कोरोना संकट से जन्मी वर्चुअल रैली
नई दिल्ली। कोेरोना वायरस के संक्रमण से पूरी दुनिया हैरान-परेशान है। इस वायरस को फैलने से रोकने के लिए कई देशों ने अपने यहां लॉकडाउन कर दिया है। कुछ देश लॉकडाउन में धीरे-धीरे ढील दे रहे हैं लेकिन स्थिति पहले की तरह सामान्य नहीं दिखती तो वहीं भारत ने लाॅकडाउन हटा दिया है और अनलाॅक को 18 दिन बीत गए हैं। लॉकडाउन में जहां लोग घरों में कैद रहे वहीं तकनीक की मदद से ही बहुत से काम संभव हुए। आज प्रौद्योगिकी ने काफी तरक्की कर ली है। खेती, स्वास्थ्य, उद्योग से लेकर रसोई तक तकनीकी का ही बोलबाला है। मगर इस कोरोना काल में तकनीकी की महत्ता ज्यादा सार्थक सिद्ध हुई है। ऑनलाइन क्लास से लेकर दवा, सब्जी और राशन सामान भी घर तक पहुंच रहा है। खेती, चिकित्सा, उद्योग सभी क्षेत्रों में तकनीकी का अहम योगदान है। बैलगाड़ी से जमाना आसमान में उड़ने तक पहुंच गया। इसमें भी तकनीकी का ही कमाल है पर इस संकट काल में तकनीकी की उपयोगिता लोगों को अधिक समझ में आ रही है। लोग विभिन्न तकनीक का अपने-अपने क्षेत्रों में बखूबी उपयोग कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी, पीएमओ से लेकर जिला प्रशासन की बैठक में भी अब वीडियो कांफ्रेसिंग का उपयोग बढ़ा है इससे फिजिकल डिस्टेंस का पालन हो ही रहा है।
कोरोना संकट ने जहां लोगों की जिंदगी पर गहरा असर डाला है वहीं कई नई चीजों को लेकर भी आया है। इन्हीं में से एक है वर्चुअल रैली। यूं तो वर्चुअल रैली एक तरीके से संचार माध्यमों के जरिये लाइव होना ही है, जो कि हिंदुस्तान में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में पिछले कई सालों से और कई तरीकों से लोग होते रहे हैं लेकिन 7 जून 2020 को जब गृहमंत्री अमित शाह ने बिहार में वर्चुअल रैली करते हुए आगामी विधानसभा चुनावों का शंखनाद किया तो निश्चित रूप से यह भारत में पहली व्यवस्थित वर्चुअल रैली थी। भारतीय जनता पार्टी ने जब वर्चुअल रैली के जरिए बिहार में नवंबर-दिसंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव का शंखनाद किया तो ये भारत के चुनावी इतिहास में एक नए युग की शुरुआत थी। क्या वर्चुअल रैली सामान्य रैली से एकदम अलग और खर्चीली है? आखिर यह कितनी असरदार है, ये सवाल कई राजनीतिक पार्टियां पूछ रही हैं। बीजेपी के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की ओर से इस महीने बिहार, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में ऐसी तीन वर्चुअल रैलियों के बाद इस मुद्दे पर बहस और विवाद लगातार तेज हो रहा है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि आखिर खर्च के मामले में यह रैलियां कितनी अलग हैं। इसकी वजह यह है कि इस साल बीजेपी ने ऐसी ही कम से कम 70 रैलियों की योजना बनाई है जिनका मकसद मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के एक साल की उपलब्धियों के प्रचार-प्रसार के साथ ही बिहार, ओडिशा और बंगाल में होने वाले अगले विधानसभा चुनावों के लिए पार्टी की जमीन तैयार करना भी है।
भाजपा ने दावा किया कि पार्टी मुख्यालय से गृहमंत्री अमित शाह द्वारा संबोधित अपनी तरह की पहली डिजिटल राजनीतिक रैली को 14 लाख से अधिक फेसबुक यूजर ने देखा। भाजपा ने इस रैली को लेकर खास तैयारियां की थीं। रैली को असली लुक देने के लिए 72 हजार बूथों पर 72 हजार एलईडी स्क्रीन लगाए गए थे। ये एलईडी स्क्रीन खास उन लोगों के लिए थे जिनके पास स्मार्टफोन नहीं हैं। वर्चुअल रैली को आम रैली जैसा दिखाने की कोशिश की गई। लेकिन भाजपा सोशल मीडिया पर इस रैली को लेकर विपक्ष निशाना साध रहा है तो वहीं सोशल मीडिया पर यूजर्स भी 72 हजार एलईडी के खर्च को लेकर भाजपा पर सवाल उठा रहे हैं। रैली से पहले राजद नेता तेजस्वी यादव ने भाजपा पर आरोप लगाया था कि इस रैली के लिए राज्य में 72,000 एलईडी स्क्रीन लगाने के लिए 144 करोड़ रुपए खर्च किए गए। राज्य में लगभग 72,000 मतदान केंद्र हैं। हालांकि बिहार के भाजपा अध्यक्ष संजय जायसवाल ने तेजस्वी के आरोपों को बेबुनियाद बताया। उनका कहना है कि पार्टी पर लगे सभी आरोप निराधार हैं, कोई एलईडी नहीं खरीदी गई है। पार्टी के कार्यकर्ताओं ने अपने घरों की एलईडी स्क्रीन को घर के बाहर लगाया था।
न धूल उड़ी, न ही ढोल-नगाड़े का शोर सुनाई दिया, न ही गाड़ियों का काफिला दिखा और न ही लाउडस्पीकर की कानफोड़ू आवाज सुनाई दी लेकिन रैली हो गई। बीजेपी ने लाखों लोगों से कनेक्ट होकर अपनी बात कह दी। जरा याद कीजिए चुनाव के समय में कैसे सड़के सज जाती थी और जहां रैली का आयोजन होता था वहां जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाता था, चारों तरफ चिल्लपों और आपाधापी का महौल रहता था। अमेरिका में बड़े पैमाने पर और यूरोप में कुछ छिटपुट स्तर पर वर्चुअल चुनावी रैलियां होती रही हैं। कोरोना संक्रमण की वजह से फिलहाल किसी भी तरह की सभा या रैली पर पाबंदी है लेकिन संविधान के नियमों के मुताबिक विधानसभा चुनावों को तय समय पर कराना जरूरी है. बिहार में यह चुनाव इस साल के आखिर में होने हैं जबकि पश्चिम बंगाल और ओडिशा में अगले साल। ऐसे में वर्चुअल रैलियां देर-सबेर सत्ता के तमाम दावेदारों का सहारा बन सकती हैं। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि अभी लंबे समय तक पहले की तरह लाखों की भीड़ जुटा कर रैलियों का आयोजन करना संभव नहीं है। राजनीतिक विश्लेषकों ने भी वर्चुअल रैलियों को ही चुनाव प्रचार का नया हथियार करार दिया है।
2015 के बिहार विधानसभा चुनाव की बात करें तो वह उस समय का सबसे खर्चीला चुनाव साबित हुआ था। इस चुनाव से राज्य के खजाने पर तकरीबन 300 करोड़ रुपए का भार पड़ा था। हालांकि इन खर्चों में राजनीतिक पार्टी द्वारा खर्च किए गए धन को नहीं जोड़ा गया है। ये सभी खर्चें इस्तेमाल गाड़ियों का भुगतान, इनसे जुड़े लोगों का खर्च, चुनावी सामग्री और सुरक्षा के लिए किए गए इंतजाम के रूप में थे। 2015 के विधानसभा चुनाव में खर्च हुए 300 करोड़ रुपए का सबसे बड़ा हिस्सा लगभग 152 करोड़ रुपए गाड़ियों व उनके ईंधन, बूथ का निर्माण, टेंट व चुनावी सामग्री के तौर पर हुआ तो वहीं चुनावी खर्च का एक बड़ा हिस्सा सुरक्षा के इंतजामों में खर्च हुआ। चुनाव अधिकारी के अनुसार लगभग 78 करोड़ रुपए इस मद में खर्च हुआ, जिसे राज्य के गृह विभाग ने वहन किया। विधानसभा चुनाव में उम्मीदवारों के खर्च की अधिकतम सीमा 28 लाख रुपए निर्धारित है, जबकि राजनीतिक दलों के लिए खर्च की कोई सीमा निर्धारित नहीं है। स्टार प्रचारकों के खर्च को लेकर भी प्रावधान तय हैं।
कोरोना संकट से पहले भारत में रैलियों की तैयारी महीनों पहले से होने लगती थीं। कार्यकर्ता सक्रिय हो जाते। अधिक से अधिक लोगों को रैली में लाने के लिए तरह-तरह के जुगत किए जाते थे और जब लोग ले आए जाते थे तो फिर उन्हें ठहराने और खिलाने-पिलाने की व्यवस्था करनी होती थी। लोगों के लिए रात में नाच-गाने का कार्यक्रम चलता था। कोरोना ने सबकुछ खत्म कर दिया। वर्चुअल के दौर में अब लिंक खोलिए और सीधे जुड़ जाइए। नेताओं को भी एक ही दिन कई जनसभाओं को संबोधित करने के लिए भाग-दौड़ की कोई चिंता नहीं। वाकई, बहुत कुछ बदल गया।
(नाजनीन-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)