अंतहीन पिछडे़पन पर सुप्रीम सवाल

अंतहीन पिछडे़पन पर सुप्रीम सवाल
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लखनऊ। सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण मामले की सुनवाई करते हुए 27 अगस्त को एक बड़ी टिप्पणी की थी। अदालत ने सवाल किया कि क्या ऐसे लोगों को पिछड़ेपन को अपने अंतहीन तरीके से ढोते रहना है। अदालत ने कहा कि एससी-एसटी के सबसे निचलेे स्तर तक रिजर्वेशन का लाभ नहीं पहुंच पा रहा है। अदालत ने कहा कि क्या अनंतकाल तक ऐसे ही ये पिछड़ेपन को ढोते रहेंगे। अदालत ने कहा कि लाख टके का सवाल ये है कि कैसे निचले स्तर तक लाभ को पहुंचाया जा सके। अदालत ने कहा कि राज्य सरकार एससी-एसटी के ज्यादा पिछड़े वर्ग को प्राथमिकता दे सकती है। अदालत ने कहा कि एससी-एसटी और अन्य बैकवर्ड क्लास में भी विषमताएं हैं और इस कारण सबसे निचले स्तर पर जो मौजूद हैं उन्हें माकूल लाभ नहीं मिल पाता है। राज्य सरकार ऐसे वर्ग को लाभ से वंचित नहीं कर सकती है। अदालत ने अपने फैसले में कहा है कि राज्य सरकार अगर इस तरह की सबश्रेणी बनाती है तो वह संवैधानिक प्रावधान के खिलाफ नहीं है। अदालत ने सवालिया लहजे में कहा कि जब राज्य सरकार को रिजर्वेशन देने का अधिकार है तो उसे सबश्रेणी और वर्ग बनाने का अधिकार कैसे नहीं हो सकता है। अदालत ने कहा कि रिजर्वेशन देने का राज्य सरकार को अधिकार है और वह उप जातियां बनाकर भी लाभ दे सकती है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए कोटा पर अपने 2004 के ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश के उस फैसले की फिर से समीक्षा करने की जरूरत। 2004 के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि शैक्षणिक संस्थानों में नौकरियों और प्रवेश में आरक्षण देने के लिए राज्यों के पास अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों का उपवर्गीकरण करने की शक्ति नहीं है। न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों वाली पीठ ने कहा कि पुनर्विचार की आवश्यकता है और इसलिए, इस मामले को भारत के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष उचित निर्देश के लिए रखा जाना चाहिए। पीठ का विचार था कि 2004 का फैसला उचित तरीके से नहीं आया था और राज्यों के पास आरक्षण देने की शक्ति है तो उनके पास यह भी शक्ति है कि इसका फायदा सभी तक पहुंचाने के लिए वह इसका उप-वर्गीकरण करे। उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ पंजाब सरकार द्वारा दायर एक मामले में जस्टिस अरुण मिश्रा के साथ इस बैंच में इंदिरा बनर्जी, विनीत सरन, एमआर शाह और अनिरुद्ध बोस भी शामिल थे। पीठ ने उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ पंजाब सरकार द्वारा दायर इस मामले को प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबडे के पास भेज दिया ताकि पुराने फैसले पर फिर से विचार करने के लिए बड़ी पीठ का गठन किया जा सके। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने आरक्षण देने के लिए एससी/एसटी को उपवर्गीकृत करने की सरकार को शक्ति देने वाले राज्य के एक कानून को निरस्त कर दिया था। हाईकोर्ट ने इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के 2004 के फैसले का हवाला दिया और कहा कि पंजाब सरकार के पास एससी/एसटी को उपवर्गीकृत करने की शक्ति नहीं है। न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 27 अगस्त को एससी-एसटी में वर्गीकरण के मामले को सात जजों की पीठ को भेज दिया। इस फैसले के दूरगामी राजनीतिक प्रभाव हो सकते हैं।

न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 27 अगस्त को फैसला सुनाते हुए कहा कि एससी-एसटी समूह के अंदर असमानता है। पीठ ने कहा, 'मामले में लाभ एससी की सूची में शामिल सभी जातियों के लिए है। इसका इस्तेमाल कुछ जातियों द्वारा किया जा रहा है जिनके पास पर्याप्त प्रतिनिधित्व है, वे उन्नत और क्रीमी लेयर से हैं। ऐसे में यह असमानता घातक होगी क्योंकि भूख लगने पर प्रत्येक व्यक्ति को खाना खिलाना और रोटी उपलब्ध कराना आवश्यक होता है। एक सजातीय वर्ग बनाने की आड़ में दूसरों के हक की कीमत पर सारी चीजें शक्तिशाली वर्ग को नहीं दी जा सकती हैं। सच्चाई ये है कि कुछ जातियां पहले जहां थीं, अब भी वहीं हैं।' पीठ ने यह भी कहा कि कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण का संविधान निर्माताओं द्वारा स्थायीता पर विचार नहीं किया गया था और सामाजिक परिवर्तन को ध्यान में रखे बिना संवैधानिक लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता है। बता दें कि क्रीमी लेयर का इस्तेमाल अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के अंदर धनी व्यक्तियों के लिए किया जाता है, जो आरक्षण के लिए अयोग्य होते हैं। क्रीमी लेयर में आने वाले पिछड़ा वर्ग के लोग आरक्षण के दायरे से बाहर हो जाते हैं। सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण है लेकिन, परिवार की वार्षिक आय क्रीमी लेयर के दायरे में न आती हो। पहले सालाना वार्षिक आय की सीमा 6 लाख रुपये थी जिसे बढ़ाकर 8 लाख रुपये कर दिया गया।

आजादी के पहले प्रेसिडेंसी रीजन और रियासतों के एक बड़े हिस्से में पिछड़े वर्गों (बीसी) के लिए आरक्षण की शुरुआत हुई थी। आरक्षण की शुरुआत 1901 में महाराष्ट्र में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति साहूजी महाराज ने की थी। साहूजी महाराज ने पिछड़े वर्ग से गरीबी दूर करने और राज्य प्रशासन में उन्हें उनकी हिस्सेदारी (नौकरी) देने के लिए आरक्षण शुरू किया था। 1935 में भारत सरकार अधिनियम 1935 में सरकारी आरक्षण को सुनिश्चित किया गया। 1942 में बाबा साहब अम्बेडकर ने सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग उठाई। सरकारी सेवाओं और संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं रखने वाले पिछड़े समुदायों तथा अनुसूचित जातियों और जनजातियों से सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए भारत सरकार ने अब भारतीय कानून के जरिये सरकारी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों की इकाइयों और धार्मिक/भाषाई अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर सभी सार्वजनिक तथा निजी शैक्षिक संस्थानों में पदों तथा सीटों के प्रतिशत को आरक्षित करने की कोटा प्रणाली प्रदान की है। भारत के संसद में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व के लिए भी आरक्षण नीति को विस्तारित किया गया है। भारत की केंद्र सरकार ने उच्च शिक्षा में 27 फीसद आरक्षण दे रखा है और विभिन्न राज्य आरक्षणों में वृद्धि के लिए कानून बना सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार 50 फीसद से अधिक आरक्षण नहीं किया जा सकता, लेकिन राजस्थान जैसे कुछ राज्यों ने 68 फीसद आरक्षण का प्रस्ताव रखा है, जिसमें अगड़ी जातियों के लिए 14 फीसद आरक्षण भी शामिल है। सरकारी नौकरियों और विश्वविद्यालय की सीटों में एससी के पास 15 प्रतिशत, एसटी के पास 7.5 प्रतिशत और ओबीसी के पास 27 प्रतिशत कोटा है।

भारत में आरक्षण जातिवाद पर है आरक्षण एक अधिकार है जो समाज में पिछड़े वर्ग के लोगों को दिया जाता है ताकि समाज में आर्थिक गैप न हो सब एक समान रहे लेकिन यह उन लोगों के लिए बनाया गया था जिनको आर्थिक जरूरत होती है या आर्थिक कमी की वजह से वह कुछ नहीं कर पा रहे लेकिन अच्छे वर्ग के लोग भी इसका फायदा उठाते हैं और जिसको कुछ जरूरत होती है वह उससे दूर रह जाता है जिससे अमीर और गरीब के बीच का फर्क कम नहीं हो पाता है। पुराने समय में आरक्षण लोगों को उनके अधिकार दिलाने के लिए था कि वह समाज में खुद को आगे बड़ा सके जो पिछड़े वर्ग है समाज में आगे बढ़ सके लेकिन आज दौर में आरक्षण का गलत फायदा उठाकर राजनीति खेली जाती है कभी वोट के लिए तो कभी इसकी वजह से देश मे हिंसा फैल जाती है इसलिए आरक्षण काबिलियत के आधार पर दिया जाना चाहिए न कि जाति के आधार पर। यह देश में हर व्यक्ति जानता है यह वह स्थिति है जब बच्चे पूरे साल मेहनत करके पढ़ाई करते हैं और आखिर में कम माक्र्स वाला आरक्षित बच्चा अच्छे कॉलेज में दाखिला पा लेता है या फिर किसी नौकरी में हम से कम काबिलियत रखने वाला युवा काबिलियत के आधार पर नहीं आरक्षण के आधार पर नौकरी पाता है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि आरक्षण देश को उन्नति के रास्ते से दूर कर रहा है और देश में आरक्षण के लिए ऐसे नियम आने चाहिए जिससे, जिसको जरूरत है बस वही आरक्षण का लाभ मिले।

(नाज़नींन-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

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