नहीं हुआ गांवों का समुचित विकास
नई दिल्ली। देश को आजाद हुए सात दशक हो गए हैं। इस बार हम 74वां स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहे हैं। 74 सालों बाद भारत विकास के कई पड़ाव पार कर चुका है। इसमें भारत ने बैलगाड़ी से लेकर एयर इंडिया तक का सफर तय किया है। नए-नए आविष्कारों और तकनीकी विकास से भारत विश्व में अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफल रहा है। भारत ने अपनी आजादी के उन मूल्यों को संजोये रखा है जिन मूल्यों से इसे स्वतंत्रता प्राप्त हुई है। आजादी का यह दिन हम भारतीयों कां देश के लिए प्यार, गौरव और शौर्यपूर्ण भावनाओं से भर देता है।
भारतवर्ष मुख्यतः गांवों का देश है। यहां की अधिकांश जनसंख्या गांवों में रहती है। महात्मा गांधी ने कहा था- अगर आप असली भारत को देखना चाहते है तो गांवों में जाइये क्योंकि असली भारत गांवों में बसता है। गांवों में आधे से अधिक लोगों का जीवन खेती पर निर्भर है, ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि गांव के विकास के बिना देश का विकास नहीं किया जा सकता है। भारत का ग्रामीण जीवन, सादगी और शोभा का भण्डार था लेकिन देश के लगभग आधे गांवों की सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति बेहद कमजोर है। आजादी के बाद से ग्रामीण जनता का जीवन स्तर सुधारने के लिए प्रयास तो किए गए हैं, इसके लिए सभी पंचवर्षीय योजनाओं में गरीबी उन्मूलन की सर्वोपरी चिंता रही है लेकिन फिर भी आजादी के 74 साल बीत जाने के बावजूद ग्रामीण सुविधाओं को तरस रहे हैं। अगर केंद्र और राज्य सरकारें दोनों मिलकर किसानों की मदद कर रही हैं लेकिन ऐसी क्या वजह है कि देश के किसान आत्महत्या करने को विवश हैं? गांवों से पलायन हो रहा है। इसका जवाब किसी के पास नहीं है।
विकास के मामले में कुछ गांवों में भले ही चमक दमक दिखायी पड़ रही हो मगर ज्यादातर गांव आज भी विकास से अछूते हैं। ग्राम विकास के दावे चाहे कितने भी किये जा रहे हैं लेकिन मौजूदा हालात तमाम असुविधाओं को बयां कर रहे हैं जैसे अस्पताल स्कूल बने हैं स्टाफ की कमी से आज भी जूझ रहे हैं। देश के कई गांवों को स्वास्थ्य सुविधा मुहैया करवाने को अस्पताल तो बने मगर संसाधनों का घोर अभाव है। कहीं स्कूल गांव-गांव खुले हैं उनमें कहने को अध्यापकों की तैनाती है लेकिन ज्यादातर विद्यालयों में ताले लटके रहते हैं। कहीं पर किराये के मास्टर यदा कदा आ जाते हैं। इन समस्याओं को कभी भी विधायक, सांसदों ने सुधार करने की सुधि नहीं ली है। यही कारण हैं कि जैसी स्थिति आजादी के दौरान थी बस उसमें नाम मात्र कुछ ही सुधार हुआ है। आजादी के बाद देश के अंदरुनी हिस्सों से खबर आती है कि फलां जगह पुल नहीं है तो फलां जगह लोगों ने पुल का टेम्पेरेरी इंतजाम किया है तो कहीं पुल जर्जर हो चुके है। आजादी के बाद भी कई गांव ऐसे हैं जहां सड़क व पुल नहीं है जिस वजह से उन्हें रोज नदी पार करके आना-जाना होता है। आजादी के बाद से आज तक सैकड़ों सांसद विधायक बदले पर किसी ने भी आम जनता की परेशानियों पर ध्यान नहीं दिया। सबसे बड़ी बात यह कि वहां के वातावरण को राजनीति ने दूषित कर दिया है।
गांवों के विकास के लिए सरकार न जाने कितनी योजनाएं चलाती है लेकिन ये योजनाएं और इनके पैसे कहां चले जाते हैं किसी को पता नहीं। देश में डेढ लाख से ज्यादा गांवों में सड़के नहीं हैं। ये गांव बाहरी दुनिया से कटे ही रहते है। हर साल 75 हजार से ज्यादा गांव बाढ की भेंट चढ़ते हैं और दो लाख से ज्यादा लोग हर साल विस्थापन के शिकार हो जाते हैं। आंकडों पर जाएं 4 लाख से ज्यादा गांवों में स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध नहीं हैं। सरकार की योजना हर गांव में प्रशिक्षित नर्स से लेकर स्वास्थ्य की अन्य सुविधाएं मुहैया कराने की है लेकिन इतने सालों बाद भी यह संभव नहीं हो सका। गांवों में जो शिक्षा व्यवस्था है उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। आप कह सकते हैं कि देश में भारत और इंडिया का अंतर आज भी है और इस अंतर की खाई और चैड़ी हो गई है।
हमारी भारत की यह छवि उजली और धुंधली दोनों तस्वीर पेश कर रही हैं। एक तरफ उजाला ही उजाला और एक तरफ अंधेरा ही अंधेरा। हरे भारत और इंडिया दोनों की तस्वीर? यह तस्वीर बहुत कुछ बोलती है। अगर हम सरकारी आंकड़ों पर ही जाएं तो हम पाते हैं आजादी के 73 सालों के बाद भी, अभी तक गरीबों को कुछ खास नहीं मिला है। हमारे सामने अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट है जिसमें कहा गया है कि देश की आबादी की 74 फीसदी जनता 20 रुपए रोजाना आमदनी पर जी रही है। हमारे यहां असंगठित क्षेत्रों में लगभग 80-85 प्रतिशत लोग जुड़े हुए हैं उन्हें अपेक्षित सुविधाएं भी नहीं मिल पा रही हैं जबकि 10-15 संगठित क्षेत्र के लोगों के लिए सरकार और निजी कंपनियां भी अनदेखी करने का साहस नहीं जुटा पाती, क्योंकि वे संगठित क्षेत्र के हैं। कभी वे हड़ताल करते हैं, तो कभी सड़क जाम करते हैं, कभी स्कूलों में हड़ताल चलती है, तो कभी विश्वविद्यालय में, कभी वकील हड़ताल करते हैं तो कभी अस्पताल में ही हड़ताल हो जाती है। बैंक कर्मचारी और अधिकारी मोटी तनख्वाह को लेकर एकजुट होकर हड़ताल करते हैं और ये वित्तीय व्यवस्था का भट्ठा बैठा देते हैं। सरकार भी देर-सबेर इन सबकी बात मान ही लेती है, समझौते देर-सबेर हो ही जाते हैं, इनकी पगार भी बढ़ जाती है, पेंशन भी बढ़ जाती है, नया वेतन स्केल भी मिल जाता है, क्योंकि ये संगठित क्षेत्र के हैं जबकि असंगठित क्षेत्र के साथ हर बार अन्याय होता है और वे छले जाते हैं। अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की भी वे पूर्ति नहीं कर पाते हैं। जो देश के लिए कुछ करने योग्य हैं, वे सिर्फ अपने लिए करने में लगे हैं। आज जहां सरकारी बाबू करोड़पति हो गए हैं, वहीं आईएएस ऑफिसर अरबपति हो गए हैं।
ऐसा नहीं है कि इन सत्तर वर्षों में सब बुरा ही हुआ है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि ग्रामीण भारत की तस्वीर एवं तकदीर तेजी से बदल रही है। इसमें बुनियादी सुविधाओं के विकास का बहुत बड़ा योगदान है। सूचना और संचार प्रौद्योगिकी का विस्तार भी इसमें अहम भूमिका अदा कर रहा है साथ ही कई क्षेत्रों में देश आगे बढ़ रहा है लेकिन विकास के रास्ते में सबसे बड़ी समस्या बढ़ती जनसंख्या बनकर खड़ी है। बढ़ती जनसंख्या के साथ कई समस्याएं बढ़ रही हैं। गुणवत्तापरक एवं मूल्यपरक शिक्षा का अभाव, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और नशाखोरी जैसे तमाम मुद्दे हैं, जो सामाजिक असंतुलन पैदा करते हैं। सत्तर साल में ये सारे प्रश्न मिट जाने चाहिए थे लेकिन, हमारे यहां तो उलटी गिनती चल रही है जहां किसान आत्महत्या कर रहे हैं वहीं उनका हक दलालों और मंडियों पर कब्जा जमाए लोगों की जेब में जा रहा है। मुश्किल तो यह है कि प्रशासन भी इन्हीं भ्रष्ट लोगों के हित में काम कर रहा है। खेती को उद्योग का दर्जा मिलना चाहिए। जिस तरह किसी कारखाने का मालिक खुद अपने उत्पाद का एमआरपी तय करता है, उसी तरह किसानों को भी अपनी उपज बेचने का अधिकार होना चाहिए। आज जब हम आजादी की 73वीं सालगिरह मना रहे हैं तो हमें सभी वर्ग के विकास का संकल्प लेना चाहिए और जरूरत पड़े, तो संघर्ष के लिए भी तैयार रहना चाहिए। ग्राम पंचायतों को देश की रीढ़ माना जाता है और देश के विकास का रास्ता भी गांव की गलियों से होकर ही गुजरता है। अगर देश को विकास के रास्ते पर आगे बढ़ाना है तो सबसे पहले गांवों का विकास जरूरी है और गांवों का विकास ग्राम पंचायतों की जागरूकता के बिना संभव नहीं है।
(नाज़नींन-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)