Watch Video~ विजयादशमी उत्सव पर सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत का उद्बोधन
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, नागपुर महानगर द्वारा आयोजित विजयादशमी उत्सव में सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत का उद्बोधन
नागपुर । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा आयोजित श्री विजयादशमी उत्सव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने सम्बोधित करते हुए कहा देश की संसद में नागरिकता अधिनियम संशोधन कानून पूरी प्रक्रिया को लागू करते हुए पारित किया गया। कुछ पड़ोसी देशों से सांप्रदायिक कारणों से प्रताड़ित होकर विस्थापित किए जाने वाले बन्धु, जो भारत में आएंगे, उनको मानवता के हित में शीघ्र नागरिकता प्रदान करने का यह प्रावधान था। उन देशों में साम्प्रदायिक प्रताड़ना का इतिहास है। भारत के इस नागरिकता अधिनियम संशोधन कानून में किसी संप्रदाय विशेष का विरोध नहीं है। भारत में विदेशों से आने वाले अन्य सभी व्यक्तियों को नागरिकता दिलाने के कानूनी प्रावधान, जो पहले से अस्तित्व में थे, यथावत् रखे गए थे। परन्तु कानून का विरोध करना चाहने वाले लोगों ने अपने देश के मुसलमान भाइयों के मन में उनकी संख्या भारत में मर्यादित करने के लिए यह प्रावधान है ऐसा भर दिया। उसको लेकर जो विरोध प्रदर्शन आदि हुए उनमें ऐसे मामलों का लाभ उठाकर हिंसात्मक तथा प्रक्षोभक तरीके से उपद्रव उत्पन्न करने वाले तत्त्व घुस गए। देश का वातावरण तनावपूर्ण बन गया तथा मनों में साम्प्रदायिक सौहार्द पर आँच आने लगी। इससे उबरने के उपाय का विचार पूर्ण होने के पहले ही कोरोना की परिस्थिति आ गई, और माध्यमों की व जनता की चर्चा में से यह सारी बातें लुप्त हो गईं। उपद्रवी तत्त्वों द्वारा इन बातों को उभार कर विद्वेष व हिंसा फैलाने के षड्यंत्र पृष्ठभूमि में चल रहे हैं।
अपने समाज की एकरसता का, सहज करुणा व शील प्रवृत्ति का, संकट में परस्पर सहयोग के संस्कार का, जिन सब बातों को सोशल कैपिटल ऐसा अंग्रेजी में कहा जाता है, उस अपने सांस्कृतिक संचित सत्त्व का सुखद परिचय इस संकट में हम सभी को मिला। स्वतंत्रता के बाद धैर्य, आत्मविश्वास व सामूहिकता की यह अनुभूति अनेकों ने पहली बार पाई है। समाज के उन सभी सेवाप्रेमी नामित, अनामिक, जीवित या बलिदान हो चुके बंधु भगिनियों का, चिकित्सकों का, कर्मचारियों का, समाज के सभी वर्गों से आने वाले सेवा परायण घटकों को श्रद्धापूर्वक शत शत नमन है। वे सभी धन्य है। सभी बलिदानियों की पवित्र स्मृति में हमारी हार्दिक श्रद्धांजलि है।
विजयादशमी उत्सव https://t.co/BORoDvsQNX
— RSS (@RSSorg) October 25, 2020
सम्पूर्ण विश्व में ही अंतर्मुख होकर विचार करने का नया क्रम चला है। एक शब्द बार-बार सुनाई देता है, "न्यू नॉर्मल।" कोरोना महामारी की परिस्थिति के चलते जीवन लगभग थम सा गया। कई नित्य की क्रियाएं बंद हो गईं। उनको देखते हैं तो ध्यान में आता है कि जो कृत्रिम बातें मनुष्य जीवन में प्रवेश कर गई थीं, वे बंद हो गईं और जो मनुष्य जीवन की शाश्वत आवश्यकताएं हैं, वास्तविक आवश्यकताएं हैं, वे चलती रहीं। कुछ कम मात्रा में चली होंगी, लेकिन चलती रहीं। अनावश्यक और कृत्रिम वृत्ति से जुड़ी हुई बातों के बंद होने से एक हफ्ते में ही हमने हवा में ताजगी का अनुभव किया। झरने, नाले, नदियों का पानी स्वच्छ होकर बहता हुआ देखा। खिड़की के बाहर बाग-बगीचों में पक्षियों की चहक फिर से सुनाई देने लगी। अधिक पैसों के लिए चली अंधी दौड़ में, अधिकाधिक उपभोग प्राप्त करने की दौड़ में हमने अपने आपको जिन बातों से दूर कर लिया था, कोरोना परिस्थिति के प्रतिकार में वही बातें काम की होने के नाते हमने उनको फिर स्वीकार कर लिया और उनके आनंद का नए सिरे से अनुभव लिया। उन बातों की महत्ता हमारे ध्यान में आ गई। नित्य व अनित्य, शाश्वत और तात्कालिक, इस प्रकार का विवेक करना कोरोना की इस परिस्थिति ने विश्व के सभी मानवों को सिखा दिया है। संस्कृति के मूल्यों का महत्त्व फिर से सबके ध्यान में आ गया है।
महामारी के संदर्भ में चीन की भूमिका संदिग्ध रही यह तो कहा ही जा सकता है, परंतु भारत की सीमाओं पर जिस प्रकार से अतिक्रमण का प्रयास अपने आर्थिक सामरिक बल के कारण मदांध होकर उसने किया वह तो सम्पूर्ण विश्व के सामने स्पष्ट है। भारत का शासन, प्रशासन, सेना तथा जनता सभी ने इस आक्रमण के सामने अड़ कर खड़े होकर अपने स्वाभिमान, दृढ़ निश्चय व वीरता का उज्ज्वल परिचय दिया, इससे चीन को अनपेक्षित धक्का मिला लगता है। इस परिस्थिति में हमें सजग होकर दृढ़ रहना पड़ेगा। चीन ने अपनी विस्तारवादी मनोवृत्ति का परिचय इसके पहले भी विश्व को समय-समय पर दिया है। आर्थिक क्षेत्र में, सामरिक क्षेत्र में, अपनी अंतर्गत सुरक्षा तथा सीमा सुरक्षा व्यवस्थाओं में, पड़ोसी देशों के साथ तथा अंतरराष्ट्रीय संबंधों में चीन से अधिक बड़ा स्थान प्राप्त करना ही उसकी राक्षसी महत्त्वाकांक्षा के नियंत्रण का एकमात्र उपाय है। इस ओर हमारे शासकों की नीति के कदम बढ़ रहे हैं ऐसा दिखाई देता है। श्रीलंका, बांग्लादेश, ब्रह्मदेश, नेपाल ऐसे हमारे पड़ोसी देश, जो हमारे मित्र भी हैं और बहुत मात्रा में समान प्रकृति के देश हैं, उनके साथ हमें अपने सम्बन्धों को अधिक मित्रतापूर्ण बनाने में अपनी गति तीव्र करनी चाहिए। इस कार्य में बाधा उत्पन्न करने वाले मनमुटाव, मतान्तर, विवाद के मुद्दे आदि को शीघ्रतापूर्वक दूर करने का अधिक प्रयास करना पड़ेगा।
संघ के बारे में भ्रम का निर्माण न हो, इसीलिए संघ कुछ शब्दों का उपयोग क्यों करता है अथवा कुछ प्रचलित शब्दों को किस अर्थ में समझता है, यह जानना आवश्यक है। हिन्दुत्व ऐसा ही एक शब्द है, जिसके अर्थ को पूजा से जोड़कर संकुचित किया गया है। संघ की भाषा में उस संकुचित अर्थ में उसका प्रयोग नहीं होता। वह शब्द अपने देश की पहचान को, अध्यात्म आधारित उसकी परंपरा के सनातन सातत्य तथा समस्त मूल्य सम्पदा के साथ अभिव्यक्ति देने वाला शब्द है। इसलिए संघ मानता है कि यह शब्द भारतवर्ष को अपना मानने वाले, उसकी संस्कृति के वैश्विक व सर्वकालिक मूल्यों को आचरण में उतारना चाहने वाले, तथा यशस्वी रूप में ऐसा करके दिखाने वाली उसकी पूर्वज परम्परा का गौरव मन में रखने वाले सभी 130 करोड़ समाज बन्धुओं पर लागू होता है। उस शब्द के विस्मरण से हमको एकात्मता के सूत्र में पिरोकर देश व समाज से बाँधने वाला बंधन ढीला होता है। इसीलिए इस देश व समाज को तोड़ना चाहने वाले, हमें आपस में लड़ाना चाहने वाले, इस शब्द को, जो सबको जोड़ता है, अपने तिरस्कार व टीका टिप्पणी का पहला लक्ष्य बनाते हैं। इससे कम व्याप्ति वाले शब्द जो हमारी अलग-अलग विशिष्ट छोटी पहचानों के नाम हैं तथा हिन्दू इस शब्द के अंतर्गत पूर्णतः सम्मानित व स्वीकार्य है, समाज को तोड़ना चाहने वाले ऐसे लोग उन विविधताओं को अलगाव के रूप में प्रस्तुत करने पर जोर देते हैं। हिन्दू किसी पंथ, सम्प्रदाय का नाम नहीं है, किसी एक प्रांत का अपना उपजाया हुआ शब्द नहीं है, किसी एक जाति की बपौती नहीं है, किसी एक भाषा का पुरस्कार करने वाला शब्द नहीं है। वह इन सब विशिष्ट पहचानों को कायम स्वीकृत व सम्मानित रखते हुए, भारत भक्ति के तथा मनुष्यता की संस्कृति के विशाल प्रांगण में सबको बसाने वाला, सब को जोड़ने वाला शब्द है। इस शब्द पर किसी को आपत्ति हो सकती है। आशय समान है तो अन्य शब्दों के उपयोग पर हमें कोई आपत्ति नहीं है। परन्तु इस देश की एकात्मता के व सुरक्षा के हित में, इस हिन्दू शब्द को आग्रहपूर्वक अपनाकर, उसके स्थानीय तथा वैश्विक, सभी अर्थों को कल्पना में समेटकर संघ चलता है। संघ जब 'हिन्दुस्थान हिन्दू राष्ट्र है' इस बात का उच्चारण करता है तो उसके पीछे कोई राजनीतिक अथवा सत्ता केंद्रित संकल्पना नहीं होती। अपने राष्ट्र का 'स्व' त्व हिंदुत्व है। समस्त राष्ट्र जीवन के सामाजिक, सांस्कृतिक, इसलिए उसके समस्त क्रियाकलापों को दिग्दर्शित करने वाले मूल्यों का व उनकी व्यक्तिगत, पारिवारिक, व्यवसायिक और सामाजिक जीवन में अभिव्यक्ति का, नाम हिन्दू इस शब्द से निर्दिष्ट होता है। उस शब्द की भावना की परिधि में आने व रहने के लिए किसी को अपनी पूजा, प्रान्त, भाषा आदि कोई भी विशेषता छोड़नी नहीं पड़ती। केवल अपना ही वर्चस्व स्थापित करने की इच्छा छोड़नी पड़ती है। स्वयं के मन से अलगाववादी भावना को समाप्त करना पड़ता है। वर्चस्ववादी सपने दिखाकर, कट्टरपंथ के आधार पर, अलगाव को भड़काने वाले स्वार्थी तथा द्वेषी लोगों से बच कर रहना पड़ता है।
स्वावलम्बन में स्व का अवलम्बन अभिप्रेत है। हमारी दृष्टि के आधार पर हम अपने गंतव्य तथा पथ को निश्चित करते हैं। दुनिया जिन बातों के पीछे पड़ कर व्यर्थ दौड़ लगा रही है, उसी दौड़ में हम शामिल होकर पहले क्रमांक पर आते हैं तो इसमें पराक्रम और विजय निश्चित है। परन्तु स्व का भान व सहभाग नहीं है। उदाहरणार्थ कृषि नीति का हम निर्धारण करते हैं, तो उस नीति से हमारा किसान अपने बीज स्वयं बनाने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए। हमारा किसान अपने को आवश्यक खाद, रोगप्रतिकारक दवाइयाँ व कीटनाशक स्वयं बना सके या अपने गाँव के आस-पास पा सके यह होना चाहिए। अपने उत्पादन का भंडारण व संस्करण करने की कला व सुविधा उसके निकट उपलब्ध होनी चाहिए। हमारा कृषि का अनुभव गहरा व्यापक व सबसे लम्बा है। इसलिये उसमें से कालसुसंगत, अनुभवसिद्ध, परंपरागत ज्ञान तथा आधुनिक कृषि विज्ञान से देश के लिये उपयुक्त व सुपरीक्षित अंश, हमारे किसान को अवगत कराने वाली नीति हो। वैज्ञानिक निरीक्षण तथा प्रयोगों को अपने लाभ की सुविधा के अनुसार परिभाषित करते हुए, नीतियों को प्रभावित करके लाभ कमाने के कार्पोरेट जगत के चंगुल में न फँसते हुए, अथवा बाजार या मध्यस्थों की जकड़न के जाल से अप्रभावित रहकर, अपना उत्पादन बेचने की उसकी स्थिति बननी चाहिए। तब वह नीति भारतीय दृष्टि की यानि स्वदेशी कृषि नीति मानी जाएगी। यह काम आज की प्रचलित कृषि व आर्थिक व्यवस्था में त्वरित हो ना सके यह संभव है, उस स्थिति में कृषि व्यवस्था व अर्थव्यवस्था को इन बातों के लिए अनुकूलता की ओर ले जाने वाली नीति होनी पड़ेगी, तब वह स्वदेशी नीति कहलाएगी।