ईआईए पर राहुल का सवाल वाजिब

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नई दिल्ली। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने नए पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) 2020 ड्राफ्ट का विरोध किया है। उन्होंने मसौदे को वापस लिए जाने की मांग की है। राहुल गांधी ने 10 अगस्त को कहा कि इस मसौदे का मकसद लूट है। राहुल गांधी ने ट्वीट किया, 'पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) 2020 ड्राफ्ट का मकसद साफ है। देश की लूट। यह एक और खौफनाक उदाहरण है कि भाजपा सरकार देश के संसाधन लूटने वाले चुनिंदा सूट-बूट के 'मित्रों' के लिए क्या-क्या करती आ रही है। देश की लूट और पर्यावरणीय विनाश को रोकने के लिए ईआईए 2020 ड्राफ्ट को वापस लिया जाना चाहिए।'' बता दें कि पर्यावरण मंत्रालय ने इसी साल मार्च में ईआईए मसौदे को लेकर अधिसूचना जारी की थी। इस पर जनता से राय मांगी गई थी। इसके तहत विभिन्न परियोजनाओं के लिए पर्यावरण मंजूरी देने के मामले आते हैं। राहुल गांधी ने अपनी फेसबुक पोस्ट में कहा कि पर्यावरण प्रभाव आकलन मसौदा 2020 न सिर्फ अपमानजनक बल्कि खतरनाक भी है। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष ने कहा कि इसमें पर्यावरण की सुरक्षा के लिहाज से लंबी लड़ाई के बाद हासिल हुए फायदों को न सिर्फ पलटने की ताकत है बल्कि इसमें पूरे देश में पर्यावरण के लिहाज से व्यापक विनाश और बर्बादी फैलाने की भी क्षमता है। स्वच्छ भारत का दिखावा करने वाली इस सरकार के मुताबिक अगर यह मसौदा अधिसूचना अमल में आती है तो रणनीतिक तरीके से कोयला खनन और अन्य खनिजों के खनन जैसे बेहद प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को पर्यावरण प्रभाव आकलन की जरूरत नहीं रहेगी।

'ईआईए-2020' इस मसौदे के प्रकाश में आने के बाद से ही बड़ी संख्या में लोग इसका विरोध कर रहे हैं और ईआईए अधिसूचना भारत के राजपत्र में प्रकाशित होने के सिर्फ 10 दिन के भीतर सरकार को 1190 पत्र सिर्फ ईमेल के जरिये प्राप्त हुए, जिसमें से 1144 पत्रों में इसका कड़ा विरोध दर्ज कराते हुए पर्यावरण मंत्रालय से इसे वापस लेने की मांग की गई है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर क्यों इसका विरोध हो रहा है तो सबसे पहले वजह समझ लेते हैं। साल 1984 में मध्य प्रदेश के भोपाल में हुई गैस त्रासदी के बाद देश भर में जोर-शोर से ये मांग उठने लगी की भारत पर्यावरण सुरक्षा को लेकर एक कानून बनाए। भोपाल गैस त्रासदी जैसी भयावह घटना के बाद ये संभव हो पाया और देश ने 1986 में पर्यावरण संरक्षण के लिए एक कानून बनाया। इसी कानून के तहत साल 1994 में पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) नियमों का जन्म हुआ। इसके जरिये कई प्रावधान निर्धारित किए गए ताकि प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल और पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों की निगरानी की जा सके। ईआईए अधिसूचना आने के बाद विभिन्न परियोजनाओं को इससे गुजरना होता था और इसके तहत सभी शर्तों का पालन किए जाने की स्थिति में ही परियोजनाओं को कार्य शुरू करने की मंजूरी दी जाती थी। हालांकि आगे चलकर इसमें कुछ बदलाव किए गए और साल 2006 में एक नई अधिसूचना जारी की गई जिसे हम ईआईए अधिसूचना, 2006 के नाम से जानते हैं। अब कंेद्र सरकार इसमें और बदलाव करना चाहती है, जिसके लिए एक नई अधिसूचना का ड्राफ्ट जारी किया गया है। वैसे तो ईआईए अधिसूचना की परिकल्पना पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा के लिए की गई थी, हालांकि कार्यकर्ता और विशेषज्ञों की दलील है कि सरकार इसके जरिये कई पर्यावरण विरोधी गतिविधियों को कानूनी मान्यता प्रदान कर रही है। राष्ट्रीय रक्षा और सुरक्षा से जुड़ीं परियोजनाओं को वैसे ही रणनीतिक माना जाता है, हालांकि सरकार अब इस अधिसूचना के जरिये अन्य परियोजनाओं के लिए भी 'रणनीतिक' शब्द को परिभाषित कर रही है। अधिसूचना को लेकर साल 2020 के मसौदे के मुताबिक ऐसी परियोजनाओं के बारे में कोई भी जानकारी सार्वजनिक नहीं की जाएगी, जो इस श्रेणी में आती हैं। इसका खतरा ये है कि अब कई सारी परियोजनाओं के लिए रास्ता खुल जाएगा। उद्योग ऐसी परियोजनाओं को 'रणनीतिक' बताकर आसानी से मंजूरी ले लेंगे और उन्हें इसकी वजह भी बताने की जरूरत नहीं पड़ेगी। इसके अलावा नई अधिसूचना विभिन्न परियोजनाओं की एक बहुत लंबी सूची पेश करती है जिसे जनता के साथ विचार-विमर्श के दायरे से बाहर रखा गया है। ईआईए अधिसूचना, 2020 में एक सबसे चिंताजनक और पर्यावरण विरोधी प्रावधान ये शामिल किया गया है कि अब उन कंपनियों या उद्योगों को भी क्लीयरेंस प्राप्त करने का मौका दिया जाएगा जो इससे पहले पर्यावरण नियमों का उल्लंघन करते आ रहे हैं। इसे 'पोस्ट-फैक्टो प्रोजेक्ट क्लीयरेंस' कहते हैं। इस अधिसूचना के मसौदे में ये कहा गया है कि सरकार इस तरह के उल्लंघनों का संज्ञान लेगी। हालांकि ऐसे पर्यावरणीय उल्लंघन या तो सरकार या फिर खुद कंपनी द्वारा ही रिपोर्ट किए जा सकते हैं। यहां पर जनता द्वारा किसी भी उल्लंघन की शिकायत करने का कोई विकल्प नहीं है। ये अपने आप में कितना हास्यास्पद है कि सरकार उम्मीद कर रही है कि पर्यावरण का उल्लंघन करने वाली कंपनी खुद सरकार को ये बताएगी कि वो उल्लंघन कर रही है या कानून तोड़ रही है। सरकार के ये सारे प्रावधान पर्यावरण संरक्षण के लिए बने मूल कानून के साथ ही गंभीर विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न करते हैं।

भोपाल गैस त्रासदी को विश्व की सबसे भीषणतम औद्योगिक त्रासदी के रूप में जाना जाता है। सतर्कताविहीन या कि गैरजिम्मेदाराना विकास का यह रास्ता कितना खतरनाक हो सकता है, यह सिर्फ इसकी एक बानगी है। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में पहले भी देखने को मिली थी और अब भी देश के अलग-अलग हिस्सों में छोटे-बड़े स्तर पर अक्सर देखने को मिल रही है। इसी साल आंध्रप्रदेश में विशाखापट्टनम, तमिलनाडु में कुड्डालोर, महाराष्ट्र में नासिक और छत्तीसगढ़ में रायगढ़। ये उन जगहों के नाम हैं, जहां 7 मई को हुए अलग-अलग भीषण औद्योगिक हादसों में कई लोग हताहत हुए हैं। विशाखापट्टनम के आरआर वेंकटपुरम गांव में एलजी पॉलिमर्स प्लांट से जहरीली गैस रिसने से 13 लोगों की मौत हो गई। करीब 1,000 लोग इस जहरीली गैस के रिसाव की चपेट में आए हैं जिनमें से 300 लोगों की हालत गंभीर होने के चलते अस्पतालों में भर्ती कराया गया है। जिस कारखाने से गैस का रिसाव हुआ था, उसके आसपास के 3 गांवों को पूरी तरह खाली करा लिया गया था। तमिलनाडु में कुड्डालोर जिले के नेवेली गांव में लिग्नाइट कॉर्पोरेशन के प्लांट में एक बॉयलर में भीषण विस्फोट के बाद लगी आग में 7 लोग बुरी तरह झुलस गए। आग लगने के बाद प्लांट के इलाके का आसमान धुएं के बादलों से पट गया। छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में एक पेपर कारखाने में गैस रिसने से 7 लोग गंभीर रूप से बीमार हुए। यह घटना कारखाने के टैंक की सफाई करते वक्त हुई। इसी तरह महाराष्ट्र में नासिक जिले के सातपुर में एक फार्मास्युटिकल पैकेजिंग फैक्टरी में भीषण आग लगने से कोई जनहानि तो नहीं हुई लेकिन बड़े पैमाने पर आर्थिक नुकसान होने का अनुमान है। एक ही दिन में हुईं ये चारों घटनाएं तो मनुष्य विरोधी औद्योगिक विकास की महज ताजा बानगी भर हैं, अन्यथा ऐसी दुर्घटनाएं तो देश के किसी-न-किसी हिस्से में आए दिन होती ही रहती हैं। जब-जब भी ऐसी घटनाएं खासकर किसी कारखाने से जहरीली गैस के रिसाव की घटना होती है तो भोपाल गैस त्रासदी की याद ताजा हो उठती है। भोपाल में यूनियन कार्बाइड के कारखाने से मिक यानी मिथाइल आइसो साइनाइट नामक जहरीली गैस के रिसाव से काफी बड़े इलाके के वातावरण और प्राकृतिक संसाधनों पर जो बुरा असर पड़ा था, उसे दूर करना आज भी संभव नहीं हो सका है लेकन सरकारों ने इतनी बड़ी त्रासदी के बाद भी आज जानलेवा मिक गैस के इस्तेमाल को अभी तक देश में प्रतिबंधित नहीं किया गया है और न ही खतरनाक रसायनों को नियंत्रित और सीमित करने की कोई ठोस नीति अब तक बन पाई है। इसी का नतीजा हम आए दिन होने वाली छोटी-बड़ी औद्योगिक दुर्घटनाओं के रूप में देखते रहते हैं। देश में स्वास्थ्य मंत्रालय के अधीन इंटरनेशनल हेल्थ रेगुलेशन एट प्वॉइंट ऑफ इंट्रीज इंडिया के मुताबिक देश में 25 राज्यों और 3 केंद्र शासित प्रदेशों के 301 जिलों में 1,861 प्रमुख खतरनाक रासायनिक औद्योगिक इकाइयां हैं। साथ ही असंगठित क्षेत्र में भी 3 हजार से ज्यादा खतरनाक कारखाने मौजूद हैं जिनका कोई विनियमन नहीं है। फलते-फूलते रसायन उद्योग के अलावा भी देश में विकास के नाम पर जगह-जगह अन्य विनाशकारी परियोजनाएं जारी हैं- कहीं परमाणु बिजली घर के रूप में, कहीं औद्योगीकरण के नाम पर, कही बड़े बांधों के रूप में और कही स्मार्ट सिटी के नाम पर। 'किसी भी कीमत पर विकास' की जिद के चलते ही देश की राजधानी दिल्ली समेत तमाम महानगर तो लगभग नरक में तब्दील होते जा रहे हैं, लेकिन न तो सरकारें सबक लेने को तैयार है और न ही समाज।

(नाज़नींन-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

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