विधायकों व सांसदों के लिए शैक्षणिक योग्यता तय होः भाजपा

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नई दिल्ली। 2015 में हुए हरियाणा पंचायती राज एक्ट संशोधन के मुताबिक केवल पढ़े-लिखे लोग ही पंचायतों में चुनाव लड़ सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पंचायत चुनाव लड़ने के लिए सामान्य वर्ग को 10वीं और अनुसूचित जाति व सामान्य महिलाओं के लिए आठवीं पास होने की अनिवार्यता पर रोक लगा दी है। अनुसूचित जाति से पंच बनने की इच्छुक महिलाओं के लिए 5वीं कक्षा पास करने का पैमाना निर्धारित है।

पंचायत चुनाव में 50 फीसद आरक्षण दिए जाने पर जिला परिषद के चेयरमैन ने सवाल उठाए हैं कि समानता का अधिकार सभी जगह लागू होना चाहिए। डिप्टी सीएम दुष्यंत चौटाला को लिखे पत्र में कहा है कि यदि पंचायतों में आरक्षण दिया गया है तो विधानसभा, लोकसभा और राज्यसभा के चुनाव में भी इसी तरह की प्रकिया अमल में लाई जानी चाहिए। इसके साथ ही पढ़ी-लिखी पंचायतों की तर्ज पर विधायकों व सांसदों के लिए शैक्षणिक योग्यता तय करने की मांग की है। जिला परिषद के चेयरमैन एवं भाजपा नेता सतीश भालौठ ने पत्र लिखा है कि सांसदों-विधायकों के लिए वेतन तय है, जबकि पंचायतों के प्रतिनिधियों को मानदेय दिया जाता है। सांसद-विधायकों को वेतन व दूसरे मानदेय के रूप में लाखों रुपये मिलते हैं। जबकि जिला परिषद के चेयरमैन को महज दस हजार रुपये, सदस्यों को तीन हजार, ब्लॉक समिति के लिए 1600 रुपये और पंचों को महज एक हजार रुपये का ही मानदेय मिलता है। डिप्टी सीएम के नाम लिखे गए पत्र में कहा है कि समानता का अधिकार सभी जगह एक जैसा लागू हो।

2015 में हुए हरियाणा पंचायती राज एक्ट संशोधन के मुताबिक केवल पढ़े-लिखे लोग ही पंचायतों में चुनाव लड़ सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पंचायत चुनाव लड़ने के लिए सामान्य वर्ग को 10वीं और अनुसूचित जाति व सामान्य महिलाओं के लिए आठवीं पास होने की अनिवार्यता पर रोक लगा दी है। अनुसूचित जाति से पंच बनने की इच्छुक महिलाओं के लिए 5वीं कक्षा पास करने का पैमाना निर्धारित है। ऐसे में एक सवाल यह उठता है कि संसद और विधानसभाओं में जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं की शैक्षिक योग्यता का भी कोई पैमाना होगा क्या? जबकि सांसद, विधायक, केंद्रीय मंत्री, प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बनने के लिए ऐसी कोई शर्त नहीं है।

देश में चुनाव लड़ने का अधिकार सभी को है लेकिन गांव, पंचायत और जिले की सरकार चलाने वाले जनप्रतिनिधियों के लिए शिक्षा बेहद जरूरी है। योजनाओं के ऑनलाइन अपडेशन से लेकर ऑनलाइन ही लाभार्थियों को पेमेंट करना होता है। वार्ड पंच, पंचायत समिति सदस्य और जिला परिषद सदस्य तो भले ही बिना शैक्षणिक योग्यता के चल सकते हैं लेकिन ग्राम पंचायत स्तर पर सरपंच, पंचायत समिति में प्रधान और जिले में जिला प्रमुख को कई शक्तियां और अधिकार मिले हुए हैं इसलिए गांव की सरकार चलानें में इनकी अहम भूमिका है। यदि ये पढ़े लिखे नहीं होंगे तो ये किसी अन्य के हाथों की कठपुतली बनकर ही रह जाएंगे। इनकी शक्तियों का दुरुपयोग भी होगा।

जो लोकसभा देश के संविधान में संशोधन करने का अधिकार रखती हो, जिस लोक सभा के ऊपर वैश्विक संबंध बनाने व देश के विकास, राज्यों से उसके संबंध बेहतर बनाने तथा देश की बाहरी व आंतरिक सुरक्षा जैसी अहम जिम्मेदारियां होंय उसके सदस्यों की शिक्षा के मुद्दे को नजरअंदाज कैसे किया जा सकता है! यह खेद का विषय है कि हमारे देश की विधायिका में बड़ी संख्या में सांसद और विधायक अल्प शिक्षित या अशिक्षित हैं। तमाम सरकारी व गैरसरकारी नौकरियों और अलग-अलग पेशों के लिए शैक्षिक योग्यता निर्धारित है। यह योग्यता कुछ छूट के साथ दलित, पिछड़ों व आदिवासी सबके लिए निर्धारित है तो सिर्फ राजनीतिकों के लिए ही शैक्षिक छूट क्यों? जबकि एक चपरासी तक की न्यूनतम शैक्षिक योग्यता निर्धारित है मगर सांसदों व विधायकों के लिए शिक्षा का कोई मानक नहीं है। यही वजह है कि बीते कई वर्षो से सांसदों और विधायकों के लिए शैक्षणिक योग्यता तय करने की मांग विभिन्न मंचों से लगातार उठ रही है।

जब हरियाणा सरकार ने पंचायती राज संस्थाओं में चुनाव लड़ने के लिए शैक्षणिक योग्यता निर्धारित करने के बाद एक और बड़ा कदम उठाया उठाया था तब ही मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर एमपी और एमएलए के लिए चुनाव लड़ने की शैक्षणिक योग्यता निर्धारित करने की मांग की थी। साल 2017 में मनोहर लाल खट्टर ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखकर कहा है कि सांसदों और विधायकों के लिए शैक्षणिक योग्यता तय होनी चाहिए. सीएम मनोहर लाल ने कहा था कि अगर देश में विधायक और सांसद यदि पढ़े-लिखे लोग बनकर आएंगे तो देश का बेहतर विकास होगा। उनका सुझाव था कि विधायक के लिए स्नातक और सांसद के लिए स्नातकोत्तर तक की शिक्षा अनिवार्य कर दी जाए। बावजूद इसके, एक तबका जनप्रतिनिधियों का शैक्षणिक योग्यता को जरूरी नहीं मानता। उनकी दलील होती है कि यह मानक लोकतंत्र व संविधान के खिलाफ है। वे तर्क देते हैं कि यदि ऐसा जरूरी होता तो संविधान निर्माण के समय ही ऐसा प्रावधान किया जाता।

जवाहरलाल नेहरू का विचार था कि जिन अनपढ़ लोगों ने आजादी की लड़ाई में अपना सब कुछ झोंक दिया, शैक्षणिक योग्यता की अनिवार्यता लगाकर उन्हें चुनाव लड़ने के हक से वंचित नहीं रखा जा सकता। मगर तदयुगीन परिस्थितियों में नेहरू जी की वह दलील भले ही दम रखती हो, लेकिन अगर हम आजादी के समय से भारत की तुलना आज के भारत से करें तो इसमें भारी बदलाव आ चुका है। उस समय संसाधनों की कमी थी। देश की साक्षरता दर महज 12 फीसद थी जबकि आज 76 फीसद है। तब भले ही प्रत्याशियों की शैक्षिक अनिवार्यता जरूरी न लगी हो, मगर आज का माहौल पूरी तरह अलग है। देश तकनीकी दृष्टि से भी अत्यंत समृद्ध है। ऐसे में जन प्रतिनिधियों की शैक्षिक योग्यता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

देश में लंबे समय से लोकतांत्रिक सुधारों के प्रति जनता बेहतर प्रावधानों की मांग करती आ रही है। इन प्रावधानों में राजनीति में अपराधियों को रोकने से लेकर जनप्रतिनिधियों के बारे में जानकारी प्राप्त करने का अधिकार और उनसे नाखुश होने की स्थिति में उन्हें वापस बुलाने का अधिकार तक शामिल है। जाहिर है वर्तमान में लोकतंत्र के मार्ग की बाधाओं और मतदाताओं के अधिकारों को सुनिश्चित करना हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती है। इसी कड़ी में यदि सांसदों के लिए एक तय शैक्षणिक योग्यता का मानक स्थापित हो तो इन समस्याओं का भी समाधान संभव है।

(नाजनींन-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

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