योगी सरकार की योजना है कि मदरसों में हिंदी और अंग्रेज़ी के साथ-साथ विज्ञान, भूगोल, गणित आदि सहित व्यावसायिक शिक्षा भी दी जाए और यूपी के 19 हजार 213 मदरसों के छात्रों कि छात्र वृत्ति भी जारी किया जाए lसरकार की नीयत में गो कि मनोभ्रंश हो लेकिन घटना यह है कि इस फैसले के कार्यान्वयन अगर बेहतरीन ढंग से हो गया तो चन्द वर्षों के बाद मदरसों से ऐसे ग्रेजुएट निकल पाएँगे जो दीनी दुनियावी दोनों अध्ययन से लैस होंगे और वह इस ज़माने के भावनाओं के मद्दे नज़र इस्लाम की व्याख्या करने पर भी समर्थ हों गे। हमारे यहाँ प्रायः शिकायत किया जाता है कि उपयोगी व्यक्ति नहीं मिल रहे, इसकी एक बड़ी वजह यही मदरसों के पाठ्यक्रम है। आप इतिहास पढ़ें, उपमहाद्वीप में '' दीनी मदरसे'' की कल्पना सबसे पहले अंग्रेज़ गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स ने पेश किया और उसने पहले दीनी मदरसा के तौर पर 1781 में कलकत्ता में '' कलकत्ता मदरसा '' स्थापित किया। अंग्रेज़ सरकार ने पूरे देश के मुसलमानों को इस बात के लिए बाध्य किया कि मदरसों में अब केवल धार्मिक शिक्षा ही पढ़ाए जाएं। यह मदरसा स्थापित करने से पहले अंग्रेज़ सरकार ने 1757 से मुसलमानों के सभी धार्मिक संस्थानों पर प्रतिबंध लगा दिया l 1757 तक इन दीनी मदरसों में धार्मिक शिक्षा के साथ दुनियावी अध्ययन भी पढ़ाए जाते थे। कुरआन व सुन्नत और फिकह पर आधारित ज्ञान व कला के अलावा जिन अध्ययन की शिक्षण होती थी उनमें चिकित्सा का ज्ञान,औषधि का ज्ञान, गणित, भौतिकी का ज्ञान, खगोल विज्ञान, रसायन विज्ञान,दर्शन का ज्ञान,इतिहास का ज्ञान,संगीत का ज्ञान और मुनाजरा के ज्ञान के अलावा और भी कई तरह के अध्ययन शामिल थे यही कारण था कि इन मदरसों से निकलने वाले ग्रेजुएट दीनी और दुनियावी अध्ययन में माहिर समझे जाते थे। यह प्रणाली पूरे उपमहाद्वीप में लागू था और आप को हैरत होगी कि उस समय उपमहाद्वीप में 95प्रतिशत साक्षरता थी। साक्षरता दर मतलब यह कदापि मत समझिये कि उस समय के उपमहाद्वीप का इंसान अपना नाम लिखना और पढ़ना जानता था बल्कि उस समय प्रचलित सिक्का फ़ारसी भाषा पर उस की अच्छी पकड़ होती थी और वह सही मायने में पढ़ा लिखा व्यक्ति होता था लेकिन जब अंग्रेज 1947 में उपमहाद्वीप छोड़कर गया तो समय साक्षरता दर मात्र 49 प्रतिशत थी l जानते हो, यह सब '' कमाल '' किस का था? यह उसी '' इस्लामी मदरसे 'की कलपना का कमाल था जिसने मुसलमानों को महज़ धार्मिक शिक्षा पढ़ाने पर मजबूर कर दिया था l अंग्रेज़ों की दोगली नीति देखें कि एक तरफ तो अंग्रेज़ ने यह किया और दूसरी ओर अपने समुदाय को हर तरह से लैस करने के लिए 1810 में कलकत्ता ही में उपमहाद्वीप का प्रथम मिशनरी स्कूल स्थापित किया जिसमें हमारे पिछले इस्लामी मदरसों की आधार पर मज़हबी अध्ययन के साथ आधुनिक दुनियावी अध्ययन भी पढ़ाए जाते थे।
यूपी सरकार मुसलमानों को खुश करने के लिए कदम बढ़ा रही हैlहाल ही में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मदरसों के आधुनिकीकरण की योजना पेश की है'' दीनी मदरसा '' स्थापित करने के बाद अंग्रेज़ ने यहाँ के स्नातक व्यक्तियों को बस इसी जिम्मेदारी का शिक्षण लेने पर मजबूर किया जो योरोप में चर्च के पादरियों को दिया जाता था अर्थात बच्चा जन्म ले तो बपतिस्मा दे दो, शादी हो तो उसको कानूनी स्थिति प्रदान कर दो, मर जाए तो इसकी अंतिम संस्कार अदा करा दो इतवार के दिन पूजा कर लो। ठीक यही हाल मदरसों के स्नातकों का हुआ lबड़े दर्द से लिखना पड़ रहा है कि अब मदरसों के स्नातकों का यही एक काम रह गया है कि वह बच्चे के कान में अज़ान दें, शादी होने पर निकाह पढ़ा दें, मृत्यु पर नमाज़ जनाज़ह पढ़ा दें और नमाज़ों की इमामत कर लें l आप मुझे बताइए कि इन चारों के अलावा कोई और काम रह गया है मदरसों के स्नातकों का? अंग्रेज नें कैसी शातिराना चाल चली और सुन्दरता से मुसलमानों को महज़ उनके धर्म तक ही सीमित करके बाकी चीजों के नेतृत्व से उन्हें बेदखल कया lहैरत है कि आज मुसलमान खुश हैं कि दीनी मदारिस इस्लाम के महल हैं और यहाँ से इस्लाम की सुरक्षा करनें वालों की खेप तयार होती है lअवश्य होती है मगर क्या मुसलमान सिर्फ मुसलमानों की ही नेतृत्व करने के लिए भेजे गए हैं इस्लाम सिर्फ मुसलमानों के लिए आया है? और अगर एसा है तो हमारे हुजुर नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम रहमतुल्लिल आलमीन क्यों हैं रहमतुल्लिल मुस्लेमीन क्यों नहीं ये एक बहुत बड़ा सवाल है जो मदारिस में आधुनिक ज्ञान व कला की भागीदारी से इनकार करनें वालों से पूछा जा सकता है।
हमारे इन प्राचीन मदरसों का ही कमाल था कि सिविल सर्वीसेज़ के लिए अफ़राद तयार होते थे lपुरे उपमहाद्वीप की सिविल सेवा मदरसों के ही स्नातक पर ही निर्भर थी l क्षेत्र का कोतवाल, खजाने के रक्षक, अदालतों के न्यायाधीश, इमारतों के इंजीनियर, तहसील, जिला, विभाग के सारे जिम्मे दार और सरकार के सारे विभागों में यही मदरसों के स्नातक काम करते थे l लाल किले, ताजमहल, क़ुतुब मीनार समेत उपमाद्वीप की शाह कार इमारतों को बनाने वाले कोई और नहीं इन्हीं मदरसों के स्नातक थे लेकिन 1781 के बाद इतिहास ने जो पलटा खाया तो मुसलमान जो संसार के नेतृत्व करने के लिए आए थे केवल अपने धर्म तक सीमित कर दिए गए और अंग्रेज़ आसानी से सारी चीजों पर हावी हो गया।
मदरसों के इस पृष्ठभूमि को ज़ेहन में रखें और उसके बाद योगी सरकार के परियोजना का अवलोकन करेंl एक बात याद रखें कि सरकार के हर इक़दाम को शक की निगाह से देखना बुद्धीमानी नहीं है lहालांकि सरकार इसके द्वारा मुसलमानों को खुश करना चाहती है मगर हमारे लिए मदरसों के ज़वाल से निकलने का यही एक अकेला रास्ता है l मदरसों के पाठ्यक्रम में बदलाव का मसला बरसों से गूंज रहा है मगर अब तक इस पर कुछ भी न हुआ क्यों कि हमारे मदरसे वाले हमेशा सरकार के फैसलों को शिक की निगाह से देखते आए हैं lबहुत सारे मदरसों वालों को अवश्य ये आशंका होगा कि सरकार की दृष्टि पाठ्यक्रम में परिवर्तन के माध्यम से मदरसों में हस्तक्षेप की है इसलिए वह उसकी जम कर निंदा करेंगे और उसकी पूर्ति में बाधा डालेंगे l वे समझते हैं कि वे भविष्य मान्यता हैं, दूरगामी हैं मगरकयावह केवल इसी मामले में दूरगामी और भविष्य के प्रति जागरूक हैं? शेष मामलों में उनकी दूरदर्शिता कहा चली जाती है? मेरा एक छात्र के रूप में विचार है कि जब वर्तमान अच्छा होगा तो भविष्य भी अच्छा होगा। और अगरमां लिया जाए कि ऐसा होने वाला भी हो तो काल्पनिक खतरों के कारण मौजूदा लाभ से अनदेखी कहाँ का इंसाफ है?इसलिए अकारण चिंताओं में समय बर्बाद करना और अवसरों को खो देना जल्दबाजी का निर्णय होगा।
हमारे यहाँ एक विचार यह भी पेश किया जता रहा है कि आधुनिक शिक्षा की भागीदारी की राय केवल मदरसों को ही क्यों, कॉलेजों में इस्लामियात की भागीदारी की राय क्यों नहीं? मुसलमान इस संबंध में बड़े भावुक हो जाते हैं कि मदरसों में दुनियावी अध्ययन की भागीदारी ऐसे ही है जैसे मोबाइल बनाने वाले कारखाने से कंप्यूटर बनाने की उम्मीद रखना। इस तरह का ख्याल प्रदान करने वालों से कहा जा सकता है कि 1781 से पहले कोई मदरसा एसा दिखा दें जहां दीनी और दुनयावी अध्ययन एक साथ न पढ़ाए जाते हों और दूसरी बात,जिसका लेखक बार बार ज़िक्र करता रहा है,यह है कि हमें इस समय केवल अपनी चिंता करनी चाहिए, दूसरे लोग क्या करते हैं इससे हमें कोई सरोकार नहीं होना चाहिएl हम इस समय जिन समस्याओं के शिकार हैं पहले उन्हें हल करें,बाद में दुनिया की चिंता करें। अपनी हालत की समीक्षा लिए बिना दूसरों पर टिप्पणियाँ, शिकवे और सलाह बहुत मूर्खतापूर्ण प्रक्रिया है।
सादिक रज़ा मिस्बाही