तमिल सियासत में रजनीकांत

यह बात गौर करने वाली है कि बीजेपी तमिलनाडु की राजनीति में प्रवेश के लिए रास्ता तैयार करने में जुटी है।

Update: 2020-12-05 02:06 GMT

चेन्नई। दक्षिण भारत की राजनीति उत्तर और मध्य भारत की राजनीति से अलग है। दक्षिण भारत में विशेष रूप से तमिलनाडु में स्थानीय पार्टियों का ही दबदबा रहा है। द्रविड़ संस्कृति के नाम पर राजनीति होती है। यहां द्रविड़ मुन्नेत्र कझगम (द्रमुक) और अन्ना मुन्नेत्र कझगम (अन्नाद्रमुक) के पास ही राजनीतिक सत्ता रहती है। अन्नाद्रमुक नेता जे जयललिता का निधन हो गया तो एकबार लगा कि पार्टी बिखर जाएगी लेकिन पन्नीरसेल्वम और पलानीस्वामी ने उसे संभाल लिया। मौजूदा समय में ये लोग ही सरकार चला रहे हैं। उधर, अन्नाद्रमुक की मुख्य प्रतिद्वंद्वी द्रमुक के नेता एम करुणानिधि का भी निधन हो गया। उनके दोनों बेटों में भी मतभेद है। छोटे बेटे एम स्टालिन को करुणानिधि ने बिरासत सौंपी थी और स्टालिन ने बेहतर ढंग से उसे संभाला भी है। तमिलनाडु में चुनाव की सरगर्मियां बढ़ गई हैं। इन्हीं खबरों के बीच तमिल सिनेमा के थलाइवा माने जाने वाले रजनीकांत ने भी सियासी एंट्री की घोषणा कर दी है। खास बात यह है कि रजनीकांत तमिलनाडु विधानसभा चुनाव से महज 5 महीने पहले अपनी पार्टी का सियासी डेब्यू कराने जा रहे हैं। इसके अलावा राज्य के दूसरे बड़े खिलाड़ी स्वर्गीय एम करुणानिधि के बेटे स्टालिन की पार्टी डीएमके कांग्रेस के साथ सियासी रण में उतर सकती है, हालांकि इसका ऐलान होना बाकी है। वहीं, सत्तारूढ़ एआईएडीएमके ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा ) के साथ आगामी चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है। यह बात गौर करने वाली है कि बीजेपी तमिलनाडु की राजनीति में प्रवेश के लिए रास्ता तैयार करने में जुटी है।

पिछले 10 साल से एआईएडीएमके सत्ता में है। ऐसे में उसे आगामी चुनाव में सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ सकता है। जाहिर है ऐसे में अन्नाद्रमुक के खिलाफ पड़ने वाले वोट डीएमके की झोली में जा सकते हैं। लेकिन अगर चुनाव में दूसरे दल मजबूत होंगे, तो सत्ता विरोधी वोट का बंटना तय है। ऐसे में रजनीकांत और कमल हासन की पार्टियां डीएमके को ज्यादा नुकसान पहुंचा सकती हैं। बीजेपी नेतृत्व वाले एनडीए को रजनीकांत के एंट्री करने से फायदे की गुंजाइश ज्यादा है।

फिलहाल, अभी तो ये सब कयास हैं और इसी आधार पर मोदी और अमितशाह कह सकते हैं कि तमिलनाडु में अपनी जगह बनाने की कोशिश हो रही है। बीजेपी के लिए रजनीकांत का चुनाव लड़ना फायदेमंद साबित हो सकता है क्योंकि काफी समय से रजनीकांत के प्रशंसकों का एक बड़ा वर्ग बीजेपी का समर्थक भी नजर आ रहा था। करीब 16 साल पहले भी रजनी कांत के फैन एसोसिएशन ने रामदौस के रजनी के खिलाफ आए बयान के बाद बीजेपी का समर्थन करने की बात कही थी। इसलिए तमिलनाडु में अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रही बीजेपी के लिए रजनीकांत का चुनाव लड़ना फायदेमंद साबित हो सकता है।

तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता और डीएमके के प्रमुख रहे एम करुणानिधि के निधन के बाद राज्य की राजनीति में खालीपन लगता है। ऐसा माना जाता रहा है कि इनके बाद तमिल इलाकों में रजनीकांत के अलावा किसी और की मान्यता इस कदर नजर नहीं आती है। हालांकि, सभी पार्टियों का यही मानना होगा कि रजनीकांत के पास प्रशंसकों का एक बड़ा तबका है, जिसका उन्हें चुनाव में फायदा होगा, जबकि, कुछ चुनावी जानकार मानते हैं कि रजनीकांत छोटी पार्टियों के अलावा किसी को बड़ा नुकसान नहीं पहुंचा पाएंगे। रजनीकांत के प्रशंसक भले ही बड़ी संख्या में हैं, लेकिन राजनीति में लोग उन्हें कितना पसंद करेंगे, यह कहना मुश्किल होगा। साल 2008 का उदाहरण लेते हैं, जब सुपरस्टार चिरंजीवी ने भी चुनावी पारी की शुरुआत की कोशिश आंध्रप्रदेश से की थी। शुरुआत हुई भी, लेकिन स्टार स्टेटस का फायदा उम्मीद जितना नहीं मिला। राज्य की 295 सीटों पर लड़ी चिरंजीवी की पार्टी प्रजा राज्यम18 सीटों पर सिमट कर रह गई। इतना ही नहीं दो सीटों पर लड़ने वाले चिरंजीवी खुद एक ही जगह से जीत पाए। अंत में उन्हें कांग्रेस के साथ हाथ मिलाना पड़ा था।

रजनीकांत के मजबूत इलाकों में से एक वेल्लूर है। यहां पर नोट के बदले वोट के मामले सामने आते हैं। धनबल का क्षेत्र है। पहले यहां पर चुनाव अधिकारियों ने डीएमके कार्यकर्ता काथिर आनंद के पास से 11।53 करोड़ रुपये इसी संदर्भ में बरामद किए थे। वहीं, वेल्लूर में अंबूर और वनियमबाड़ी जैसे मुस्लिम प्रभाव वाले इलाकों में मामला डीएमके की तरफ जा सकता है। वहीं, मुदलियार अन्नाद्रमुक के हिस्से में मतदान कर सकते हैं।मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि संघ के समर्थक एस गुरुमूर्ति ने हाल ही में रजनीकांत से मुलाकात की थी। माना जा रहा है कि गुरुमूर्ति ने रजनीकांत के राजनीति से दूर रहने के फैसले पर एक बार फिर विचार करने के लिए कहा था। बीजेपी हमेशा से चाहती है कि रजनीकांत उनका समर्थन करें, ताकि द्रविड़ वोटबैंक में भगवा दल को भी जगह मिल सके। खास बात है कि चेन्नई दौरे पर पहुंचे गृहमंत्री अमित शाह ने रजनीकांत से मुलाकात नहीं की थी। हालांकि गुरुमूर्ति ने शाह से चर्चा की थी। ऐसा माना जा रहा है कि रजनीकांत का मैसेज बीजेपी तक पहुंच गया है।

साल 2016 में हुए तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया जैसी बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां अपना खाता भी नहीं खोल पाईं थीं जबकि, इस चुनाव में 234 सीटों पर लड़ने वाली एआईएडीएमके ने 135 सीटों पर जीत हासिल की थी। उसकी करीबी प्रतिद्वंद्वी पार्टी डीएमके रही थी। डीएमके ने 180 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिसमें 88 सीटें अपने नाम की थीं। इसबार 2019 के लोकसभा चुनाव में स्टालिन की पार्टी द्रमुक ने बाजी मार ली और उसके साथ कांग्रेस की भी दक्षिण भारत में धाक जमी रही। यह एक राजनीतिक सच है कि तमिलनाडु की राजनीति में वर्तमान समय में द्रविड़ दलों का प्रभुत्व है तथा द्रविड़ मुन्नेत्र कझगम (डीएमके) और ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कझगम (एआईएमडीएमके) यहाँ के प्रमुख राजनीतिक दल हैं। भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस तीसरा प्रमुख दल है और अन्य छोटे दल भी यहाँ की राजनीति का हिस्सा हैं। यहां पर न तो राम मंदिर का प्रभाव है और न मोदी का जादू ही चला है। गत वर्ष बीजेपी सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री सत्यपाल सिंह ने कहा था कि भारत में मनुष्यों का हमेशा सम्मान रहा है और हम सब तो ऋषियों की संतान हैं। पिछली सरकार में मानव संसाधन राज्य मंत्री रहते हुए भी सत्यपाल सिंह मानव विकास यानी इवोल्यूशन की डार्विन की थ्योरी को खारिज कर चुके थे। इस प्रकार भाजपा नेता ने ईश्वरवाद की बात कही थी। इसके जवाब में डीएमके सांसद कनिमोढ़ी ने कहा था लेकिन मेरे पुरखे ऋषि नहीं थे। वे साधारण इंसान (होमो सेपियन) थे। वे शूद्र थे। हम न तो किसी देवता से पैदा हुए हैं और न उनके शरीर के किसी हिस्से से। हम यहां सामाजिक न्याय के आंदोलन और मानवाधिकारों के लिए चलाए गए संघर्षों की वजह से आए हैं। कनिमोढ़ी की इस टिप्पणी में शायद इस सवाल का जवाब है कि बीजेपी के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा तमिलनाडु जाकर क्यों रुक जाता है। साल 2019 का जनादेश भारतीय जनता पार्टी के लिए विभिन्न दृष्टिकोणों से ऐतिहासिक रहा। पहली बार किसी गैर-कांग्रेस पार्टी ने पांच साल के पूर्ण कार्यकाल के बाद प्रचंड बहुमत से लगातार दूसरा कार्यकाल जीता लेकिन दक्षिण भारत में उसकी विजय पताका अब तक नहीं लहराई है। आगामी साल दक्षिण भारत के राज्यों में विधान सभा चुनाव होने है और राजनीति के नये समीकरण भी बन रहे हैं। इन समीकरणों से किसका बेहतर तालमेल बनेगा, अभी कहना मुश्किल है। (हिफी)

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