प्रकृति से छेड़छाड़ से बदला मौसम
लखनऊ। वनों से लकड़ियां प्राप्त करना पर्वतीय क्षेत्र के लोगों की जरूरत है। कई क्षेत्रों में शीत ऋतु में कड़ाके की ठंड पड़ती है। वहां के लोग अंगीठी में लकड़िया जलाकर अपने शरीर को गर्म रखते हैं। कुकिंग गैस के दाम बेतहाशा बढ़ने से लोग खाना लकड़ियां जलाकर बना रहे हैं। दूरस्थ इलाकों से गैस सिलिंडर लाना एक तपस्या से कम नहीं है। इस कारण वनों का सफाया हो रहा है। सैकड़ों क्विंटल लकड़ियां शीत ऋतु में स्वाहा हो जाती है। लकड़ियों पर खाना बनाकर रसोई के बजट को कम करना मजबूरी है। विकास के नाम पर वनों का दोहन होता है। कितने वन हर वर्ष साफ होते हैं। इसका कोई आंकड़ा नहीं है। सघन वन एकल वन में बदल गये हैं।
यदि हम प्रकृति से छेड़छाड़ करेंगे तो प्रकृति अपना रौद्र रूप दिखायेगी। आजकल जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम चक्र बदल गया है। वर्ष 2022 का मानसून सितम्बर में ही विदा हो गया था किन्तु अक्टूबर में भी देश भर में भारी वर्षा हुयी। इस कारण कई स्थानों में बाढ़ आयी। कई स्थानों पर साल भर की वर्षा का रिकार्ड टूटा। कई जगह बाढ़ आती है और कई जगह पड़ता है सूखा। कभी भीषण गर्मी, कभी भीषण ठंड। मौसम चक्र गड़बड़ा गया है। जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक प्रभाव हिमालय क्षेत्र में पड़ा है। ऋतुओं ने भी रूख बदला है। अतिवृष्टि या अल्पवृष्टि जलवायु परिवर्तन के कारण हैं।
हिमालय क्षेत्र में वर्षा के दिन घट गये हैं। हिमपात भी कम होता है। नयनाभिरामी पर्वत श्रृंखलायें बर्फाच्छादित रहती थीं अब हिमपात के दिवस घट गये है। बर्फ गिरती है तो कुछ ही दिनों में पिघल जाती है। यह ग्लोबल वार्मिंग के कारण हैं। जो बर्फ पर्वत श्रृंखलाओं पर एक माह तक रहती थी, अब 10 दिन तक ही टिकती है। हिमपात भी कम समय के लिए होता है। इसका प्रभाव पर्वतीय क्षेत्र की जलवायु पर पड़ा है।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पर्वतीय क्षेत्र में फलोत्पादन पर पड़ा है। पूर्व में यहां के सेबों में जो स्वाद रहता था, अब वह नही रहा। इसका रंग भी फीका पड़ चुका है। अन्य फलों का भी कमाबेश यही हाल है। इससे फलों की गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ा है जिससे व्यापार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
जिसे हम ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं, उसे वैज्ञानिकों ने 'हीट लैंड इफेक्ट' बताया है। वनों का कटान जारी है और शहरों से लगे वन कंक्रीट के जंगल बन गये हैं। पहाड़ियों को काटकर सड़के बन रही हैं। विस्फोटकों के असर से पर्वत श्रृंखलायें कमजोर हो गयी हैं। सड़कों पर वाहनों का लोड बढ़ गया है। खनन माफियाओं ने वनों का सफाया कर दिया है। प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से समृद्ध वन सम्पदा समाप्त हो रही है। उधर, ठेकेदार इस सम्पदा से मालामाल हो रहे हैं।
वनों से लकड़ियां प्राप्त करना पर्वतीय क्षेत्र के लोगों की जरूरत है। कई क्षेत्रों में शीत ऋतु में कड़ाके की ठंड पड़ती है। वहंा के लोग अंगीठी में लकड़िया जलाकर अपने शरीर को गर्म रखते हैं। कुकिंग गैस के दाम बेतहाशा बढ़ने से लोग खाना लकड़ियां जलाकर बना रहे हैं। दूरस्थ इलाकों से गैस सिलिंडर लाना एक तपस्या से कम नहीं है। इस कारण वनों का सफाया हो रहा है। सैकड़ों क्विंटल लकड़ियां शीत ऋतु में स्वाहा हो जाती है। लकड़ियों पर खाना बनाकर रसोई के बजट को कम करना मजबूरी है। विकास के नाम पर वनों का दोहन होता है। कितने वन हर वर्ष साफ होते हैं। इसका कोई आंकड़ा नहीं है। सघन वन एकल वन में बदल गये हैं।
जिस संख्या में वृक्ष कटते हैं, उतनी संख्या में वृक्षारोपण नहीं होता। एक वृक्ष कटने पर तीन वृक्षों के रोपण का प्रावधान है। वन विभाग ने वृक्षारोपण कराया है। कई जगह यह कागज पर होता है। ''लैंड यूज'' से भूमि घट गयी है। वन विभाग ने जो वृक्षारोपण कराया है। उसमें कहा गया है कि वन बढ़े हैं लेकिन फारेस्ट सर्वे ऑफ इण्डिया का आंकड़ा है कि ट्री कवर नहीं बढ़ा है हो सकता है देख-रेख न होने के कारण पौधे नष्ट हो गये हों।
वर्ष 2022 पर्वतीय क्षेत्र में भू-स्खलन, मलवा, पत्थर व बोल्डर गिरने से कई दुर्घटनाएं हुयी जिनमें कई लोगों की जान गयी। बादल फटने की घटनायें हुयी। वर्षा ऋतु में पर्वतीय क्षेत्र की यात्रा खतरे से खाली नहीं होती है। मलवा गिरने से मार्ग अवरूद्ध हो जाते हैं। सैलानी पर्वतों की सैर के लिए निकलते हैं लेकिन जब कोई हादसा उनके साथ हो जाय तो सैर का खुशनुमा माहौल मातम में बदल जाता है।
खनन से पहाड़ों का दोहन हुआ है। जल भंडार सूख गये हैं। भावर व तराई में अनियंत्रित खनन से नदियों का अस्तित्व खतरे में पड़ा है। इन नदियों का जलस्तर घट रहा है। नदियों का जलस्तर ऐसे ही घटता रहा तो लोगों को पेयजल नसीब नहीं होगा। भूमिगत जलस्तर घटने से टूयूबवेल भी पानी दे पा रहे हैं।
लैंड हीटिंग से ग्लेशियर पिघल रहे हैं। इससे जल का अभाव हो रहा है। हिमालय क्षेत्र में बर्फ की चादर एक तिहाई बढ़ी है। बर्फीले पानी की मात्रा 37 फीसद बढ़ी है। शोधकर्त्ताओं के अनुसार करीब 2090 ग्लेशियर पिघल रहे हैं। उन्होंने 2.50 लाख से ज्यादा पर्वतीय ग्लेशियरों की गहराई व मूवमेंट का अध्ययन किया था। उन्होंने चेताया है कि यदि यही दशा रही तो गंगा व यमुना जैसी नदियां सूखने लगेंगी। सैकड़ों लोग पेयजल के लिए तरस जायेंगे। खेती चौपट हो जायेगी। समुद्री जलस्तर बढ़ जायेगा। समुद्र का जलस्तर 25.30 फीसद बढ़ रहा है। वैज्ञानिकों ने सेटेलाइट चित्रों से यह निष्कर्ष निकाला है। दस वर्षो में मौसम का पैटर्न बदला है। हम यदि पर्यावरण संरक्षण करेंगे तो जलवायु परिर्वतन से उत्पन्न खतरों से खुद को बचा सकेंगे। (हिफी)