मुखर्जी के सपनों का कश्मीर
लखनऊ। देश की अखंडता के एक नायक थे सरदार बल्लभ भाई पटेल तो दूसरे नायक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे। आजादी के बाद उन्होंने इस बात का विरोध किया था कि देश में दो प्रधानमंत्री कैसे? जम्मू-कश्मीर में धारा 370 का विरोध करते हुए उन्होंने नारा दिया था- एक देश में दो विधान, एक देश में दो निशान और एक देश में दो प्रधान नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे। डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की आज 119वीं जयन्ती पर यह देश सीना तानकर कह सकता है कि एक देश में अब न तो दो निशान हैं और न दो प्रधान ही हैं। नरेन्द्र मोदी की सरकार ने जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को निष्प्रभावी कर दिया है। डा. मुखर्जी के जन्मदिन 6 जुलाई को समूचा देश उनको नमन कर रहा है और उनके सपनों के कश्मीर को देखकर खुश है। डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे जो आज भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नाम से केन्द्र और लगभग दो दर्जन राज्यों में सरकार चला रही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय जन संघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जन्म दिवस पर उन्हें श्रद्धांजलि दी। पीएम मोदी समेत कई केंद्रीय मंत्री और अन्य भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने भी इस मौके पर श्यामा प्रसाद मुखर्जी को याद किया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट किया, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जयंती पर मैं उन्हें नमन करता हूं। वो एक सच्चे राष्ट्रभक्त थे, जिन्होंने भारत के विकास में अहम भूमिका निभाई। देश की एकता के लिए उन्होंने योगदान दिया और उनके विचार करोड़ों लोगों को प्रेरित करते हैं। उन्होंने कश्मीर में दो प्रधानमंत्री का विरोध किया था। जम्मू-कश्मीर में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने धारा 370 का विरोध शुरू किया। उन्होंने एक देश में दो विधान, एक देश में दो निशान, एक देश में दो प्रधान नहीं चलेंगे नहीं चलेंगे जैसे नारे दिए। इसी प्रकार गृह मंत्री अमित शाह ने भी डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी को याद किया। उन्होंने ट्विटर पर लिखा, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी के रूप में देश को एक ऐसा दूरदर्शी नेता मिला जिसने भारत की समस्याओं के मूल कारणों व स्थायी समाधानों पर जोर दिया और उनके लिए जीवन पर्यन्त संघर्ष किया। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर केंद्रित जन संघ और आज की भाजपा डॉ. मुखर्जी की ही दूरदर्शिता का परिणाम है। बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे. पी. नड्डा ने डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जयंती पर उनके सेवा भाव को याद किया। नड्डा ने ट्वीट किया, राष्ट्रोत्थान व सेवा भाव को आधार बनाकर भारतीय जनसंघ की स्थापना करने वाले परम श्रद्धेय डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी की जयंती पर उन्हें कोटि कोटि नमन। समतामूलक समाज व अखंड भारत की संकल्पना के पोषक आपके विचार आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में अत्यंत अनुसरणीय हैं। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जवाहरलाल नेहरू से अलग होकर 1951 में भारतीय जन संघ की नींव रखी थी। पक्ष-विपक्ष के राजनेताओं के साथ देश की जनता भी डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को राष्ट्रनायक के रूप में नमन कर रही है।
6 जुलाई 1901 को कलकत्ता के अत्यन्त प्रतिष्ठित परिवार में डॉ॰ श्यामाप्रसाद मुखर्जी का जन्म हुआ। उनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे एवं शिक्षाविद् के रूप में विख्यात थे। डॉ॰ मुखर्जी ने 1917 में मैट्रिक किया तथा 1921 में बीए की उपाधि प्राप्त की। 1923 में लॉ की उपाधि अर्जित करने के पश्चात् वे विदेश चले गये और 1926 में इंग्लैण्ड से बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे। अपने पिता का अनुसरण करते हुए उन्होंने भी अल्पायु में ही विद्याध्ययन के क्षेत्र में उल्लेखनीय सफलताएँ अर्जित कर ली थीं। 33 वर्ष की अल्पायु में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने। इस पद पर नियुक्ति पाने वाले वे सबसे कम आयु के कुलपति थे। एक विचारक तथा प्रखर शिक्षाविद् के रूप में उनकी उपलब्धि तथा ख्याति निरन्तर आगे बढ़ती गयी। डॉ॰ श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने स्वेच्छा से अलख जगाने के उद्देश्य से राजनीति में प्रवेश किया। डॉ॰ मुखर्जी सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक और सिद्धान्तवादी थे। उन्होने बहुत से गैर कांग्रेसी हिन्दुओं की मदद से कृषक प्रजा पार्टी से मिलकर प्रगतिशील गठबन्धन का निर्माण किया। इस सरकार में वे वित्तमन्त्री बने। इसी समय वे सावरकर के राष्ट्रवाद के प्रति आकर्षित हुए और हिन्दू महासभा में सम्मिलित हुए।
उस समय मुस्लिम लीग की राजनीति से बंगाल का वातावरण दूषित हो रहा था। वहाँ साम्प्रदायिक विभाजन की नौबत आ रही थी। साम्प्रदायिक लोगों को ब्रिटिश सरकार प्रोत्साहित कर रही थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में उन्होंने यह सुनिश्चित करने का बीड़ा उठाया कि बंगाल के हिन्दुओं की उपेक्षा न हो। अपनी विशिष्ट रणनीति से उन्होंने बंगाल के विभाजन के मुस्लिम लीग के प्रयासों को पूरी तरह से नाकाम कर दिया। 1942 में ब्रिटिश सरकार ने विभिन्न राजनैतिक दलों के छोटे-बड़े सभी नेताओं को जेलों में डाल दिया। डॉ॰ मुखर्जी इस धारणा के प्रबल समर्थक थे कि सांस्कृतिक दृष्टि से हम सब एक हैं। इसलिए धर्म के आधार पर वे विभाजन के कट्टर विरोधी थे। वे मानते थे कि विभाजन सम्बन्धी उत्पन्न हुई परिस्थिति ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से थी। वे मानते थे कि आधारभूत सत्य यह है कि हम सब एक हैं। हममें कोई अन्तर नहीं है। हम सब एक ही रक्त के हैं। एक ही भाषा, एक ही संस्कृति और एक ही हमारी विरासत है। परन्तु उनके इन विचारों को अन्य राजनैतिक दल के तत्कालीन नेताओं ने अन्यथा रूप से प्रचारित-प्रसारित किया। बावजूद इसके लोगों के दिलों में उनके प्रति अथाह प्यार और समर्थन बढ़ता गया। अगस्त, 1946 में मुस्लिम लीग ने जंग की राह पकड़ ली और कलकत्ता में भयंकर बर्बरतापूर्वक अमानवीय मारकाट हुई। उस समय कांग्रेस का नेतृत्व सामूहिक रूप से आतंकित था।
ब्रिटिश सरकार की भारत विभाजन की गुप्त योजना और षड्यन्त्र को एक कांग्रेस के नेताओं ने अखण्ड भारत सम्बन्धी अपने वादों को ताक पर रखकर स्वीकार कर लिया। उस समय डॉ॰ मुखर्जी ने बंगाल और पंजाब के विभाजन की माँग उठाकर प्रस्तावित पाकिस्तान का विभाजन कराया और आधा बंगाल और आधा पंजाब खण्डित भारत के लिए बचा लिया। गान्धी जी और सरदार पटेल के अनुरोध पर वे भारत के पहले मन्त्रिमण्डल में शामिल हुए। उन्हें उद्योग जैसे महत्वपूर्ण विभाग की जिम्मेदारी सौंपी गयी। संविधान सभा और प्रान्तीय संसद के सदस्य और केन्द्रीय मन्त्री के नाते उन्होंने शीघ्र ही अपना विशिष्ट स्थान बना लिया। किन्तु उनके राष्ट्रवादी चिन्तन के चलते अन्य नेताओं से मतभेद बराबर बने रहे। फलतः राष्ट्रीय हितों की प्रतिबद्धता को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता मानने के कारण उन्होंने मन्त्रिमण्डल से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने एक नई पार्टी बनायी जो उस समय विरोधी पक्ष के रूप में सबसे बड़ा दल था। अक्टूबर, 1951 में भारतीय जनसंघ का उद्भव हुआ।
डॉ॰ मुखर्जी जम्मू कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। उस समय जम्मू कश्मीर का अलग झण्डा और अलग संविधान था। वहाँ का मुख्यमन्त्री (वजीरे-आजम) अर्थात् प्रधानमन्त्री कहलाता था। संसद में अपने भाषण में डॉ॰ मुखर्जी ने धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊँगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपना जीवन बलिदान कर दूँगा। उन्होंने तात्कालिक नेहरू सरकार को चुनौती दी तथा अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। अपने संकल्प को पूरा करने के लिए वे 1953 में बिना परमिट लिये जम्मू कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। वहाँ पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार कर नजरबन्द कर लिया गया। 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी।
(अशोक त्रिपाठी-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)