प्रतीक्षा में धैर्य का महत्व

प्रतीक्षा में धैर्य का महत्व
  • whatsapp
  • Telegram

लखनऊ। अस्तित्व विराट है। इसकी अपनी गतिविधि है। अस्तित्व के अंश भी इसी के भीतर अपने-अपने प्रेम से सक्रिय हैं। अस्तित्व की अनुकम्पा से ही जीवन में शुभ या अशुभ घटित होता है। भविष्य में सुख मिलने या अच्छे दिन की आशा प्रतीक्षा बनती है। प्रतीक्षा गहन आस्तिक भाव है। पूर्वजों ने प्रतीक्षा के साथ धैर्य जोड़ा है। धैर्य भारतीय धर्म के प्रमुख दस लक्षणों में पहला है। प्रकृति की शक्तियाँ भी धैर्य का पालन करती हैं और प्रतीक्षारत रहती हैं। पृथ्वी, मेघ पर्जन्य की प्रतीक्षा में रहती हैं। बीज धरती पर पड़ते ही उगने की प्रतीक्षा करते हैं। पौधे पत्तियाँ धारण करने के लिए उतावले रहते हैं। पौधे वनस्पतियाँ पाकर जीवन चक्र सक्रिय करते हैं और फूलों के खिलने की प्रतीक्षा में होते हैं। सभी जीव प्रतीक्षारत रहते हैं। प्रिय मिलन की प्रतीक्षा और अप्रिय से बचने की भी। नदियाँ वर्षा की प्रतीक्षा में रहती हैं। बछड़ा अपनी माता गाय से मिलने की प्रतीक्षा में रहता है। रात्रि सूर्यास्त की प्रतीक्षा में रहती है कि कब सूर्य देव विदा हों और मैं अपनी प्रकृति के अनुसार अंधकार का सृजन करूँ। इसी तरह ऊषा भी रात्रि की प्रतीक्षा करती है। ऋग्वेद में रात्रि को ऊषा की बड़ी बहन बताया है। बड़ी बहन रात्रि विदा होती है। छोटी बहन ऊषा आ जाती है। ऊषा भी सूर्योदय की प्रतीक्षा करती है। प्रतीक्षा प्रत्येक जीव और मनुष्य की प्राकृतिक भावभूमि है। शुभ प्राप्ति की प्रतीक्षा में धैर्य महत्वपूर्ण है।

प्रतीक्षा अधीर हो सकती है और धैर्ययुक्त भी। अधीर प्रतीक्षा में उतावलापन होता है। मनोदशा स्वाभाविक नहीं रहती। प्रतीक्षा को विवेक का सहारा चाहिए। विवेक सम्मत प्रतीक्षा धैर्य को जन्म देती है। प्रतीक्षा और धैर्य भाई-बहन जान पड़ते हैं। प्रकृति के अंशों की निरन्तर गति के कारण समय का बोध होता है। ऋतुएँ इसी का परिणाम है। ग्रीष्म में सावन की प्रतीक्षा रहती है। सावन में वर्षा की प्रतीक्षा रहती है। वर्षा की रिमझिम में गीत उगते हैं सो सावन में गीतों की भी प्रतीक्षा रहती है। सावन में भादों के आगमन की प्रतीक्षा रहती है। तब श्रीकृष्ण जन्मोत्सव सहित अनेक उत्सवों की प्रतीक्षा रहती है। फिर ग्रीष्म में सर्दी की प्रतीक्षा और शरदऋतु में शरद पूर्णिमा की प्रतीक्षा। भारतीय काल गणना में प्रथम मास चैत्र है और अन्तिम फाल्गुन। लेकिन पूर्वजों को शरद की प्रतीक्षा रहती थी। उन्होंने काल गणना के अनुसार जीवन में 100 शरद जीने की प्रतीक्षा की थी। उन्होंने 100 वर्ष नहीं कहा। 100 शरद कहा है। शरद् प्रीतिपूर्ण है। शरद पूर्णिमा की भी प्रतीक्षा रहती है। शरद के बाद बसन्त की प्रतीक्षा स्वाभाविक है।

बसन्त ऋतुओं का राजा है। तब पूरी प्रकृति उमंगमय होती है। दिक्काल भी बसन्त की उमंग और मनुष्य के चित्त की रंग तरंग में गति मगन होते हंै। जान पड़ता है कि बसन्त किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। सौन्दर्य आनन्द के देवता कामदेव पूरी प्रकृति को आच्छादित करते हंै। वे अनंग हैं। प्रकृति में पैठ जाते हैं। प्रकृति का प्रत्येक अंग स्पंदन कंपन में होता है। कवियांे ने बसन्त पर बहुत कुछ लिखा है, लेकिन प्रकृति का कोई भी रूप स्थाई नहीं होता। जो आता है सो जाता है। बसन्त भी आता है और जाता है लेकिन मदनोत्सव की स्मृति छोड़ जाता है। सो हम लोगों को बसन्त उत्सव से जुड़े होली महोत्सव की प्रतीक्षा होने लगती है।

होली महाउल्लास लाती है। पूरी प्रकृति रसमय हो जाती है। मैंने भी बसन्त और होली की लगातार प्रतीक्षा की है। होली रंग तरंग उमंग का पर्व है। शीत विदा हो रहा होता है। ग्रीष्म और होली का संधिकाल प्यारा है। ग्रीष्म होली की विदाई की प्रतीक्षा किया करती है फिर आता है चैत्र प्रतिपदा में नव संवत्सर का उत्सव। संवत्सर सृष्टि सृजन का प्रथम दिवस माना जाता है। सृष्टि व्यक्त होने के पहले भी किसी न किसी रूप में विद्यमान थी। प्रकृति सदा से है। सदा रहती है। रूप परिवर्तित हुआ करते हैं। सृष्टि के पूर्व भी प्रकृति थी। वेद और विज्ञान की पुस्तकों में ऐसा उल्लेख आया है। सोचता हूँ कि अप्रकट प्रकृति भी प्रकट होने के लिए उपयुक्त मुहूर्त की प्रतीक्षा में रही होगी। वैदिक पूर्वजों ने गाया है कि तब सत् नहीं था। असत् भी नहीं था। आकाश भी नहीं था। न मृत्यु थी और न जीवन। तब क्या था? सूक्ष्म रूप में केवल ''वह'' था। उसने प्रतीक्षा की। उसने प्रतीक्षा के बाद आई मनचाही मुहूर्त में स्वयं को प्रकट किया। गति हुई और समय का जन्म हुआ। प्रकृति अव्यक्त से व्यक्त दशा में आई। यही भारतीय अनुभूति का संवत्सर है। हम सब को नव संवत्सर की प्रतीक्षा रहती है।

प्रतीक्षा सबके मन में रहती है। ईश्वर विश्वासी प्रतीक्षा में रहते हैं कि परमात्मा सब कुछ ठीक कर देगा। वह शुभ और सुन्दर की प्रतीक्षा करते रहते हैं। गीता में भी श्रीकृष्ण का आश्वासन है। आश्वासन के अनुसार धर्म व्यवस्था के पराभव को व्यवस्थित करने के लिए वह अवतार लेते हैं- यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानि भवति। आस्तिकों को दीर्घकाल से ईश्वर के अवतार की प्रतीक्षा है। यह प्रतीक्षा तर्क का विषय भी बनती है। धर्म की ग्लार्नि को ठीक करने के लिए ईश्वर के अवतार होते हैं। तो क्या विश्व में तमाम रक्तपात और अव्यवस्था के बावजूद ईश्वर अवतरण का अवसर अभी नहीं आया। गीता के अतिरिक्त रामचरित मानस में भी तुलसीदास ने लिखा है-जब-जब होई धर्म की हानी/बाढ़हि अधम असुर अभिमानी, तब-तब प्रभु धरि मनुज सरीरा। आस्तिकों को ईश्वर अवतार की प्रतीक्षा है।

सामान्य प्रतीक्षा में दिक् और काल अपना काम करते हैं। प्रेम में दिक्काल के प्रभाव घटते जाते हैं। प्रेम ही पूर्ण होकर भक्ति बनता है। तब प्रतीक्षा में दिक्काल का कोई महत्व नहीं होता। प्रतीक्षा गहन रूप में अध्यात्मिक कर्तव्य है। जीवन के सभी आयामों में इसका महत्व है। इसका जन्म अभिलाषा से होता है। धैर्य इसे परिपक्व करता है और प्रतीक्षा बनाता है। सीधा-सा गणित है प्रेम का संबंध रूप से है और रूप अस्थायी है। संसार की सारी उपलब्धियाॅं प्रतीक्षा के भीतर हैं प्रेम और भक्ति भी। गहन प्रतीक्षा में दिक्काल का प्रभाव घटता जाता है।

मैं पूरे जीवन से प्रतीक्षा में हूँ। बचपन में युवा होने की प्रतीक्षा थी। वैसे पढ़ता सुनता आया हूँ कि नियति अपना काम किया करती है। सब काल के अधीन हैं, लेकिन यहाँ कर्म को धर्म बताया गया है। कर्म कर्तव्य भी है। कत्र्तव्य पालन धर्म है। इसलिए मैं श्रेष्ठ कर्म के अवसर की प्रतीक्षा भी करता हूं। वैदिक श्रुति में काम करते हुए ही 100 वर्ष तक जीने की अभिलाषा है। मैं संसारी हूं। इसलिए कर्म करते हुए कर्म फल की भी प्रतीक्षा करता हूं, लेकिन धीरज के साथ।

(हृदयनारायण दीक्षित-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

Next Story
epmty
epmty
Top