स्कूल अब शिक्षा के मंदिर नहीं बल्कि व्यावसायिक अड्डा
नई दिल्ली निजी स्कूलों को ट्यूशन फीस के अलावा छात्रों से अन्य किसी भी तरह की फीस की वसूली पर हरियाणा सरकार द्वारा रोक लगाने के आदेश के खिलाफ निजी स्कूलों की संस्था सर्व विद्यालय संघ हरियाणा की याचिका पर सुनवाई कर हाईकोर्ट ने पूछा कि सभी पक्ष मिलकर बैठक कर इस मामले का हल क्यों नहीं निकाल लेते। काफी देर तक सुनवाई करने के बाद मामले को 22 जून को फिर सुना जाएगा। सर्व विद्यालय संघ हरियाणा ने याचिका में कहा कि लॉकडाउन से सिर्फ छात्रों के अभिभावक ही प्रभावित नहीं हुए हैं बल्कि निजी स्कूल भी बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं। ऐसे में अब अगर वह फीस भी पूरी नहीं वसूल पाए तो स्कूलों के पास शिक्षकों और गैर शिक्षण कर्मियों को वेतन देना और स्कूल का खर्च निकाल पाना भी मुश्किल हो जाएगा। संस्था ने हरियाणा सरकार द्वारा 12 अप्रैल से 8 मई तक जारी उन सभी आदेश पर रोक की मांग की है। जिसके तहत सरकार ने निजी स्कूलों को फीस न बढ़ाने, स्कूल खुलने तक फीस वसूल न करने और सिर्फ ट्यूशन फीस के अलावा अन्य किसी फंड के लिए फीस लेने पर पाबंदी लगा दी है। इस मामले में निजी स्कूलों के अभिभावकों ने कहा कि मामले में हाईकोर्ट को अभिभावकों का भी पक्ष सुनना चाहिए। इस पर निजी स्कूलों ने इस अर्जी का विरोध किया, जिस पर हाईकोर्ट ने कहा कि मामले में अभिभावकों का पक्ष भी सुना जाना जरूरी है। लंबी बहस के बाद हाईकोर्ट ने सुझाव दिया कि क्यों न इस पूरे मामले में सरकार, निजी स्कूल और अभिभावक मिल बैठकर इसका हल निकाल लेते।
हरियाणा के सरकारी स्कूलों में प्रवेश के लिए स्कूूल लीविंग सर्टिफिकेट (एसएलसी) की बाध्यता खत्म होने के बाद निजी स्कूलों की हालत खस्ता हो गई है। यहां पढ़ रहे बच्चे बगैर फीस दिए स्कूल छोड़ दे रहे हैं। खासकर गांवों के स्कूलों की हालत यह है कि यहां 50 फीसदी निजी स्कूलों में तीन माह यानी अप्रैल से जून तक फीस नहीं जमा हुई है। जबकि दस फीसदी स्कूलों में यह आंकड़ा 20 प्रतिशत तक ही है। वहीं 40 फीसदी स्कूलों में 5 से 7 प्रतिशत तक ही ट्यूशन फीस जमा कराई गई है। निजी स्कूल संचालक इससे चिंतित हैं। एक तो फीस की राशि डूबने जा रही है, दूसरा बड़ी संख्या में बच्चों के सरकारी स्कूलों में जाने पर उन्हें अपने स्कूल बंद करने की भी स्थिति आ सकती है।
कोरोना वायरस वैश्विक महामारी को काबू करने के लिए लागू किए गए लॉकडाउन के बीच नौकरी जाने या वेतन में कटौती के कारण वित्तीय संकट से जूझ रहे अभिभावक अपने बच्चों की शिक्षा पर खर्च में कटौती करने के लिए सरकारी स्कूलों की ओर रुख कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट मनमाने तरीके से फीस बढ़ाने के लिए निजी स्कूलों को कड़ी फटकार लगा चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फीस बढ़ोतरी पर सरकार ही कानून बना सकती है। पब्लिक स्कूल मनमाने तरीके से फीसवृद्धि नहीं कर सकते हैं। कोर्ट के इस आदेश के बाद जहां अभिभावकों को कुछ राहत मिली है तो वहीं अभी भी कई निजी स्कूल हैं जो मनमाने ढंग फीस वसूल रहे हंै। लॉकडाउन में घर बैठ कर ऑनलाइन पढ़ाई करने वाले विद्यार्थियों के अभिभावकों को अपने बच्चों की पढ़ाई की चिंता के साथ अब निजी स्कूलों द्वारा बनाया जा रहा फीस जमा करने का दबाव परेशानी खड़ी करने लगा है। इस आर्थिक तंगी के समय में फीस का दबाव अभिभावकों के लिए सिरदर्द बन गया है। ऑनलाइन पढ़ाई शुरू कराने के बाद निजी स्कूल प्रशासन ने अभिभावकों से फीस जमा करने का दबाव बनाना शुरू कर दिया था। इसके लिए अभिभावकों के वाट्सएप नंबरों पर बैंकों की सूचना भेजकर ऑनलाइन फीस जमा करने की जानकारी दी जा रही है। अभिभावक ऑनलाइन पढ़ाई तो झेल रहे है, लेकिन इसके बदले फीस मांगने पर आक्रोशित हो रहे हैं।
आजादी के समय भारत की साक्षरता दर मात्र 12 प्रतिशत थी जो बढ़ कर लगभग 74 प्रतिशत हो गई है, परंतु अब भी भारत संसार के सामान्य दर 85 फीसद से बहुत पीछे है। भारत में संसार की सबसे अधिक अनपढ़ जनसंख्या निवास करती है। वर्तमान स्थिति कुछ इस प्रकार है पुरुष साक्षरता 82 प्रतिशत, स्त्री साक्षरता दर 65 प्रतिशत है। सर्वाधिक साक्षरता दर में केरल 94 फीसद के साथ सबसे आगे और न्यूनतम साक्षरता दर में बिहार 64 प्रतिशत के साथ सबसे पीछे है। देश भर में बच्चों को 14 साल तक मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से लागू शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई) का लाभ अधिकांश बच्चों को ही नहीं मिल पा रहा है। कारण स्थानीय प्रशासन की ओर से लागू वे नियम हैं जिनके परिणामस्वरूप प्राथमिक शिक्षा के बाद अभिभावक अपने बच्चों को या तो सरकारी स्कूल में या फिर महंगी फीस अदा कर निजी स्कूलों में पढ़ाने को मजबूर हैं।
हरीयाणा में ही आज शिक्षा का इतना व्यवसायी करण हो गया है कि प्रदेश भर के प्राइवेट स्कूलों में हर साल 15 से 80 फीसदी तक वृद्धि हो ही जाती है। क्या किसी माता-पिता की एक साल में सैलरी इतनी बढ़ती है कि वह होने वाली इस वृद्धि को वहन कर सके। स्कूलों के इन्हीं कारणों से मिडिल क्लास के ये लोग पैसा होते हुए भी गरीब हो गए हैं, देश भर में न जाने कितने निजी स्कूलों के खिलाफ प्रदर्शन चल रहे हैं। फीस को तय करने की बात करें तो फीस को रेगुलेट करने के लिए हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान ने कानून बनाए हैं। हरियाणा में 1995 में कानून बना था जिसे 2005 में संशोधित किया गया। 16 फरवरी 2015 को रोहतक मंडल के आयुक्त की कार्यवाही रिपोर्ट के अनुसार हरियाणा के स्कूलों को फीस बढ़ाने के लिए ऑडिट रिपोर्ट के साथ फार्म 6 भरना होता है। अगर स्कूल को मुनाफा हुआ है तो फीस वृद्धि की अनुमति नहीं होती है। एनुअल चार्ज, एक्टिविटी फीस स्मार्ट क्लास फीस, कंप्यूटर फीस सब कैपिटेशन फीस के ही रूप हैं। इन मदों में फीस नहीं ली जा सकती है। स्कूलों में जूते, ड्रेस, किताबों आदि का सभी स्कूल संचालकों के साथ एक कमीशन तय होता है, जिसमें स्कूल प्रशासन की ओर से बताई गई दुकानों से ही लेना होता है और वहां पर उनका दुकानदारों के साथ कमीशन तय होता है। देखा जाए तो आज एक्शन के वेलक्रो और स्पोट्र्स शूज की कीमत 700 से 800 रुपए है, कंपनी ने 40 फीसदी मार्जिन पर स्कूल को दिया तो 320 रुपए ही कमाएगा। महंगे ब्रांड के जूते 2000 के आते हैं, इन पर भी 40 फीसदी का मार्जिन मिलता है। इस हिसाब से स्कूल की एक जूते पर 800 रुपए की कमाई हो गई। काला जूता तो ठीक है मगर महंगे ब्रांड के लिए मजबूर करने के पीछे ये एक तरह की लूट हैं, जिसे हम अर्थतंत्र कहते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में यह खेल इतना अंदर तक चला गया है कि मानों कि एक इंसान को कैंसर होना जिसका उपचार तो है लेकिन उसके जीवन कोई गारंटी नही हैं।
(नाजनीन-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)