बाघों के लिए भी चिंता
नई दिल्ली। हम अक्सर किसी की ताकत का आकलन करते हुए कहते हैं कि उससे बात तो कर लो, कोई बाघ तो है नहीं जो खा जाएगा। इस प्रकार बाघ अर्थात टाइगर शक्ति का एक पुंज भी है और आदर्श भी। रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास ने मन्दोदरी और रावण के एक प्रसंग में बताया कि सामने आए अर्थात शरणागत को बाघ नहीं खाता। मन्दोदरी रावण से प्रभु श्रीराम की शरण में जाने के लिए कह रही थी, उसी समय कहा था- सन्मुख गये न बाघउ खाई। यही बाघ आदिशक्ति मां दुर्गा का वाहन है। हमारे राष्ट्रीय चिह्न में शामिल है। इसकी आबादी भी घट रही है। दुनिया भर के देशों ने बाघों को लेकर चिंता जतायी और 29 जुलाई को टाइगर डे मनाना शुरू किया। बाघ जंगल में रहने वाला मांसाहारी स्तनपायी पशु है। यह अपनी प्रजाति में सबसे बड़ा और ताकतवर पशु है। यह तिब्बत, श्रीलंका और अंडमान निकोबार द्वीप-समूह को छोड़कर एशिया के अन्य सभी भागों में पाया जाता है। यह भारत, नेपाल, भूटान, कोरिया, अफगानिस्तान और इंडोनेशिया में अधिक संख्या में पाया जाता है। इसके शरीर का रंग लाल और पीला का मिश्रण है। इस पर काले रंग की पट्टी पायी जाती है। वक्ष के भीतरी भाग और पाँव का रंग सफेद होता है। बाघ 13 फीट लम्बा और 300 किलो वजनी हो सकता है। बाघ का वैज्ञानिक नाम पेंथेरा टिग्रिस है। यह भारत का राष्ट्रीय पशु भी है। बाघ शब्द संस्कृत के व्याघ्र का तदभव रूप है। आज से लगभग एक दशक पूर्व 29 जुलाई 2010 में रूस के सेंट पीटर्सबर्ग शहर में एक टाइगर समिट में दुनिया के तमाम देशों के बीच एक समझौता हुआ था, जिसका मकसद था बाघों की घटती आबादी के बारे में बताना और बाघ संरक्षण के लिए जागरूक करना। तभी से 29 जुलाई को विश्व बाघ दिवस के रूप में मनाया जाता है। समझौते में शामिल देशों का मानना था कि 2022 तक दुनिया में बाघों की आबादी दोगुनी हो जाएगी लेकिन ऐसा होना संभव नहीं दिखता। दुनिया में वर्तमान में केवल 3900 जंगली बाघ बचे हैं। हम इस बात पर जरूर गर्व कर सकते हैं कि इनमें से 2967 बाघ तो केवल भारत में हैं। इनकी संख्या कम हो रही है तो इसका बड़ा कारण बाघों का शिकार होना है। भारत में जंगल महकमें की नाक में दम कर देने वाले और 40 साल तक पुलिस से चंगुल से आजाद घूमने वाले वन्यजीवों के तस्कर गिरोह के सरगना संसारचंद और उनके जैसे लोग बाघों के दुश्मन बन गये। मौजूदा वक्त में ऐसे न जाने कितने गिरोह और जंगल माफिया बाघ समेत तमाम वन्यजीवों की जान के दुश्मन बने हुए हैं। अवैध बाजारों में बाघ के शरीर के हर हिस्से का कारोबार होता है। बाघों का शिकार मुख्यतः दो कारणों से किया जाता है, पहला उनके खतरे को देखते हुए, दूसरा लाभ कमाने के मकसद से। अन्तरराष्ट्रीय बाघ दिवस के अवसर पर हमें इस पर गंभीरता से विचार करना होगा। बाघ दिवस मनाने की तभी सार्थकता है।
मौजूदा दौर में बाघों की आबादी के लिए सबसे बड़ा खतरा उनके प्राकृतिक निवास स्थान का नुकसान है। एक अनुमान के मुताबिक विश्वभर के बाघों ने अपने रहने के 93 फीसदी प्राकृतिक स्थान खो दिए हैं। मध्यप्रदेश जिसे टाइगर प्रदेश का दर्जा मिला हुआ है, वहां भोपाल के ही उदाहरण से उनके इलाके खोने का अनुमान लगाया जा सकता है। राज्य के वनविभाग के पास भोपाल का 1960 का एक नक्शा मौजूद है, जिसमें बताया गया है कि बाघों का कहां-कहां डेरा था। नक्शे के मुताबिक नए भोपाल का लगभग पूरा इलाका बाघों का था। पुराने भोपाल के जहांगीराबाद इलाके में पुलिस मुख्यालय के पास तक बाघों का आना-जाना और दिखना हुआ करता था। केरवा और कलियासोत क्षेत्र बाघों से भरा हुआ था लेकिन 1980 के दशक तक इन जंगली इलाकों में नेताओं, अफसरों और रसूखदारों ने अपने आशियाने तानकर बाघों के आशियाने उजाड़ दिए। इस इलाके में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री रहे अर्जुन सिंह की मशहूर केरवा कोठी भी है। इस प्रकार बाघों के प्राकृतिक निवास स्थान और शिकार के स्थान छोटे होने के कारण कई बाघ अपना पेट भरने पशुधन को मारने के लिए मजबूर होकर गांवों या आबादी में घुस आते हैं, तो किसान अक्सर जवाबी कार्रवाई में बाघों को मार देते हैं।
मध्यप्रदेश में बाघों के संरक्षण के मकसद से 8 साल पहले स्पेशल टाइगर प्रोटेक्शन फोर्स बनाने की योजना बनी थी, जिसके तहत हथियार बंद सुरक्षा दस्तों को ट्रेनिंग देकर जंगल में उतारा जाना था, लेकिन इतनी लंबी अवधि बीत जाने के बावजूद कुछ हुआ नहीं। पिछली कमलनाथ सरकार के कार्यकाल में योजना की फाइलें कुछ आगे बढ़ी थीं, लेकिन इस साल मार्च के तीसरे हफ्ते मे ज्योतिरादित्य सिंधिया गुट के कांग्रेस मंत्री-विधायकों ने कांग्रेस से बगावत कर भाजपा से गठजोड़ कर सरकार गिरा दी। शिवराज सिंह के नेतृत्व में नई सरकार बनी, तो कोरोना की महामारी ने जकड़ लिया। मध्यप्रदेश के भोपाल, होशंगाबाद, पन्ना, सिवनी, मंडला, बैतूल और छिंदवाड़ा के जंगल शिकारियों के पनाहगाह बन गए हैं। वन विभाग के अधिकारी और दीगर जानकार बताते हैं कि बाघों की मौतों के पीछे दो प्रमुख वजहें हैं, एक तो इनका आबादी में जाना और दूसरा-अपनी बादशाहत के लिए क्षेत्राधिकार की लड़ाई। इसके अलावा शिकार भी मौतों की एक बड़ी वजह है, लेकिन वन अधिकारी इस तथ्य को ज्यादा नहीं मानते। वास्तविकता यह है कि देश के दूसरे राज्यों में टाइगर कारिडोर बड़े जंगलों में फैले हुए हैं, लेकिन मध्यप्रदेश में ऐसा नहीं है, इसलिए शिकारी घात लगा लेते हैं। बताते हैं कि सीधी जिले में संजय गांधी, मंडला जिले में कान्हा किसली, सिवनी जिले में पेंच, पन्ना में पन्ना नेशनल पार्क और उमरिया जिले में बांधवगढ़ नेशनल पार्क, यह सभी छोटे-छोटे टुकड़ों और वनक्षेत्रों में बंटे हैं, उनको कारिडोर से जोड़ते हुए नए अभ्यारण्य बनाने की योजना है, ताकि बाघों के बीच अपने-अपने इलाकों में रहना संभव हो सके।
एनटीसीए के आंकड़े बताते हैं कि पिछले आठ साल में मध्यप्रदेश में सर्वाधिक 173 बाघों की मौत हुई। इसमें से 38 बाघों की मौत शिकार की वजह से, 94 की मौत प्राकृतिक कारणों से हुई। 19 बाघों की मौत का मामला अभी जांच के दायरे में है। 6 बाघ अप्राकृतिक कारणों से मारे गए और 16 के दांत, खाल, नाखून, हड्डियां आदि अवशेष मिले। जानकारी के मुताबिक आठ साल में मौतों के मामले में महाराष्ट्र दूसरे स्थान पर रहा, जहां 125 बाघों की मौत हुई। इसके बाद कर्नाटक में 111, उत्तराखंड में 88, तमिलनाडु में 54, असम में 54 केरल, उप्र में 35-35, राजस्थान में 17, बिहार और प. बंगाल में 11 तथा छत्तीसगढ़ में 10 बाघों की मौत हुई हैं। एनटीसीए के मुताबिक आठ साल की अवधि में ओडिशा और आंध्र प्रदेश में सात-सात, तेलंगाना में 5, दिल्ली, नागालैंड, हरियाणा और गुजरात मे एक-एक बाघ की मौत हुई है। प्रयास यह करना है कि वर्चस्व को लेकर संघर्ष न हो। एक बाघ के लिए कम से कम 60 से 80 किलोमीटर के दायरे वाला क्षेत्र चाहिए, वो नहीं चाहता कि उसके रहते कोई दूसरा यहां आए, इसलिए संघर्ष में बाघों के मरने की खबरें आती हैं। बाघों के मामले में दो बातों ने इस साल रिकार्ड तोड़ा। पहला तो यह मप्र में जनवरी से मार्च तक एक भी बाघ की मौत की खबर नहीं थी, लेकिन अप्रैल के एक महीने में ही बाघों की सबसे ज्यादा मौतें होने का रिकार्ड भी मप्र ने ही तोड़ा। कोरोना महामारी के चलते लाकडाउन के दौरान एक अप्रैल से 22 अप्रैल तक 8 और 2 मई को एक और बाघ शावक याने कुल 9 बाघों की मौत की खबर ने सबको हैरान करके रख दिया। इतनी बड़ी संख्या में मौतें देश के किसी भी अन्य राज्य में नहीं हुई। गत 1 अप्रैल को कान्हा में, 3 को पेंच, 9 को बांधवगढ़, 11 को बुरहानपुर, 13 को कान्हा, 17 को चित्रकूट और 22 अप्रैल को बांधवगढ़, मंकुदपुर जू सतना में बाघों की मौतें हुई। इसके बाद 2 मई को बांधवगढ़ से एक बाघ मारे जाने की खबर आई। हैरान करने वाली एक और बात यह है कि सभी बाघों के शव सड़ी-गली हालत में मिले और सभी की उम्र 10 साल से कम थी।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बहुत ही गर्व के साथ देश में बाघों की संख्या 2226 से बढ़कर 2967 होने की जानकारी दी थी। मध्यप्रदेश के लिए भी ये दिन ऐतिहासिक उपलब्धि लेकर आया था, क्योंकि राज्य ने सर्वाधिक 526 बाघों की संख्या के साथ करीब एक दशक बाद उसने टाइगर स्टेट का अपना खोया हुआ दर्जा कर्नाटक से हासिल किया था लेकिन पिछले डेढ़ साल में करीब 41 बाघों की मौतें सामने आने के बाद राज्य के टाइगर स्टेट के खिताब पर खतरा एक बार फिर मंडराता दिख रहा है।
(अशोक त्रिपाठी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)