राष्ट्रपति का भावुक अंदाज में जेल से कैदियों की संख्या कम करने का सुझाव
नई दिल्ली। हमारे संविधान को लेकर हर व्यक्ति अपने-अपने अनुकूल मायने निकाल लेता है। संविधान में जहां लोगों को स्वतंत्रता देने की बात कही गयी है वहां सभी लोग कुछ भी करने और कुछ भी बोलने का मौलिक अधिकार बताने लगते हैं। अभी बीते दिनों (26 नवम्बर) को हमने संविधान दिवस मनाया। इस अवसर पर कई कार्यक्रम हुए थे। देश की सबसे बड़ी अदालत अर्थात सुप्रीम कोर्ट ने भी संविधान दिवस पर कार्यक्रम आयोजित किया। सुप्रीम कोर्ट और केन्द्र सरकार की संविधान को लेकर ठनी हुई है इसलिए कार्यक्रम की मुख्य अतिथि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से सुप्रीम कोर्ट ने अपेक्षा की थी कि न्याय पालिका के पक्ष में वे कुछ बोलेंगी लेकिन देश की प्रथम नागरिक ने न्यायपालिका को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का सवाल समय की मांग भी है और हजारों लोगों की तरफ से फरियाद भी कि उन्हें सजा से कब मुक्त किया जाएगा। राष्ट्रपति ने मामूली अपराधों के लिए वषों से जेलों में बंद गरीब लोगांे की मदद करके कैदियों की संख्या कम करने का सुझाव दिया है। जेलों को लेकर द्रौपी मुर्मू का ठोस अनुभव है। ओडिशा (उड़ीसा) की जेलों में उन्होंने कैदियों से स्वयं मिलकर उनके दुख-दर्द को समझा है। राष्ट्रपति ने उन कैदियों के बारे में सवाल उठाया है जो गरीब हैं, अशिक्षित हैं और थप्पड़ मारने जैसे जुर्म में जेलों में सड़ रहे हैं। संविधान के मसौदे को लेकर प्रो. केटी. शाह ने कभी कहा था कि संविधान का उद्देश्य जैसा कि संविधान के शब्दों में ही समझा जा सकता है, लगभग पूरी तरह से राजनीतिक है और सामाजिक या आर्थिक तो कतई नहीं है। केटी शाह कहते हैं कि मैंने संविधान के दो या तीन सबसे प्रमुख अध्यायों या लेखों को पढ़ा है, मुझे उनमें वंचितों पर ध्यान देने की कमी महसूस हुई है। उन्होंने उदाहरण के लिए मौलिक अधिकारों के अध्याय का जिक्र किया है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भी इसी मुद्दे को उठाया है।
राष्ट्रपति मुर्मू ने कहा कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को देश और देशवासियों के लिए 'समान सोच' रखने की आवश्यकता है।उच्चतम न्यायालय द्वारा संविधान दिवस पर आयोजित कार्यक्रम के समापन समारोह को संबोधित करते हुए मुर्मू ने मामूली अपराधों के लिए वर्षों से जेलों में बंद गरीब लोगों की मदद करके वहां कैदियों की संख्या कम करने का सुझाव दिया।
उन्होंने कहा, ''कहा जाता है कि जेलों में कैदियों की भीड़ बढ़ती जा रही है और जेलों की स्थापना की जरूरत है? क्या हम विकास की ओर बढ़ रहे हैं? तो फिर और जेल बनाने की क्या जरूरत है? हमें उनकी संख्या कम करने की जरूरत है। मुर्मू ने कहा कि जेलों में बंद इन गरीब लोगों के लिए अब कुछ करने की जरूरत है उन्होंने कहा, ''आपको इन लोगों के लिए कुछ करने की जरूरत है।जानने की कोशिश कीजिए कि आखिर कौन हैं ये जो जेलों मे सड़ रहे हैं।
राष्ट्रपति ने भावुक अंदाज में कहा, जेल में बंद उन लोगों के बारे में सोचें, जो कि थप्पड़ मारने के जुर्म में जेल में कई सालों से बंद हैं, उनके लिए सोचिए।उनको न तो अपने अधिकार पता हैं, न ही संविधान की प्रस्तावना, न ही मौलिक अधिकार या मौलिक कर्तव्य।उनके बारे में कोई नहीं सोच रहा है। उनके घर वालों में उन्हें छुड़ाने की हिम्मत नहीं रहती, क्योंकि मुकदमा लड़ने में ही उनके घर के बर्तन तक बिक जाते हैं।राष्ट्रपति ने बड़ी बात कही, जिंदगी खत्म करने वाले तो बाहर घूमते हैं, लेकिन आम आदमी मामूली जुर्म में वर्षों जेल में पड़ा रहता है। कौन हैं ये लोग, इनकी जानकारी लीजिए, इनके बारे में पता कीजिए।
द्रोपदी मुर्मू ने कहा, मैं छोटे गांव से आई, हम गांव के लोग तीन ही लोगों को भगवान मानते हैं- गुरु, डॉक्टर और वकील।गुरु ज्ञान देकर, डॉक्टर जीवन देकर और वकील न्याय दिलाकर भगवान की भूमिका में होते हैं। उन्होंने अपने पहले विधायक कार्यकाल में विधानसभा की कमेटी के अपने अनुभव साझा किए। अपनी उम्मीदों के सच न होने का अफसोस जताया, फिर राज्यपाल होने के दौरान के भी अनुभव साझा किए।
राष्ट्रापति द्रौपदी मुर्मू ने जेल में कैदियों के बारे में सच्चाई को अपने अनुभव के आधार पर जन सामान्य के सामने रखा है। उनका जन्म ओडिशा जैसे पिछड़े राज्य के मयूरमंज जिले में बंदोपोसी गांव में हुआ थां वे आदिवासी समूह संथाल से सम्बंध रखती हैं। उन्होंने देखा कि कैसे छोटे-छोटे अपराधों में आदिवासियों को गिरफ्तार किया गया और अज्ञानता व संसाधनहीन होने के चलते उन्हें कितने वर्षों तक जेल में ही रहना पड़ा। भाजपा और बीजू जनता दल सरकार के दौरान वह वाणिज्य व परिवहन मंत्री, मत्स्य पालन एवं पशु संसाधन विकास की राज्यमंत्री भी रही हैं। भाजपा की अनुसूचित जनजाति (एसटी) अनुभाग की राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य के रूप में उन्होंने जनजाति समुदाय की परेशानियों को निकट से देखा है।
राष्ट्रपति मुर्मू ने न्यायपालिका को अपनी सरकार की मजबूरी बताने का भी प्रयास किया है। केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने अदालत में लंबित मामलों को लेकर एक बार फिर से बयान दिया है. कानून मंत्री ने कहा कि जजों की नियुक्ति को लेकर सरकार के पास सीमित अधिकार है। उन्होंने कहा, लेकिन जजों की नियुक्ति कॉलेजियम के सुझाव के आधार पर ही हो सकती है। सरकार ने कॉलेजियम से कहा था कि वह ऐसे नाम भेजें जो समाज के सभी तबकों का प्रतिनिधित्व करें, लेकिन कई बार वैसा नहीं हो पाता। इस वजह से ये अधिकार पूरी तरह से हमारे हाथ में भी नहीं है। दरअसल, किरेन रिजिजू ने पिछले दिनों एक टीवी डिबेट में कहा था कि अगर सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम को लगता है कि सरकार की ओर से उसकी सिफारिशों में फैसला नहीं लिया जा रहा है तो वह जजों की नियुक्ति पर नोटिफिकेशन जारी कर दें। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट कानून मंत्री के इस बयान का अदालत में सुनवाई के दौरान जिक्र होने पर इसे खारिज कर दिया। कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने अपने ताजा बयान में कहा कि जब तक जजों की नियुक्ति को लेकर हम नई व्यवस्था खड़ी नहीं करेंगे तब तक यह सवाल खड़ा होता रहेगा। उन्होंने कहा कि यह कहने में उन्हें गुरेज नहीं है कि, जो देश की भावना है उस हिसाब से हमारे पास व्यवस्था नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को रिटायर होने के बाद 5 साल तक सुरक्षा दी जाएगी तो वहीं अन्य सुप्रीम कोर्ट के जजों को रिटायर होने के बाद 3 साल तक सुरक्षा मिलेगी। कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा कि एनजेएसी को खारिज करने वाला फैसला सही नहीं था. इसे लेकर कई जगहों पर बात कही गई है. यह समाज और देश की भावना के खिलाफ था। उन्होंने कहा कि एक मुद्दा है जिस पर न्यायपालिका और विधायिका के बीच लगातार विवाद चल रहा है।
इससे पहले बीते दिनों (15 दिसंबर) को कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने जमानत याचिकाओं को लेकर एक बड़ा बयान दिया। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में लंबित पड़े हजारों मामलों का जिक्र करते हुए कहा कि सर्वोच्च अदालत को जमानत याचिकाओं और छोटे मामलों पर सुनवाई नहीं करनी चाहिए। कानून मंत्री ने कहा कि भारत की सबसे बड़ी समस्या यह है कि कोई फैसला आता है तो वो पहले हाईकोर्ट में फिर उसके बाद सुप्रीम कोर्ट में जाएगा। राष्ट्रपति इसी मुद्दे को पहले उठा चुकी हैं। (हिफी)