आम जनता क्यों है न्याय से वंचित!
नई दिल्ली। वर्तमान में न्याय प्रक्रिया जनसामान्य के लिए कठिन होती जा रही है। आम लोगों के लिए न्याय सस्ता व सुलभ होना चाहिए। न्याय मिलने में विलंब हो रहा है। कहा गया है कि ''जस्टिस डिलेड, जस्टिस डिनाइड'' समय पर न्याय न मिलना न्याय के प्रति अन्याय है। आज अदालतों की यह हालत है कि मुकदमें दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं। इन मुकदमों का तेजी से निस्तारण नहीं हो पा रहा है। इसके साथ ही स्थानीय भाषा में निर्णय होने चाहिए।
सूचना के अनुसार आज भारत की तमाम अदालतों में पांच करोड़ मुकदमें लंबित हैं। न्याय की प्रक्रिया लंबी है। न्याय पाने में सालों लग रहे हैं। कभी तो ऐसा देखा गया है कि फैसला 30.40 सालों में हो रहा है तब तक न्याय की आस लगाया व्यक्ति जीवित नहीं रहता। मुकदमा लड़ने वाला वकील या तो प्रैक्टिस छोड़ देता है या उसका निधन हो जाता है। केस की जाँच करने वाले पुलिस अधिकारी का या तो तबादला हो जाता है या उसका प्रमोशन हो जाता है या उसकी मृत्यु हो जाती है। केस की फाइल लटक जाती है। नया पुलिस अधिकारी केस की अपने ढंग से ततीश करता है।
जेलों में बंद कैदी अपने केस के लिए किसी योग्य वकील से पैरवी नहीं कर पाते है। वे सालों तक जेल की सलाखों के पीछे रहते हैं। हमारे देश में न्यायाधीशों की कमी है। एक न्यायाधीश के पास कई मुकदमें हैं। मुकदमें चलते रहते हैं। तारीख पर तारीख लगती है। कभी सम्बन्धित जज अवकाश पर होते हैं तो कभी मुवक्किल का वकील अवकाश पर होता है। कभी मुवक्किल तारीख पर हाजिर नहीं होता है। केस की तारीख आगे खिसका दी जाती है। अगली तारीख कब होगी होगी, यह तो वकील भी नहीं बता सकते।
देश की विभिन्न अदालतों में न्यायाधीशों के हजारों पद खाली चल रहे हैं। उच्च व उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों के पद रिक्त हैं। विधि आयोग का कहना है कि न्यायाधीशों की संख्या दो लाख होनी चाहिए जो तकरीबन 20 हजार है। अदालतों में मुकदमों के तेजी से निस्तारण के लिए कम से कम 30 हजार न्यायाधीश कार्य निष्पादन के लिए चाहिए। वकीलों की संख्या 18 लाख है। ला ग्रेज्युट डिग्री लेकर निकल रहे हैं जिनके पास काम नहीं है। कई वकील भारतीय बार कौंसिल से पंजीकृत है तो कुछ अपंजीकृत। पंजीकृत वकीलों की फीस अधिक होती है जिसे गरीब आदमी वहन नहीं कर पाता।
निर्धनों व जरूरतमंदों को इंसाफ दिलाने के लिए विधिक सेवा प्राधिकरण बने हैं जिनके वकील बिना शुल्क के केस लड़ते हैं। निर्धनों को न्याय प्रदान कराने के लिए राज्य व जिला विधिक सेवा प्राधिकरणों को सक्रिय करना होगा। न्याय पालिका द्वारा नियुक्त पैरालीगल वालंटियर्स निर्धनों व जरूरतमंदों को न्याय सुलभ कराते हैं लेकिन देखा गया है कि ये वालंटियर्स अपना कार्य चुस्त ढंग से नहीं कर पा रहे हैं। लोगों का उनसे सम्पर्क नहीं हो पाता है। पैरालीगल वालंटियर्स के मोबाइल नंबर्स आम लोगों तक सुलभ होने चाहिए ताकि वे इनसे सम्पर्क स्थापित कर लांभावित हो सकें।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमण ने स्वयं माना है कि कम लोग ही अदालतों को जा पाते हैं। ज्यादातर लोग उत्पीड़न सहते हैं। ऐसे लोग न्याय प्राप्ति हेतु जागरूक नहीं हैं। संचार साधनों से इनसे मदद मिल सकती है। आधुनिक प्रौद्योगिकी उपकरणों से इस कार्य में मदद मिल सकती है।
जिला स्तर पर न्याय पालिकाओं की बड़ी भूमिका है जो न्याय प्रदान करने प्रणाली के लिए रीड़ की हड्डी है। सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख न्यायाधीश की चिंता जायज है। न्याय प्रणाली को त्वरित, सुगठित व न्याय संगत बनाना होगा।
विचाराधीन कैदियों की रिहाई की दिशा में तेजी लानी होगी जिनकी संख्या 1 लाख 71 हजार तक पहुंच गयी है। इन विचाराधीन कैदियों के मामलों को तेजी से निस्तारण जरूरी है। हाईकोर्ट व जिला विधिक सेवा प्राधिकरण का गठन ही काफी नहीं है वे जरूरतमंदों को विधिक सेवा प्रदान कर सकते हैं। इसके लिए जनजागरूकता जरूरी है। विचाराधीन कैदियों को सूचीबद्ध कर उनके मुकदमों का निस्तारण होना चाहिए। कई कैदी अपनी सजा काट चुके हैं। फिर भी जेलों में बंद है। उनकी रिहाई के लिए विधिक सहायता की आवश्यकता है। इस कारण जेलों में भीड़ है। इस कारण जेलों में कैदियों में आपसी संघर्ष आम बात है। इंसाफ न मिलने से क्रुद्ध कैदी प्रायः उत्तेजना व तनाव में रहते हैं। उन्हें शीघ्र न्याय दिलानें की जरूरत है।
इसी संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजधानी दिल्ली स्थित विज्ञान भवन में राज्यों के मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के संयुक्त सम्मेलन के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए कहा था कि अदालती कार्यवाही स्थानीय भाषा में होनी चाहिए तभी न्याय व्यवस्था समर्थ हो सकती है। इस सम्मेलन में केंद्रीय कानून व न्याय मंत्री किरेन रिजिजू और भारत के प्रधान न्यायाधीश एनवी रमण भी मौजूद रहे। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, 'राज्य के मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों का ये संयुक्त सम्मेलन हमारी संवैधानिक खूबसूरती का सजीव चित्रण है। मुझे खुशी है कि इस मौके पर मुझे भी आप सभी के बीच कुछ पल बिताने का अवसर मिला है।' उन्होंने कहा कि हमारे देश में जहां एक ओर न्यायपालिका की भूमिका संविधान संरक्षक की है, वहीं विधायिका नागरिकों की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती है। मुझे विश्वास है कि संविधान की इन दो धाराओं का यह संगम, यह संतुलन देश में प्रभावी और समयबद्ध न्याय व्यवस्था का रोडमैप तैयार करेगा। पीएम मोदी ने कहा कि आजादी के इन 75 वर्षों ने न्यायपालिका और कार्यपालिका दोनों की ही भूमिका और जिम्मेदारियों को निरंतर स्पष्ट किया है। जहां जब भी जरूरी हुआ, देश को दिशा देने के लिए दोनों संस्थाओं के बीच का यह संबंध लगातार विकसित हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, 2047 में जब देश अपनी आजादी के 100 साल पूरे करेगा, तब हम देश में कैसी न्याय व्यवस्था देखना चाहेंगे? हम किस तरह अपनी न्यायिक व्यवस्था को इतना समर्थ बनाएं कि वह 2047 के भारत की आकांक्षाओं को पूरा कर सके, उन पर खरा उतर सके, इस प्रश्न का जवाब ढूंढना आज हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि भारत सरकार भी ज्यूडिशियल सिस्टम में टेक्नोलॉजी की संभावनाओं को डिजिटल इंडिया मिशन का एक जरूरी हिस्सा मानती है। उदाहरण के तौर पर, ई-कोर्ट्स प्रोजेक्ट को आज मिशन मोड में इम्प्लीमेंट किया जा रहा है। हम न्यायिक व्यवस्था में सुधार के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं। हम न्यायिक व्यवस्था के बुनियादी ढांचे में सुधार और उन्नयन के लिए भी काम कर रहे हैं।
मोदी ने कहा था कुछ साल पहले डिजिटल ट्रांजेक्शन को हमारे देश के लिए असंभव माना जाता था। आज छोटे कस्बों यहां तक गांवों में भी डिजिटल ट्रांजेक्शन आम बात होने लगी है। पूरे विश्व में पिछले साल जितने डिजिटल ट्रांजेक्शन हुए, उसमें से 40 प्रतिशत डिजिटल ट्रांजेक्शन भारत में हुए हैं। आजकल कई देशों में लॉ यूनिवर्सिटी में समय की जरूरत के विषय पढ़ाये जा रहे हैं। हमारे देश में भी न्यायिक शिक्षा इन अंतरराष्ट्रीय मानकों के मुताबिक हो, यह हमारी जिम्मेदारी है।
पीएम मोदी ने कहा कि हमें कोर्ट में स्थानीय भाषाओं को प्रोत्साहन देने की जरूरत है। इससे देश के सामान्य नागरिकों का न्याय प्रणाली में भरोसा बढ़ेगा, वे जुड़ाव महसूस करेंगे। हमारे देश में आज भी हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की सारी कार्यवाही अंग्रेजी में होती है। एक बड़ी आबादी को न्यायिक प्रक्रिया से लेकर फैसलों तक को समझना मुश्किल होता है, हमें व्यवस्था को आम जनता के लिए सरल बनाने की जरूरत है। एक गंभीर विषय आम आदमी के लिए कानून की पेंचीदगियों का भी है। 2015 में हमने करीब 1800 ऐसे कानूनों को चिन्हित किया था जो अप्रासंगिक हो चुके थे। इनमें से जो केंद्र के कानून थे, ऐसे 1450 कानूनों को हमने खत्म किया लेकिन, राज्यों की तरफ से केवल 75 कानून ही खत्म किए गए हैं। (हिफी)
(बृजमोहन पन्त-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)