा बनाएगी। चौरी-चौरा की पवित्र धरती को प्रणाम करते हुए उन्होंने कहा कि 100 साल पहले जो हुआ वह केवल जेल जलाने का मसला नहीं था। यह आजादी के लिए उठाया गया एक नया कदम था।
चौरी-चौरा कांड 4 फरवरी 1922 को ब्रिटिश भारत में संयुक्त राज्य के गोरखपुर जिले के चौरी-चौरा में हुआ था, जब असहयोग आंदोलन में भाग लेने वाले प्रदर्शनकारियों का एक बड़ा समूह पुलिस के साथ भिड़ गया था। जवाबी कार्रवाई में प्रदर्शनकारियों ने हमला किया और एक पुलिस स्टेशन में आग लगा दी थी, जिससे उनके सभी कब्जेधारी मारे गए। इस घटना के कारण तीन नागरिकों और 22 पुलिसकर्मियों की मौत हुई थी। महात्मा गांधी, जो हिंसा के सख्त खिलाफ थे, ने इस घटना के प्रत्यक्ष परिणाम के रूप में 12 फरवरी 1922 को राष्ट्रीय स्तर पर असहयोग आंदोलन को रोक दिया था। चौरी-चौरा कांड के अभियुक्तों का मुकदमा पंडित मदन मोहन मालवीय ने लड़ा और उन्हें बचा ले जाना उनकी एक बड़ी सफलता थी। इस घटना के तुरन्त बाद गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन को समाप्त करने की घोषणा कर दी। बहुत से लोगों को गांधीजी का यह निर्णय उचित नहीं लगा। विशेषकर क्रांतिकारियों ने इसका प्रत्यक्ष या परोक्ष विरोध किया।
इस घटना के दौरान अंग्रजों के जुल्म से आक्रोशित लोगों ने स्थानीय थाने को फूंक दिया था। घटना में 23 पुलिसकर्मी जलकर मर गए थे। जबकि 3 नागरिकों की भी मौत हो गई थी। हिंसा के सख्त खिलाफ महात्मा गांधी ने 16 फरवरी 1922 को अपने लेख 'चैरी चैरा का अपराध' में लिखा था कि अगर ये आंदोलन वापस नहीं लिया जाता तो अन्य जगहों पर भी इस तरह की घटनाएं देखने को मिल सकती थीं। हालांकि गांधी जी के इस फैसले को लेकर क्रांतिकारियों ने नाराजगी जाहिर की थी।
चौरी-चौरा के इस घटना की पृष्ठभूमि 1857 के गदर से ही तैयार होने लगी थी। जंगे आजादी के पहले संग्राम (1857) में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ पूर्वांचल के तमाम रजवाड़ों, जमीदारों (पैना, सतासी, बढ़यापार नरहरपुर, महुआडाबर) की बगावत हुई थी। इस दौरान हजारों की संख्या में लोग शहीद हुए। इस महासंग्राम में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से शामिल अवाम पर हुक्मरानों ने अकल्पनीय जुल्म ढाए। बगावत में शामिल रजवाड़ों और जमींदारों को अपने राजपाट और जमीदारी से हाथ धोना पड़ा। ऐसे लोग अवाम के हीरो बन चुके थे। इनकी शौर्यगाथा सुनकर लोगों के सीने में फिरंगियों के खिलाफ बगावत की आग लगातार सुलग रही थी। उसे भड़कने के लिए महज एक चिन्गारी की जरूरत थी। ऐसे ही माहौल में उस क्षेत्र में महात्मा गांधी का आना हुआ।
महात्मा गांधी 1917 में नील की खेती (तीन कठिया प्रथा) के विरोध में चंपारण आए थे। उनके आने के बाद से पूरे देश की तरह पूर्वांचल का यह इलाका भी कांग्रेस मय होने लगा था। एक अगस्त 1920 को बाल गंगाधर तिलक की मृत्यु के बाद गांधीजी कांग्रेस के सर्वमान्य नेता बनकर उभरे। स्वदेशी की उनकी अपील का पूरे देश में अप्रत्याशित रूप से प्रभाव पड़ा। चरखा और खादी जंगे आजादी के सिंबल बन गये। ऐसे ही समय 8 फरवरी 1920 को गांधी जी का गोरखपुर में पहली बार आना हुआ। बाले मियां के मैदान में आयोजित उनकी जनसभा को सुनने और गांधी को देखने के लिए जनसैलाब उमड़ पड़ा था। उस समय के दस्तावेजों के अनुसार, यह संख्या 1.5 से 2.5 लाख के बीच रही होगी। उनके आने से रौलट एक्ट और अवध के किसान आंदोलन से लगभग अप्रभावित पूरे पूर्वांचल में जनान्दोलनों का दौर शुरू हो गया। गांव-गांव कांग्रेस की शाखाएं स्थापित हुईं। वहां से आंदोलन के लिए स्वयंसेवकों का चयन किया जाने लगा।
मुंशी प्रेम चंद (धनपत राय) ने राजकीय नार्मल स्कूल से सहायक अध्यापक की नौकरी छोड़ दी। फिराक गोरखपुरी ने डिप्टी कलेक्टरी की बजाय विदेशी कपड़ों की होली जलाने के आरोप में जेल जाना पसंद किया। ऐसी ढ़ेरों घटनाएं हुईं। इसके बाद तो पूरे पूर्वांचल में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ माहौल बन चुका था। गांधी के आगमन के बाद 4 फरवरी 1922 को गोखपुर के एक छोटे से कस्बे चौरी-चौरा में जो फिर वह अविस्मरणीय इतिहास लिखा गया जो जनता के साहस की कहानी आज भी सुना रहा है। इस कहानी को देश का बच्चा-बच्चा, जाने यही प्रयास हो रहा है। (हिफी)