समाजवादी पार्टी का राजनीतिक एवं आर्थिक प्रस्ताव
समाजवादी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक
लखनऊ । देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में समाजवादी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी आज एक बार पुनः बैठी।
आज से लगभग 28 वर्ष पहले लखनऊ में ही ऐतिहासिक बेगम हजरत महल पार्क में समाजवादी पार्टी का गठन और प्रथम सम्मेलन हुआ था। स्थापना सम्मेलन में जो पहला राजनीतिक और आर्थिक प्रस्ताव लाया गया था, उसकी कुछ बातें समाजवादी पार्टी के नेतृत्व की दूरदर्शिता का स्पष्ट उदाहरण है। स्थापना सम्मेलन में पारित किये गये प्रस्ताव के पहले पैराग्राफ का एक अंश का उल्लेख करना न केवल प्रासंगिक है बल्कि हमारे संस्थापक नेताओं की दूरदर्शिता का परिचायक भी है। वह पैरा इस प्रकार है- 'आज आम भारतीय का आत्मबल टूट चुका है, वह निराश, उदास और कहीं क्रोध में है। सत्ता उसके लिये एक भयानक राक्षस की तरह है जो हर पल उसका शोषण करती जा रही है। गाँव वीरान हो रहे हैं, खेती और किसान उपेक्षित है, बेकारी सुरसा की तरह बढ़ रही है। जहाँ लूट ही लूट है। कौन कितना लूट सकता है इसकी होड़ है।'
आज स्थिति उससे बहुत ज्यादा बदतर हो चुकी है। देश की इस भयावह स्थिति को समझने के लिये हमें देश के वर्तमान राजनैतिक पटल पर दृष्टि डालनी होगी। इस दौरान कुछ महत्वपूर्ण घटनाएं घटी हैं। वर्ष 2019 के आम चुनाव के परिणामों पर निगाह डालने के पश्चात कुछ सवाल सामने आये हैं जिन पर गहराई से विचार किये जाने की आवश्यकता है। हमारे संविधान निर्माताओं ने जो व्यवस्था की थी उसके हिसाब से संसदीय लोकतंत्र को सुचारू रूप से संचालित करने के लिये एक निश्चित व्यवस्था की गयी थी। जिसमें संसद और विधानमंडलों का काम कानून बनाने का, कार्यपालिका का काम कानून के पालन कराने का और न्यायपालिका का काम कानून की व्याख्या करने और कानून को तोड़ने वालों के लिये दण्ड सुनिश्चित करने का था। संविधान ने भारतवर्ष के प्रत्येक नागरिक को समता एवं बराबरी के आधार पर आगे बढ़ने का अवसर दिया। लेकिन वह व्यवस्था एकदम बदल गयी। संविधान में वर्णित शक्तियों का पृथक्करण धुुंधला पड़ गया है। कार्यपालिका ने लगभग सारे अधिकार अपने हाथ में ले लिये हैं। न्यायपालिका को प्रभाव शून्य करने तथा विधायिका को अपंग करने का काम सफलतापूर्वक पूरा कर दिया है। जो स्वतंत्र मीडिया लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करता था और जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माना जाता था उसका बड़े पूँजीपतियों की मदद से पूरी तरह से गला घोंट दिया गया है। अब सरकार की सनक के सामने विधायिका और न्यायपालिका लाचार नजर आती है। मीडिया सरकारी तोता हो गया है और वह सरकार की कमियों को उजागर करने के बजाय सरकार की चापलूसी करने में जुटी रहती है।
देश की मौजूदा सरकार का लक्ष्य केवल किसी न किसी तरीके से सत्ता में बने रहना और सत्ता को हासिल करना है। छल और बल से अपनी विचारधारा को जनता पर थोपना और जनता के सरोकार के सारे कार्यांे की उपेक्षा करना एक सामान्य बात हो गयी है। आम जनता में यह धारणा है कि मौजूदा सरकार साम्प्रदायिक उन्माद पैदा करके देश को रक्तरंजित करके अपने सहयोगी संगठनों द्वारा प्रचारित और प्रसारित विचारधारा को ही अपना मार्गदर्शक मान कर काम कर रही है। संसद, सरकार एवं न्यायपालिका की अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग व्यापक समाज एवं देश के लिये न करके साम्प्रदायिक शक्तियों को मजबूत करने के लिये किया जा रहा है। इलैक्ट्राॅनिक मीडिया तथा सोशल मीडिया के माध्यमों का प्रयोग करते हुए भारत वर्ष में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का सहारा लिया गया है तथा भारतवर्ष में भय, असुरक्षा एवं नफरत का माहौल बनाकर समाज को बाँट दिया गया है। यह भी पूरी स्पष्टता के साथ परिलक्षित हो रहा है कि वर्तमान सरकार ब्रिटेन की उपनिवेशी सरकार की भाँति फूट डालो और शासन करो की नीति पर चल रही है।
वर्ष 2019 के आम चुनावों में साम्प्रदायिक शक्तियों ने 36 प्रतिशत मत प्राप्त करके अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई है। यह बड़ी चिंता एवं विचार का विषय है कि पूर्ण बहुमत की सरकार भी जनता को सशक्त करके देश को आगे बढ़ाने की बजाय देशवासियों को ही लाचार एवं मजबूर बनाकर अपनी ताकत बढ़ाने में लग गई है।
आजादी के 70 वर्षाें में जो भी पूर्ववर्ती सरकारें बनीं हैं, उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से देशवासियों का विकास करने के लिये शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार एवं बुनियादी निर्माण पर बल देने का काम किया था, परन्तु वर्तमान सरकार ने सिर्फ पड़ोसी देश पाकिस्तान के प्रति युद्ध का उन्मादी स्थाई माहौल बनाकर जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ने का काम किया है।
सरकार एवं उसके सहयोगी संगठन एक तरफ राष्ट्रवाद की नई परिभाषाएं गढ़ रहे हैं तथा निर्लज्जतापूर्वक संविधान के धर्मनिरपेक्ष ढाँचे को तहस-नहस करने में लगे हुए हैं। वहीं दूसरी तरफ गौरक्षा के नाम पर पूरे देश में उन्मादी भीड़ द्वारा पीट-पीट कर सैैैैकड़ों लोगों की हत्याएं की गयीं हैं तथा पुलिस एवं प्रशासन सिर्फ खड़े होकर देखते रहे हैं। स्वतंत्र भारत में घटने वाली ये घटनाएं देश के माथे पर कलंक के समान हैं तथा पूरे विश्व में इन घटनाओं के कारण देश की साख को नुकसान पहुँचा है। सरकार ने न सिर्फ दोषियों को बचाने का काम किया है वरन् अपना कर्तव्य निभाने वाले सरकारी अधिकारियों एवं कर्मचारियों को हतोत्साहित करने एवं दंडित करने का काम भी किया है। बिकाऊ पत्रकारिता के माध्यम से एक अनुकूल माहौल बनाकर सरकार अपने गुनाहों पर पर्दा डालने का काम कर रही है।
जनपद बुलन्दशहर में साम्प्रदायिक एवं उन्मादी भीड़ द्वारा की गयी पुलिस निरीक्षक की हत्या तथा उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जनपद के जिम्मेदार अधिकारियों का जल्दबाजी में किया गया स्थानान्तरण एक ऐसा उदाहरण है जो अत्यन्त निंदनीय है जबकि अधिकारियों द्वारा उचित कदम उठाकर एक बड़ा दंगा रोक दिया गया था, जिसके लिये उन्हें प्रशस्ति पत्र मिलना चाहिये था। परन्तु कातिलो को तत्काल जमानतें मिल जाना तथा उनका जेल से बाहर आने पर भव्य स्वागत किया जाना, एक ऐसा घटनाक्रम है जिसे याद रखा जाना चाहिये। चार राज्यों मेें चुनाव होने जा रहे थे और ऐसे समय पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिक दंगों की योजना बनाई गयी थी ताकि इन राज्यों में चुनाव जीता जा सके।
गैर भाजपा शासित प्रदेशों का उद्देश्य की सरकारों के साथ भेदभावपूर्ण रवैया अपनाना और उन्हें गिराने का प्रयास करना भाजपा सरकार के लिये आम बात हो गयी है। विपक्षी नेताओं को डराने, धमकाने और उनकी खिलाफत करने वालों के खिलाफ इनकम टैक्स, ईडी और सीबीआई का प्रयोग करना भारतीय राजनीति के लिये सबसे अशुभ संकेत है। जो व्यक्ति इस सरकार की खिलाफत करे, वह देशद्रोही घोषित हो जाता है। वोट की खातिर दंगे कराना, असंवैधानिक कानूनों का बनाना भारत की एकता और अखंडता के लिये खतरे की घंटी के समान है। नागरिकता संशोधन अधिनियम, एनआरसी और एनपीआर की वजह से पूरे देश में बेचैंनी है। सरकार की इन गतिविधियों से पूरी दुनियां में भारत की बदनामी हो रही है। जब दिल्ली में चुनाव से पूर्व दंगा कराने में असफल रहे और चनुाव हार गये तो जो कुछ दिल्ली में हुआ, वह गुजरात के दंगों की याद दिलाता है। दिल्ली में दंगा के लिये उकसाने वालों के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट के एक जज ने एफआईआर करने के आदेश दिये तो उनका आधी रात्रि को तबादला कर दिया गया।
न्यायपालिका पर इस तरह का दबाब बनाकर ही उसे डराने-धमकाने की कार्यवाही वर्षों से चल रही है। संविधान द्वारा दिये गये समता, जीवन की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के चलते कोई भी नागरिक न्यायपालिका की मदद से सरकार से लड़ सकता है किन्तु अगर न्यायपालिका ही सरकार के दबाब में आ जाये तो न नागरिक स्वतंत्रता सुरक्षित है और न मौलिक अधिकार।
भारतवर्ष में लगभग 7200 जातियां तथा दस मज़हबों के लोग एक लम्बे समय से मिल-जुल कर रहते रहे हैं। ऐतिहासिक विरासत तथा स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई सभी देशवासियों की साझी विरासत है। संविधान के माध्यम से ऊँच-नीच की भावना को मिटाकर समता के आधार पर अवसरों की रचना के सिद्धांत ने भारतीय जनमानस को जीवन का एक नया आधार प्रदान किया है। समाज के निचले पायदान पर रहने वाले करोड़ों उपेक्षित लोगों के जीवन में प्रकाश की किरण आयी, जब उन्हें शिक्षा प्राप्त करके सरकारी नौकरियों में पर्याप्त अवसर मिले। इसके लिये संविधान में वंचित समुदायों के लिये आरक्षण का प्राविधान रखा गया था। इस भगवा हुुकुमत को भारत के अल्पसंख्यक समुदाय का अपनी मेहनत से आगे बढ़ना अखर रहा था। उन्हें वंचित समुदायों का शिक्षित होना तथा बड़े पदों पर पहुँचना भी अखरने लगा। सरकारी नौकरियों मंे दलितों एवं पिछड़ों को मिलने वाला संवैधानिक आरक्षण कोटा पूरा करने की बजाय नीतियां तोड़-मरोड़ कर नौकरियां समाप्त करने का कुचक्र भी चालू हो गया है। जो प्रशासनिक विफलताएं सरकार के माथे पर कलंक का टीका लगा रहीं थीं उन्हीं को हथियार बनाकर सार्वजनिक संस्थानों एवं निगमों को निजीकरण की तरफ धकेला जा रहा है। पिछले कुछ वर्षों में बहुत से सरकारी निगम जिनमें हो भारत की जनता का पैसा लगाा था, उन्हें निजी क्षेत्रों को सौंप दिया गया है जिसके कारण बहुत से लोग नौकरियांे से बाहर हो गये हैं। निजी क्षेत्र में आरक्षण की व्यवस्था न होने के कारण समाज के अनुसूचित जाति/जनजाति और पिछड़े वर्ग के तबकों के करोड़ों युवाओं के जीवन मंे अंधेरा छा गया है। सरकारी नौकरियों मंे जहाँ 27 प्रतिशत पिछड़ों के लिये और 22.5 प्रतिशत अनुसूचित जाति/जनजाति के लोगांे के लिये नौकरियां आरक्षित हैं उन्हें भी एक तरह से खत्म कर दिया गया क्योंकि अब भर्तियांे का काम आउटसोर्सिंग से होने लगा, जिस पर आरक्षण का कानून लागू नहीं होता है। और जहाँ आयोगों से नियुक्तियां होती भी हैं वहाँ 85 प्रतिशत पिछड़े और दलित वर्ग के अभ्यर्थियों को 49.5 प्रतिशत और 15 प्रतिशत सामान्य वर्ग के अभ्यर्थियों को 50.5 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था कर दी गयी है। यह सरासर भारतीय संविधान की मंशा के खिलाफ है और देश की बहुसंख्यक जनता के खिलाफ गहरी साजिश है। इस पर राष्ट्रीय स्तर पर गम्भीरता से विचार करने और प्रभावित लोगों को संगठित करके आन्दोलन चलाने की आवश्यकता है।
देश में नौकरियों की आरक्षण नीति के आधार पर 85 प्रतिशत वाली आबादी को 50 प्रतिशत तक जब कि 15 प्रतिशत वाली आबादी को 50 प्रतिशत भागीदारी प्राप्त करने का हक प्राप्त है जो सरासर सामाजिक अन्याय है। समाजवादी पार्टी एक लम्बी अवधि से मांग कर रही है कि विभिन्न जातियों वाले देश में जनगणना के समय सभी जातियों की भी जनगणना कराई जाय ताकि वर्तमान असंतुलित आरक्षण प्रणाली समाप्त हो और जिसकी जितनी आबादी हो उसी अनुपात में हक और सम्मान मिल सके। भारत सरकार जनगणना का कार्य प्रारम्भ कराने जा रही है परन्तु जनगणना हेतु प्रत्येक परिवार से जनगणना के आकड़े एकत्र करने हेतु निर्धारित प्रारूप में सभी जातियों की जानकारी प्राप्त करने का कालम नहीं है। समाजवादी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की मांग है कि प्रारम्भ की जा रही जनगणना में सभी जातियों की गणना कराई जाय और जिसकी जितनी आबादी हो उसी अनुपात में उसको भागीदारी दी जाय।
केन्द्र सरकार द्वारा जातीय जनगणना न कराने की स्थिति में, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनने पर सामाजिक न्याय के सिद्धान्त की प्रतिबद्वता के आधार पर जातीय अनुपातिक हक और सम्मान की व्यवस्था लागू करेगी।
भारतवर्ष की 130 करोड़ की आबादी जिसका लगभग 80 प्रतिशत किसान, मजदूर, महिलाएं तथा अन्य श्रमशील जातियां हैं, जिन्होंने अपने हाथों से मेहनत करके धन एवं वैभव का निर्माण किया है। वे लाचारी एवं मजबूरी का जीवन जीने के लिये विवष हैं। यह साम्प्रदायिक सरकार उनके सामाजिक एवं राजनीतिक संगठनों को छिन्न-भिन्न करने पर तुली हुयी है तथा इसके लिये अन्याय एवं हिंसा का सहारा ले रही है। प्रधानमंत्री जी द्वारा वर्ष 2014 से किसानों की आमदनी 2022 तक दुगुनी हो जाने एवं मूल्य समर्थन योजना के अन्र्तगत उनकी फसलों का क्रय मूल्य उत्पादन लागत से डेढ़ गुना करने का झांसा देकर किसानों के साथ घोर अन्याय किया गया है। वास्तविकता यह है कि धरातल में उनके लिए कुछ नहीं हुआ परन्तु लगभग 6 वर्षों में किसानों की हालत बद से बद्तर होती गई है।
ये कोई हैरत वाली बात नहीं थी कि जो सरकार राष्ट्रवाद का शंखनाद करते हुए जनता द्वारा चुनकर आयी थी, उसने जनता को कमजोर और लाचार बनाने के लिये बड़े अजीब और बेतुके निर्णय लेने चालू किये, उसमें नोटबन्दी का निर्णय सबसे महत्वपूर्ण था। प्रधानमंत्री आश्चर्यजनक तरीके से टीवी पर आये और नोटबन्दी की घोषणा की, जिसके द्वारा उस समय प्रचलित 500 रूपये और 1000 रूपये के नोटों को अमान्य घोषित कर दिया गया था तथा उन्हें बदलने की समय सीमा तय कर दी गयी। पूरा देश अपना काम छोड़कर नोट बदलने के काम मंे लग गया। यह बताया गया था कि इस कदम से काला धन प्रकाश में आ सकेगा तथा आतंकी फंडिग में रोक लग सकेगी एवं नकली मुद्रा का प्रचलन बंद किया जा सकेगा। बाद में पूरे देश ने देखा कि लगभग पूरी की पूरी प्रचलित मुद्रा रिजर्व बैंक में आ गई। परन्तु जिन कारणों का जिक्र प्रधानमंत्री ने किया था, वे कोई लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सके। वरन् पूरी की पूरी अर्थव्यवस्था गम्भीर संकट में फँस गयी। यहाँ यह गौरतलब है कि प्रधानमंत्री द्वारा लिये गये इस दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय की जानकारी न तो रिजर्व बैंक को थी, न ही वित्त मंत्रालय को, न ही सरकार को और न ही संसद एवं मीडिया को हुई। पूरा बिकाऊ मीडिया प्रधानमंत्री की भाषा बोलता रहा। यहाँ तक कि बैंकों की लाइन मंे लगे लोगों की दुर्दशा और इस कारण से हुई मौतों पर भी देश का ध्यान नहीं गया। नोट बंदी के दौरान बैंकों की लाइन जिस तरह की असुविधा एवं परेशानी से पुरूषों और महिलाओं को गुजरना पड़ा वह लोकतांत्रिक सरकार के लिए शर्मनाक है, अनेको पीड़ादायक घटनाओं में खजांची का जन्म कानपुर देहात के बैंक की लाइन में हुआ था।
भारत में बेरोजगारी चरम सीमा को पार कर गयी है। देश की जनता को गुमराह करने के लिये यह बताया जा रहा है कि बड़े पैमाने पर लोगों को रोजगार दिया गया है लेकिन निर्माण कार्यों में ठेकेदारांे के नीचे काम कर रहे मजदूरों और फैक्ट्रियों में काम करने वाले मजदूरों जो पूरी तरह से अस्थायी होते हैं। कोई एक महीने काम करता है, कोई दो महीने, कोई छः महीने। उनका प्राॅवीडेन्ट फण्ड काटकर उन्हें कर्मचारी दिखाकर रोजगार पाने वालों की संख्या मंे जोड़ दिया जाता है। अब तो सरकार भी आउटसोर्सिंग के जरिये कम्पनियों के माध्यम से अस्थायी भर्तियां करने लगी है। इस प्रकार जो सरकारी नौकरियां पाने वाले युवा थे, उनके लिये रोजगार के दरवाजे लगभग पूरी तरह बन्द हो गये हैं। बेरोजगारी दिन प्रतिदिन बढ़ती चली जा रही है।
किसी भी सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी और परम कर्तव्य देश की सीमाओं की सुरक्षा का होता है। समाजवादी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी को बहुत अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि हमारे देश की सीमाएं सिकुड़ रहीं हैं। आजादी के समय 1947 में हमारे देश का जितना क्षेत्रफल था उसमें लाखों वर्ग किलोमीटर की कमी आ गयी है। चीन और पाकिस्तान के कब्जे मंे भारत का बहुत बड़ा क्षेत्रफल है लेकिन भारत सरकार उसे वापस लेने के लिये कोई प्रयास नहीं कर रही है।
हमारी विदेश नीति अपने मूल लक्ष्य से भटक गयी है। रूस हमारा सबसे विश्वसनीय मित्र देश था, लेकिन हमारी गलत नीतियों के चलते उसका झुकाव भी पाकिस्तान की तरफ होने लगा है। हमारे सभी पड़ोसी देशों से सम्बन्ध अच्छे नहीं हैं। उन सब पर चीन का प्रभाव है। इसलिये दक्षिण एशिया का शक्ति संतुलन पूरी तरह से चीन के पक्ष मंे हो गया है। हम बिना किसी संकोच के यह कह सकते हैं कि हमारे मित्र देशों की संख्या कम हुई है और शत्रु देशों की संख्या बढ़ी है जबकि सफल विदेश नीति वह होती है जिसमे मित्र देशों की संख्या बढ़े और शत्रुु देशों की संख्या घटे।
भारतवर्ष में कृषि कार्यों पर आयकर नहीं लगता है परन्तु नोट बदलने के क्रम में किसानों, मजदूरों एवं गृहणियों को भी नहीं बख्शा गया। जिनके फलस्वरूप भारत की एक बड़ी श्रमशील आबादी का हाथ खाली हो गया तथा ग्रामीण क्षेत्रों में चलने वाली आर्थिक क्रियाएं मंद पड़ गयीं एवं ग्रामीण क्षेत्रों में पूँजी का निर्माण करने की गति ठहर गयी। विमुद्रीकरण के इस आघात ने अर्थव्यवस्था के सबसे महत्वपूर्ण घटक ''मांग'' को प्रभावित किया और उसके फलस्वरूप औद्योगिक उत्पादन तथा निवेश भी गिरने लगा। इसके साथ ही पूरी बैंकिंग प्रणाली लड़खड़ा गई। बैंकों का एन0पी0ए0 18 प्रतिशत तक पहुँच गया। कई बैंकों को आपस में विलय करना पड़ा तथा जनता की गाढ़ी मेहनत की कमाई जो बैंकों में रखी थी वह अनिश्चितता एवं असुरक्षा की शिकार हो गई। केन्द्र सरकार के गलत निर्णय से नोट बंदी और जीएसटी के कारण यस बैंक डूब गयी, अन्य बैंकों के भी डूबने का संकेत है। यह स्थिति है कि भारत सरकार दुविधा में पड़ी है और इस मंदी से बाहर आने का कोई रास्ता दिखाई नहीं पड़ रहा है। रिजर्व बैंक में कुछ भी रिजर्व नहीं है। सोना पहले ही गिरवी रख दिया था। अब एक लाख पचहत्तर हजार करोड़ रूपया भी निकाल लिया है। सरकार के राजस्व लक्ष्य पूरे नहीं हो पा रहे हैं। सामने अंधेरा है तथा सरकार जनता को भरमाने के लिये हिन्दू मुस्लिम साम्प्रदायिकता का कार्ड खेलने में लगी है। बैंकिंग सिस्टम फेल होने की स्थिति में है।
यह गौरतलब है कि समुचित व्यवस्था होते हुए भी अर्थव्यवस्था का व्यवस्थित विनाश कैसे संभव हुआ और यह किस उद्देश्य से प्रेरित है। यह बड़ी चिंता का विषय है। इन्हीं प्रधानसेवक द्वारा चुनाव के पहले विदेशों में जमा काला धन वापस लाने के दावे किये गये तथा प्रत्येक व्यक्ति को लगभग 15 लाख रू0 खातों में दिये जाने की झाँसे वाली कहानी को जिस तरीके से पीत पत्रकारिता के माध्यम से दबा दिया गया, यह अत्यन्त रोचक विषय है जिस पर विशेष चिंता किये जाने की आवश्यकता है। सरकार एक जीवन्त प्रक्रिया है जो पारदर्शी तरीके से काम करती है तथा ज्यादातर निर्णय जनहित में आम सहमति से लिये जाते हैं। परन्तु अब यह स्पष्ट हो रहा है कि पूरी सरकार तथा उसके नियामक तंत्र एक कठपुतली की भाँति कार्य कर रहे हैं। भारत की समूची लोकतांत्रिक प्रणाली एक कठिन दौर से गुजर रही है जहाँ सवाल पूछने वालांे को देशद्रोही करार दिया जा रहा है और मीडिया इन लोगांे के कंधे से कंधा मिलाकर माहौल बना रहा है। और सच्चाई के मार्ग पर चलने वालों पर प्राणघातक हमले किये जा रहे हैं।
सरकार विशेष तौर पर उन वु़िद्धजीवियों को निशाने पर रखे हुए है जो सरकार से सवाल करते हैं तथा सरकार उनके सवालों से असहज महसूस करती है। सरकारी तंत्र जो कि भ्रष्ट हो रहा है ने कई विश्वविद्यालयों के अध्यापकों तथा अन्य महत्वपूर्ण पदाािकारियों एवं कलाकारों को 'शहरी नक्सलवादी' का दर्जा दिया और जेल में डालने का कार्य किया। क्योंक ये लोग सरकार की मंशा को जनता के बीच उजागर करने का कार्य कर रहे थे। सरकार द्वारा संसद में "Unlawful Activities" एक्ट जल्दीबाजी में पास कराया गया जिससे कि स्वयं के विरोध को दबाया जा सके। और सत्ता निरंकुश होकर देश को बदलने का कार्य कर सके।
सरकार की गलत नीतियों के कारण जो दुष्प्रभाव अर्थव्यवस्था पर पड़े, उससे व्यापारियों तथा उद्योगपतियों का चैकन्ना होना स्वाभाविक भी था। अंतर्राष्ट्रीय संस्था Oxfom द्वारा अवगत कराया गया है भारतवर्ष में गरीब एवं अमीर लोगों के बीच की खाई खतरनाक हद तक बढ़ गयी है। मात्र नौ परिवारों के पास देश की 50 प्रतिशत पूँजी सिमट गयी है तथा 1 प्रतिशत आबादी के पास 73 प्रतिशत पूँजी तथा सम्पत्ति जा चुकी है। इसके दूरगामी परिणाम शीघ्र ही सामने आयेंगे। सरकार की अनुकम्पा पर जीने वाले कई नामचीन उद्योगपति राष्ट्रीयकृत बैंकों की हजारों करोड़ की पूँजी लेकर विदेश भाग चुके हैं। उन्हें कानूनी कार्यवाही करके वापस लाने मंे सरकार लाचार दिखाई पड़ रही है। परन्तु कई प्रतिष्ठित पॅूजीपतियों द्वारा सरकारी निर्णयों और प्रक्रियाओं पर सवाल सार्वजनिक किये जाने पर आयकर विभाग तथा ईडी द्वारा विशेष छापे मारे गये ताकि विरोध के स्वर दबाये जा सकें। इसका भी दुष्परिणाम यह हुआ कि हजारों की तादाद में उद्योगपति तथा विद्वान देश छोड़कर एन0आर0आई0 बन गये हैं और उन्होंने पूँजी निवेश देश के बाहर कर दिये हैं।
इस बदलते हुए भारत की दशा क्या है और क्यों है? आज यह सवाल सबके मन में जाना चाहिये। देश की आबादी लगभग 130 करोड़ पहुँच चुकी है। इसमें लगभग 85 प्रतिशत युवा हैं जो कि देश का भविष्य हैं। ये ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में निवास करते हैं तथा सभी जातियों, वर्गों एवं समुदायों से हैं। इनका भविष्य सुनिश्चित करना देश का कर्तव्य है। ये स्वस्थ हों, शिक्षित हों, चरित्रवान हों, हुनरमन्द हों, आत्मनिर्भर बनें तथा देश को आगे बढ़ायें। इन परिस्थितियों पर गम्भीरता से विचार होना चाहिये। धार्मिक उन्माद, छल, प्रपंच, तिकड़म और झूठ के सहारे बनी हुई इस सरकार ने नौजवानों के साथ बहुत बड़ा धोखा किया है। उन्हें एक बेहतर मानव संसाधन बनाने की बजाय उन्हें विभाजित करने का और आपस मंे लड़ाने का कार्य किया है और हताशा के गर्त में डुबाने का काम किया है। सरकार स्वयं भी अर्थव्यवस्था को डुबोने में लगी हुई है। यही मानव संसाधन देश को लाचारी एवं ऋणग्रस्तता से बाहर निकालने की क्षमता रखता है। परन्तु यह सरकार की प्राथमिकता से बाहर है। विदेशी कर्जदारों के दबाब में सरकारी नीतियां बदली जा रहीं हैं और Ease of doing bussiness के दबाब में भारत की श्रमशक्ति को जिसमंे महिलाएं भी शामिल हैं, उन्हें ज्यादा से ज्यादा लाचार और असुरक्षित किया जा रहा है। सारे श्रम कानूनों को इस तरह से बदला जा रहा है कि श्रम शोषण आसानी से किया जा सके। तथा उनकी मदद में खड़ी होने वाली श्रम संगठनों तथा राजनीतिक पार्टियों को कमजोर करने के लिये उपक्रम किये जा रहे हैं। इसके लिये पीत पत्रकारिता, भ्रष्ट नौकरशाही, भ्रष्ट पूँजीपति तथा अनौचित्यपूर्ण कानूनों इत्यादि हर चीज का सहारा लिया जा रहा है। जो महिलाएं आगे बढ़कर आत्मनिर्भर बनने का प्रयास कर रहीं हैं उन्हें अच्छा माहौल नहीं मिल पा रहा है। महिलाओं के खिलाफ यौन अपराध रिकार्ड तोड़ रहे हैं तथा उन्हें हतोत्साहित करने के लिये सरकारी संरक्षण में पलने वाले भगवाधारियों द्वारा भाँति-भाँति के बेतुके बयान दिये जा रहे हैं। जो सरकार बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ का नाटक बड़े पैमाने पर कर रही है वह इन पाखण्डिों पर कोई लगाम नहीं लगा रही है।
भारत सरकार का बजटीय आवंटन भी गौरतलब है। समाज के लगभग 90 प्रतिशत संघर्षशील दलित, पिछड़े तथा आदिवासियों के लिये कुल बजट में सिर्फ 4.73 प्रतिशत समर्पित बजट का प्रावधान किया गया है तथा 10 प्रतिशत लोग जो सक्षम हैं उनके लिये 95.28 प्रतिशत बजटीय प्रावधान रखे गये हैं। कई उपक्रम बन्द हो रहे है, नौकरियां समाप्त हो रहीं हैं। शिक्षा पर तथा स्वास्थ्य पर बजट कम किया जा रहा हैं। बेरोजगारी चरम पर है अब तो सरकार ने आँकड़ा रखना भी छोड़ दिया है। इन परिस्थितियों को बहुत गौर से देखकर विचार करने की जरूरत है।
किसी भी देश की अर्थव्यवस्था जब खराब होती है तो स्वाभाविक रूप से गरीबी अपना आकार बढ़ाने लगती है। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि ग्लोबल हंगर इन्डेक्स में कुल 117 देशों में भारत 102वें नम्बर पर है। खाद्यान्न के मामले मेें प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष उपलब्धता 1961 से भी खराब हो गयी है । स्मरण रहे कि 1960-61 में देश में भुखमरी जैसी स्थिति पैदा हो गयी थी। उस वर्ष भी सरकारी ऑकड़ों के अनुसार चावल की उपलब्धता 73.4 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष, अन्य अनाज 43.6 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष और दालें 25.2 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष उपलब्ध थीं, जबकि 2017 में यह उपलब्धता चावल की 66.8 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष, अन्य अनाजों की 29.4 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष और दालें 20 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष उपलब्ध थी। अर्थात् 1961 की तुलना मंे 2017 में चावल, मोटा अनाज और दालों की उपलब्धता कम हो गयी है।
बिजली की खपत प्रति व्यक्ति जिस देश में ज्यादा होती है वह देश उतना ही ज्यादा सम्पन्न होता है। अमेरिका मेें प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष बिजली की खपत 12962 किलोवाट ऑवर, कोरिया में 10556 किलोवाट आॅवर, आस्टेªलिया मंे 10002 किलोवाट ऑवर, जर्मनी में 7035 किलोवाट ऑवर, रूस में 6603 किलोवाट ऑवर, चीन मेें 3927 किलोवाट ऑवर और भारत में 1010 किलोवाट ऑवर है। एक तरफ भारत सरकार दुनियां की पाॅच बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में होने का दम भरती है वहीं दूसरी तरफ ग्लोबल हंगर इन्डैक्स खाद्यान्न की उपलब्धता और बिजली की खपत यह दर्शाती है कि हम दुनियां के छोटे-छोटे देशों की अर्थव्यवस्था से भी पीछे हैं।
जहाँ तक आयात और निर्यात का प्रश्न है। 2014 से लेकर अब तक भारत का टे्ड बैलेंस लगातार निगेटिव है। 2014-15 में भारत का निर्यात 310339 मिलियन अमेरिकन डालर था और आयात 448033 मिलियन अमेरिकन डालर था और वर्ष 2018-19 में निर्यात 238892 मिलियन अमेरिकन डालर और आयात 361914 मिलियन अमेरिकन डालर था। व्यापार में लगातार घाटा हमारी अर्थनीति की असफलता का द्योतक है। इसी तरह अगर हम दुनियां के प्रमुख देशों के व्यक्तियों की पर कैपीटा इनकम प्रतिवर्ष देखें तो स्थिति बिल्कुल साफ हो जायेगी। भारत मंे प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष आय 2020 अमेरिकन डालर, श्रीलंका में 4060 अमेरिकन डालर, चीन में 9470 अमेरिकन डालर, रूस में 10230 अमेरिकन डालर, इंग्लैण्ड में 41340 अमेरिकन डालर और अमेरिका में 62850 अमेरिकन डालर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष आय है। इसके बावजूद हमारे शासक अमेरिका और चीन के बाद भारत को दुनियां की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बताने में कतई संकोच नहीं करते हैं।
सच बात यह है कि हमारी अर्थव्यवस्था पूरी तरह पटरी से उतर चुकी है, बैंकें दिवालिया होने के कगार पर हैं और इस बात की आशंका है कि केन्द्र सरकार कुछ दिनों बाद अपने कर्मचारियों को वेतन देने की स्थिति में भी नहीं होगी।
कृषि क्षेत्र में लगभग 68 प्रतिशत आबादी की निर्भरता है परन्तु जीडीपी मंे इसका हिस्सा लगभग 12 प्रतिशत है। कृषि क्षेत्र में वृद्धि न हो पाने के कारण किसान बर्बाद हो रहे हैं, आत्महत्या कर रहे हैं। बाहर से कृषि उत्पादों का आयात निरन्तर बढ़ रहा है जिसका सीधा असर भारत के किसानों पर पड़ रहा है। भारत ने कृषि अनुसधान पर खर्च करना कम कर दिया है इसलिये नये या अच्छी गुणवत्ता पूर्ण बीजों की उपलब्धता गिर रही है। विदेशी कम्पनियां इसलिये हाईब्रिड बीज ऊँची कीमतांे पर बेच रहीं हैं। किसानों को एम0एस0पी0 नहीं मिल पा रही है। कृषि सैक्टर जो आज भी 60 फीसदी से ज्यादा लोगों को रोजगार देता है उसकी स्थिति निरन्तर निराशाजनक होती जा रही है। किसानों को लगातार घाटा होने से पूरे देश में निरन्तर किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं।
आज राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में हो रही है। इस लिए उत्तर प्रदेश के विषय में कुछ चर्चा आवश्यक है। उत्तर प्रदेश में भाजपा की डबल इंजन सरकार के तीन वर्ष पूर्ण हो रहे है परन्तु इस बीच प्रदेश की सरकार केवल समाज में नफरत की राजनीति करती रही। समाज में जातियों को तोड़ने तथा चुस्त प्रशासन के नाम पर पुलिस के माध्यम से भय एवं दहशत का वातावरण पैदा किया है। प्रदेश की विज़न एवं दिशाहीन भाजपा सरकार प्रदेश की जनता की समस्याओं एवं उनके दुखदर्द को बांटने में विफल रही है। समाजवादी पार्टी की सरकार के समय श्री अखिलेश यादव जी के मुख्यमंत्रित्व काल में जो उच्चकोटि के जनहित के विकास कार्य हुये थे उनके नाम बदलकर जनता को धोखा देने का कार्य किया जा रहा है। प्रदेश की जनता को त्वरित सुरक्षा प्रदान करने वाली यूपी डायल 100 सेवा को ही 112 नम्बर में बदलकर जनता को गुमराह करना चाहती है। तीन वर्षाें में भाजपा सरकार द्वारा कोई उल्लेखनीय विकास कार्य नहीं किये गए जिनका उल्लेख किया जा सके।
उत्तर प्रदेश में भाजपा राज में कानून व्यवस्था एक मजाक बनकर रह गई है। महिलाएं एवं बच्चियां सभी असुरक्षित हैं। हत्या, लूट, बलात्कार की घटनाएं थम नहीं रही है। अपराधी बेखौफ हैं। न्याय मांगने पर लाठियां मिलती हैं। अपराध नियंत्रण में अपनी असफलता छुपाने के लिए लगातार फर्जी एनकाउण्टर किए जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश हत्या प्रदेश बनता जा रहा है। प्रदेश का किसान बदहाल है। सैकड़ों किसान भुखमरी एवं कर्ज के बोझ में दबकर आत्महत्या कर चुके हैं। राज्य में भाजपा सरकार जब से पदारूढ़ हुई है तभी से भाजपा की राजनीति वैमन्यसता, रागद्वेष की है। भाजपा की नफरत की राजनीति का परिणाम है कि समाजवादी पार्टी के नेताओं एवं कार्यकर्ताआंे का उत्पीड़न योजनाबद्ध तरीको से किया जा रहा है। मो0 आज़म खां वरिष्ठ नेता नौ बार विधायक एवं कैबिनेट मंत्री पद पर रहे हैं और वर्तमान सांसद लोकसभा हैं उनको भाजपा सरकार द्वारा जिस तरह अपमानित किया जा रहा है और फ�