राजनीति में नेपोटिज्म
लखनऊ। राजनीति में कुछ स्थिर रहा हो या न रहा हो, लेकिन भाई-भतीजावाद और परिवारवाद हमेशा से राजनीति का अंग रहा है। हालांकि अलग-अलग मौकों पर ऐसा करने वाली सरकारों की आलोचना भी खूब की जाती है लेकिन जब आलोचना करने वाले खुद सत्ता में आते हैं तो यहां भी वही रंग दिखने लगते हैं।
पिछले महीने की 14 तारीख से सुशांत सिंह राजपूत की खुदकुशी से पूरा देश स्तब्ध था। देशभर के सिलेब्रिटी, नेता और फैंस सोशल मीडिया पर सुशांत के प्रति संवेदनाएं जाहिर करते हैं। चूंकि सुशांत एक एक्टर थे तो उनकी मौत के तुरंत बाद बॉलीवुड में नेपोटिज्म और एक गैंग द्वारा आउटसाइडर्स के साथ भेदभाव का मामला चर्चा का विषय बना हुआ है। हाल ही के एक स्टडी से पता चला है कि 14 जून को जिस दिन सुशांत की मृत्यु हुई थी और 15 जून को नेपोटिज्म कीवर्ड के सर्च में लगभग 2000 प्रतिशत की वृद्धि हुई। नेपोटिज्म शब्द को मई 2019 से जून 2020 तक कितनी बार सर्च किया गया इसको लेकर एसईएमरश द्वारा एक स्टडी की गई है। इससे पता चलता है कि इस दौरान हर महीने औसतन 62458 बार नेपोटिज्म शब्द को सर्च किया गया। नेपोटिज्म को सर्च करने पर लोगों से सबसे ज्यादा फिल्म इंडस्ट्री से जुड़ी चीजों को ज्यादा देखा जबकि नेपोटिज्म एक व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द है और हर इंडस्ट्री में यह है। हालांकि, जो लोग 'बॉलीवुड में नेपोटिज्म' सर्च करते हैं। वह नेपोटिज्म को फिल्म उद्योग से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि नेपोटिज्म हर जगह मौजूद है फिर चाहे वह व्यापार हो या राजनीति। ऐसे में इन दिनों एक बाॅलीवुड एक्टर का बयान काफी चर्चा में है वो हैं धर्मेंद्र के छोटे भाई अजीत देओल के बेटे अभय देओल का। सोशल मीडिया पर खुलकर हर मुद्दे पर अपनी बात रख रहे अभय ने लिखा, ''नेपोटिज्म हमारी संस्कृति में हर जगह है, चाहे वह राजनीति हो, बिजनेस हो या फिल्म। मैं इसके बारे में अच्छी तरह से जानता था और इसने मुझे अपने पूरे करियर में नए निर्देशकों और निर्माताओं के साथ काम करने के लिए प्रेरित किया। नेपोटिज्म हर देश में है, भारत में नेपोटिज्म ने एक और आयाम लिया है। जाति दुनिया के अन्य हिस्सों की तुलना में यहां बड़ा रोल प्ले करती है। आखिरकार, ये 'जाति' है जो ये तय करती है कि एक बेटा अपने पिता के काम को आगे चलाता है, जबकि बेटी से शादी करके, एक हाउस वाइफ होने की उम्मीद की जाती है।'' आज की परिस्थिति में अभय की राय काफी अहम क्योंकि नेपोटिज्म हर जगह मौजूद है और आज हम बात कर रहे हैं राजनीति मंे फैली नेपोटिज्म की।
राजनीति में कुछ स्थिर रहा हो या न रहा हो, लेकिन भाई-भतीजावाद और परिवारवाद हमेशा से राजनीति का अंग रहा है। हालांकि अलग-अलग मौकों पर ऐसा करने वाली सरकारों की आलोचना भी खूब की जाती है लेकिन जब आलोचना करने वाले खुद सत्ता में आते हैं तो यहां भी वही रंग दिखने लगते हैं। चुनावी राजनीति में परिवारवाद, भाई-भतीजावाद लगभग हर दल में कम या ज्यादा है लेकिन इस सवाल से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि भारत के राजनीतिक दलों में संगठनात्मक स्तर पर परिवारवाद अथवा वंशवाद की स्थिति है क्या? आजादी के बाद वंशवाद को बढ़ाने का आरोप सबसे पहले नेहरू गांधी परिवार पर लगा क्योंकि इसके तीन सदस्य, जवाहर लाल नेहरू, बेटी इंदिरा गांधी और इंदिरा के बेटे राजीव गांधी, देश के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। आज जब राजीव के बेटे राहुल गांधी, कांग्रेस की इस परंपरा को आगे बढ़ाने की कोशिश में जी जान से जुटे हैं वहीं बहन प्रियंका वाड्रा भाई का साथ देने मैदान में हैं। मुलायम सिंह यादव के पुत्र अखिलेश पढ़ाई करके आते हैं और सीधे सांसद, प्रदेश अध्यक्ष भी। पिता के बाद मुख्यमंत्री बनते हैं। वंशवाद को लेकर अगर यूपी में मुलायम और अखिलेश आगे रहे तो जाहिर था कि बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव पीछे नहीं रह सकते थे। इसका प्रमाण उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना कर दिया था, खास कर जब वह 1997 में जेल जाने की तैयारी में थे। साथ ही अपने बेटे तेजप्रताप और तेजस्वी को भी बिहार में मंत्री और उप मुख्यमंत्री की कुर्सी दे दी। यादवों के बाद अगर वंशवाद का वृक्ष कहीं तेजी से बढ़ा है तो वह है कर्नाटक। यहां पूर्व प्रधानमंत्री और जनता दल सेकुलर के अध्यक्ष देवेगौड़ा परिवार का नाम आता है। देवगौड़ा ने जब अपने दो पोतों को राजनीति में उतारने की घोषणा की तो कर्नाटक में लोगों को कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि यहां जनता दल सेकुलर को एक पारिवारिक पार्टी के नाम से ही जाना जाता है।
डीएमके, एनसीपी, लोकदल, नेशनल कॉन्फ्रेंस, और तेलंगाना राष्ट्रीय समिति प्रमुख परिवारवाद के मामले में पीछे नहीं हैं। तमिलनाडु के दिवंगत मुख्यमंत्री करुणानिधि के बेटे स्टालिन के हाथ में डीएमके की कमान है। एनसीपी के
अध्यक्ष शरद पवार अपनी पुत्री सुप्रिया सुले की राजनीति करियर को लेकर कितना चिंतित रहते है यह किसी से छिपा नहीं है। उसी प्रकार तेलंगाना में टीआरएस के प्रमुख और राज्य के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव ने अपने परिवार की देखभाल में कमी नहीं छोड़ी है। उदाहरण के तौर उनका बेटा रामा राव उन्हीं की सरकार में मंत्री है। इसके अलावा बेटी कविता लोकसभा चुनाव जीत चुकी हैं। भाजपा इस मामले में परिवारवादी नहीं नजर आती है और वंशवादी तो खैर नहीं ही है। भाजपा में राष्ट्रीय अध्यक्ष का बेटा राष्ट्रीय अध्यक्ष बनेगा, ऐसा सोचना भी कल्पना से परे लगता है। अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण अडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, जना कृष्णमूर्ति, बंगारू लक्ष्मण, वेंकैया नायडू, नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह भाजपा के अध्यक्ष रहे हैं, लेकिन इनमंे से किसी का भाई अथवा बेटा पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष तो छोड़िये शायद किसी प्रदेश का अध्यक्ष भी न बन पाया हो। राजनाथ सिंह के पुत्र पंकज सिंह राजनीति में जरूर हैं लेकिन डेढ़ दशकों तक सक्रिय राजनीति में रहकर, संगठन की प्रक्रियाओं से गुजरकर महज उत्तर प्रदेश के प्रदेश महामंत्री तक पहुंच पाए हैं। अब राजनाथ सिंह की जगह मुलायम सिंह, सोनिया गांधी और लालू यादव, उद्धव ठाकरे को रखकर देखा जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि अन्य राजनीतिक दलों की अपेक्षा भाजपा क्यों बाकियों से अलग है!
राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाना गलत नहीं है लेकिन यह भी देखा जाना चाहिए कि ऐसे लोगों का समाज में योगदान क्या है। नैतिक तौर पर नेताओं को भी यह सोचना चाहिए कि सालों तक उनके झंडे डंडे उठाने वाले कार्यकर्ताओं के भी वे अभिभावक हैं। क्या उन्हें राजनीति में आगे बढने का मौका नहीं मिलना चाहिए। ऐसी परिस्थितियों में वे हतोत्साहित होते हैं और इससे दलबदल की परंपरा को बढ़ावा मिलता है। राजनीति की यह स्थिति किसी भी रूप में अच्छी नहीं कही जा सकती। देखा जाए तो अब राजनीति समाज सेवा का जरिया न बन एक पेशे का रूप लेती नजर आ रही है। पहले लोग समाज सेवा के भाव से राजनीति में आते थे, अब इसे करियर के रूप में देखा जा रहा है। राजनीति में आना अब सफल जीवन की गारंटी हो गई है। मानो, एक बार राजनीति में आ जाओ तो आगे सारे रास्ता खुद ब खुद खुलते जाएंगे। यहां तक कि इसे अनैतिक कार्यों की आड़ के लिए भी इस्तेमाल किया जाने लगा है। नेता पुत्रों के यदि समाज सेवा का भाव नहीं है तो उनके सामने किसी भी अन्य क्षेत्र में अपना भविष्य बनाने के लिए मौके हैं। इसके लिए उनके पास समय भी है और सामथ्र्य भी। उन्हें जबरन राजनीति में लाने से सही मायनों में समाज सेवा करने वाले पीछे रह जाते हैं। राजनेताओं को इस बात को समझना होगा कि जनता उनसे देश के विकास और तरक्की की आस लगाए रहती है। अगर देश के नीति नियंता बनने का सपना देख रहे नेता ही परिवारवाद में फंस कर रह जाएंगे तो फिर प्रदेश के विकास की आस किससे लगाई जाएगी।
(नाज़नींन-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)